(चित्र - अनूप शुक्ल के फ़ेसबुक वॉल से साभार) आदमी जितना सभ्य, टेक्नोलॉज़ी एडॉप्टिव होता जा रहा है, अपनी प्रकाशित-अप्रकाशित, व्यक्त-अव्...
(चित्र - अनूप शुक्ल के फ़ेसबुक वॉल से साभार)
आदमी जितना सभ्य, टेक्नोलॉज़ी एडॉप्टिव होता जा रहा है, अपनी प्रकाशित-अप्रकाशित, व्यक्त-अव्यक्त अभिव्यक्ति से उतना ही परेशान होते जा रहा है. अभिव्यक्ति का मसला आने वाले समय में और समस्याएँ पैदा करेगा. जरा याद कीजिए, आपकी अभिव्यक्ति दस साल पहले कहाँ थी? या फिर, याद कीजिए, आपकी अभिव्यक्ति बीस साल पहले कहाँ थी? और, यदि आप अपने आप को बुजुर्ग कहते-समझते हैं तो आपकी अभिव्यक्ति पचास साल पहले कहाँ थी?
कोई तीसेक साल पहले, हमारे जैसे लोगों की अभिव्यक्तियों के कोई लेवाल नहीं होते थे. हमारी अभिव्यक्तियाँ, प्रकाशित-प्रसारित होकर दुनिया तक पहुँचने की लालसा में, अक्सर लाइन वाली कॉपी के काग़ज़ में पेन से लिखी जाकर या यदा कदा, मेकेनिकल टाइपराइटर के जरिए टाइप होकर, लिफ़ाफ़े में बंद होकर, दो रुपए के डाक-टिकट के खर्चे पर, किसी पत्रिका या समाचार पत्र के संपादक के पास पहुँचती थी, और अकसर उसकी कुर्सी के नीचे रखे कचरे की टोकरी में अपनी वीर-गति को प्राप्त होती थी. क्योंकि हमारे पास अपनी अप्रकाशित अभिव्यक्ति को वापस अपने पास वापस बुलाने के लिए वापसी का, पता लिखा, पर्याप्त डाक टिकट लगा लिफ़ाफ़ा संलग्न करने के संसाधन आमतौर पर नहीं होते थे. और हम महीनों झूठ-मूठ का इंतजार करते रहते थे कि कोई दयालु संपादक हमारी अभिव्यक्ति को दुनिया तक जरूर पहुंचाएगा. मगर, संपादक एक, गिनती के पृष्ठों वाली पत्रिका, समाचार पत्र एक, और संपादक-प्रकाशक के मित्र-मंडली के लोग और प्रकाशित-प्रसारित होने के इंतजार में, लाइन में लगी उनकी अपनी अभिव्यक्तियाँ. लिहाजा, हमारी अभिव्यक्तियां बेमौत मरती रही दशकों तक. दिमाग के अंदर ही अंदर. हमारी अप्रकाशित, अप्रसारित अभिव्यक्तियों से भले ही हमें बड़ी भयंकर किस्म की शारीरिक-मानसिक समस्याएँ होती थी मगर अगले को, किसी अन्य को, आम जनता को इससे कोई समस्या नहीं होती थी. कुछ अज्ञेय किस्म के कवि हृदय लोग, इसीलिए अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकट करने के लिए जंगलों में, नदियों के किनारे चले जाते थे और प्रकृति को अपनी रचना-पाठ (अभिव्यक्ति ही कहें,) सुना कर, हल्के होकर आते थे. और, बहुधा, यूज़-इट-ऑर-लूज़ इट की तर्ज पर, आमतौर पर लोग अभिव्यक्ति रहित बने रह कर ही काल-कवलित हो जाते थे.
और फिर आ गया इंटरनेट. बुलेटिन-बोर्ड. ब्लॉग. ट्विटर. फ़ेसबुक. व्हाट्सएप्प. हरेक की हर अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त जगह. यहाँ तक कि आपके रसोई घर के तिलचट्टे की अपनी अभिव्यक्ति को दुनिया के सामने रखने के लिए भी पर्याप्त से अधिक जगह. जो चाहे लिखो और छाप दो. जो चाहे सोचो और छाप दो. चाहो तो बिना सोचे छाप दो और चाहे तो छापने के बाद सोचो कि अरे, ये क्या छाप दिया. सुबह ब्रह्म मुहूर्त में छापो, शाम गोधूली बेला में छापो, रात के ठीक बारह बजे, चाहे जिस अवस्था में हो, छापो. और, प्रिंट वर्जन की तरह ये भी नहीं कि तीर कमान से निकला तो वापस नहीं हुआ. छापो, और हल्ला मचे या पता चले कि गलत छप गया तो मिटा डालो. कह दो कि आपका एकाउंट हैक हो गया और आपके नाम से किसी दुश्मन ने या हैकर ने ऊलजुलूल छाप दिया. अलबत्ता इंटरनेट पर एक मर्तबा छप गई चीज अमिट हो जाती है तो क्या हुआ. अगला स्क्रीन-शॉट ले के रख ले तो क्या हुआ. या फिर, डेढ़ सयाने बन कर ये कह दो कि आपकी अभिव्यक्ति का वो मतलब कतई नहीं था जो समझा जा रहा है. मतलब वो है जिसको समझ कर लिखा गया था. अगला अनपढ़ है, मूर्ख है, कम पढ़ा लिखा है, आपकी बातों को सही तरीके से नहीं समझता है तो इसमें आपकी और आपकी अभिव्यक्ति की क्या ग़लती है भला?
अब तो अभिव्यक्ति का बड़ा मार्केट भी हो गया है. अभिव्यक्ति का माध्यम लेखन-पठन-पाठन से बहुत आगे निकल कर दृश्य-श्रव्य माध्यम तक तो ख़ैर पहुंच ही गया है, इसका बड़ा बाजार भी बन गया है. लाइक का बाजार. साझा का बाजार. आपकी अभिव्यक्ति को अगर न्यूनतम हजार लाइक नहीं मिला, एक सैकड़ा साझा नहीं हुआ, पचास कमेंट हासिल नहीं हुआ तो फिर वो क्या खाक अभिव्यक्ति हुआ? वायरल अभिव्यक्ति वाला तो आज के जमाने का हीरो है. लिहाजा बहुतों की अभिव्यक्ति सलेक्टिव किस्म की, ऑलवेज़ कंट्रोवर्सियल किस्म की हो गई है. पता है कि यदि अभिव्यक्ति को सीधे-सपाट-सच्चे तरीके से परोसा जाएगा तो कोई इसे तवज़्ज़ो नहीं देगा. कोई पूछेगा भी नहीं, कोई घास नहीं डालेगा. इसीलिए अभिव्यक्ति में विवादास्पद चीज़ों का हींग-मिर्च जैसा जोरदार तड़का मारा जाता है, और फिर उससे उठने वाले बवाल का मजा लिया जाता है. टिप्पणियों, प्रति टिप्पणियों की गिनती रखी जाती है, रिपोर्ट और ब्लॉक करने के नायाब खेल होते हैं और इस तरह अपनी-अपनी अभिव्यक्ति को और पंख लगाए जाते हैं.
आधुनिक अभिव्यक्तियाँ कई कई रंगों में आती हैं. धार्मिक-अधार्मिक हरी, नीली, पीली, गेरुआ. चाहे जिस रंग की कल्पना कर लें. इतने रंगों में अभिव्यक्तियाँ जितने कि आपके मिलियन कलर वाले मोबाइल-कंप्यूटर के फ़ुल हाई-डेफ़िनिशन स्क्रीन में उतने रंग के पिक्सेल नहीं होंगे. बड़ी बात ये है कि गेरुआ अभिव्यक्तियों को हरी अभिव्यक्तियाँ पसंद नहीं और हरी को गेरुआ पसंद नहीं. वे एक दूसरे के वॉल और वेब पृष्ठों पर कालिख रंग की अभिव्यक्तियाँ लेकर कूद पड़ती हैं, और समय-कुसमय कालिख की होली खेलती हैं. और, राजनीतिक अभिव्यक्तियों की तो बात ही छोड़ दें. कण-कण में भगवान के दर्शन वाले देश भारत में आजकल अभिव्यक्ति के कण-कण में राजनीति का दर्शन चलता है. अब तक तो वाम और दक्षिणी राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ चलती थीं, पिछले कुछ वर्षों से आपिया राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ भी धड़ल्ले से चलने लगी हैं. बीच-बीच में राष्ट्रवादी अभिव्यक्तियाँ भी उछलकूद मचाती आती हैं.
साझा, फारवर्ड, टैग जैसी आधुनिक अभिव्यक्तियों की तो और बड़ी समस्याएँ हैं. आपने कुछ बढ़िया सोच कर वो!मारा!! अंदाज़ में किसी प्लेटफ़ॉर्म पर कुछ अच्छा सा, क्रियेटिव सा अभिव्यक्त किया, और अभी घंटा भर गुजरा नहीं कि वो अंतहीन फारवर्ड होकर, घूम-फिर-कर वापस आपके पास ही चला आया, किसी और नाम से, किसी और के क्रेडिट से. अभिव्यक्ति आपकी, क्रेडिट किसी और को! ये तो फिर भी ठीक है, परंतु जब एक ही अभिव्यक्ति, आपके पचास संपर्कों-समूहों-मित्रों से, बारंबार घूम-फिर-कर, हर संभावित प्लेटफ़ॉर्म से, सैकड़ा बार आपके पास आने लगे तो आप क्या करेंगे?
आधुनिक अभिव्यक्ति से सन्यास लेंगे? हाँ, शायद यही उचित समय है.
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