साहित्यिक खेती यदि आपमें पत्रकारीय गुण हैं तो आप साहित्यिक खेती के लिए सदा-सर्वदा से उपयुक्त पात्र होंगे, वो भी इस सृष्टि के प्रारंभ से, और ...
साहित्यिक खेती
यदि आपमें पत्रकारीय गुण हैं तो आप साहित्यिक खेती के लिए सदा-सर्वदा से उपयुक्त पात्र होंगे, वो भी इस सृष्टि के प्रारंभ से, और इसके अंत होने तक. क्योंकि, जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे साहित्यकार. ठीक है, तुकबंदी में थोड़ी तुक मिल नहीं रही है, मगर मसला अब खांटी-कवि से आगे बढ़कर बहु-विध-साहित्यकार तक पहुँच गया है, इसलिए बेतुका भी चलेगा.
तो, बात साहित्यिक खेती की और पत्रकारीय गुण की हो रही थी. यदि आपमें पत्रकारीय गुण हैं तो आप हर विषयों में लिखने में पैदाइशी सक्षम होंगे. सृष्टि के हर अंधे कोने में प्रकाश डालने में सक्षम होंगे. हर विषयों के ज्ञाता होंगे. आपके लिखे के हर हर्फ, हर वाक्य और हर पैराग्राफ में ज्ञान-गंगा बहती मिलेगी. इतनी, कि आप लता को लता नहीं, केवल भजन गायिका भी कह लेंगे, और ऐसा कहते हुए आपको कान पकड़ने की भी जरूरत नहीं होगी. अब भले ही उस किस्म का लेखन केल्कुलेटेड मूव हो, टीआरपी बटोरक हो, मगर भई, बात खेती की हो रही है तो उपज तो अच्छा मंगता है ना? इसलिए, कंट्रोवर्सी की शातिराना खाद, इन्वोकिंग की कीटनाशक-खरपतवार नाशक और ट्रॉलिंग की निराई-गुड़ाई भी भरपूर होती है और ऐवज में उपज में बढ़ोत्तरी दिनोंदिन होती है. इतनी, कि इधर स्टेटस का एक सड़ियल सा बीज बोया, और उधर लहलहाती फसल तैयार!
साहित्यिक खेती में कविताई खेती सबसे आसान है. हर कोई – दोहराया जा रहा है – हर कोई, जिसके हाथ में आज एक अदद स्मार्टफ़ोन है, वो कविता लिखने में सक्षम है और अधिकांश लिख रहे हैं, छप भी रहे हैं, भले ही ये बात दीगर हो कि कहाँ छप रहे हैं अथवा छप कहाँ रहे हैं. मेहनत लगे न मजूरी, कविता बढ़िया आय. वो भक्तिकालीन जमाना गया जब रसछंदालंकार की बातें होती थीं, और कविताई में मात्रादि की गिनती होती थी, भाव और वर्तनी की बातें होती थी. अब तो जब भाषा में देवनागरी अक्षरों के साथ रोमन स्क्रिप्ट भी घुसती चली आ रही है तो मात्राओं की गिनती की बातें तो छोड़िये, वर्तनी भी भूल जाइए. पता नहीं किस दिलजले शब्दकार ने ‘कि’ और ‘की’ गढ़ दिया जिसमें प्रकटतः आज के तथाकथित मॉडर्न साहित्यकारों को कोई आम-या-खास अंतर नज़र ही नहीं आता.
कविता में, जब भावों को पढ़ने वालों के ऊपर छोड़ा जा सकता है तो वर्तनी को भी तो पाठक के ऊपर छोड़ा जा सकता है – कि भइए, तुझमें अगर औकात है तो ठीक करके पढ़ले. नहीं तो आगे बढ़ले! या, शायद अधिकांश समकालीन कविता लेखन इसी थ्योरी के आधार पर होने लगी हैं. भले ही माइक्रोसॉफ्ट, गूगल से लेक फ़ेसबुक तक सब अपने अपने लेखन प्लेटफ़ॉर्म में हिंदी वर्तनी जांच की अंतर्निर्मित सुविधा प्रदान कर दें, पर, हमें क्या? वर्तनी से हमारे लेखन को क्या लेना-देना? आज की साहित्यिक खेती की फसल में वेल्यू एडीशन वर्तनी से नहीं, बल्कि स्त्रीवाद, दलितवाद, किसानवाद, राष्ट्रवाद आदि-आदि से होता है. और हाँ, मार्क्सवाद से कभी आता रहा होगा, पर अब जमाना आईएसआईएसवाद का आ गया है, गौरक्षावाद का आ गया है.
साहित्यिक खेती में एक बात और विशिष्ट किंतु मजेदार है. हर कोई, अपने-अपने खेत-खलिहान को बटोरने, चमकाने, बढ़िया फसल पाने और उसके बाद बाजार में उसका उत्तम मूल्य पाने में संघर्षरत है. मगर साथ-साथ वो दूसरे की खेती को एकदम निकृष्ट, बेकार, अनुपयोगी, कचरादि बताने-स्थापित करने में उतना ही तल्लीन और प्रयासरत है. यहाँ तक कि एक समकालीन कवि अपने और गिनती के दो और के अलावा किसी और को कवि मानता ही नहीं. बताओ भला! जिस देश में सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक में कवि, कविताई, कविता-संग्रहादि भरे पड़े हों, यहाँ तक कि नुक्कड़ की भजिए की दुकान में किसी कागज के ठोंगे में पकौड़े खाते हुए इस बात की शत-प्रतिशत संभावना रहती है कि ठोंगे का कागज़ किसी कविता-संग्रह के चिकने आर्टपेपर का बना है और उसमें किसी कवि की उद्दात्त प्रेम कविता छपी है, वहाँ केवल और केवल तीन अदद कवि! हे ईश्वर! इन पंक्तियों का सृजन होते समय यह सृष्टि नष्ट क्यों न हो गई!
मैंने भी आज की अपनी साप्ताहिक जुगलबंदी की खेती कर ली है. देखते हैं टिप्पणियों, साझाकरण आदि की वाइरल फसल कितनी होती है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-06-2017) को
हटाएंरविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर; चर्चामंच 2644
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक