हैप्पी दीपावली बनाम शुभ दीपावली - अब, जब आदमी का खाना-पीना-सोना यानी लगभग सबकुछ सोशल मीडिया के इर्दगिर्द हो रहा है तो फिर उसकी ईद-क्रिसमस-हो...
हैप्पी दीपावली
बनाम
शुभ दीपावली -
अब, जब आदमी का खाना-पीना-सोना यानी लगभग सबकुछ सोशल मीडिया के इर्दगिर्द हो रहा है तो फिर उसकी ईद-क्रिसमस-होली-दीवाली भी तो सोशल मीडिया पर ही होगी. ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब सोशल मीडिया नामक दानव ने व्यक्ति के जीवन में प्रवेश नहीं किया था, तब त्यौहार सचमुच त्यौहार होते थे और दीवाली सचमुच की दीवाली. न पर्यावरण व त्यौहारी ढकोसलों की चिंता परवाह और न किसी किस्म की गिल्ट फ़ीलिंग. दीवाली पर हैसियत अनुसार जी भर के पटाखे फ़ोड़ते थे और रौशनी करते थे. होली पर जी भर के बाल्टी भर भर के रंग उंडेलते थे और टंकियों भर रंग खेलते थे. और बकरीद पर... खैर, छोड़िए. अभी तो आप दीवाली पर चार पटाखे ज्यादा क्या फोड़ लेंगे, यदि रात दस बजे के बाद पटाखे फोड़ने का कुत्सित किस्म का प्रयास कर लेंगे और रौशनी की चार लड़ी अधिक लगा लेंगे, वह भी चीनी, तो पड़ोसी आपको यूं देखेंगे जैसे कि आप निरे जाहिल गंवार हैं और आपको ध्वनि प्रदूषण और धरती के पर्यावरण की, और राष्ट्रवाद की कोई चिंता ही नहीं है. आप उसकी नजर में मानवता के घोर दुश्मन नजर आएंगे जो प्रकृति को नष्ट करने के प्रयास में लगा है, और समय मिलते ही पहला काम वो यह करेगा - अपने इस अनुभव को फ़ोटोग्राफ और सेल्फ़ी के सुबूतों के साथ सोशल मीडिया में पोस्ट करेगा, आपको लानतें भेजेगा और सोशल मीडिया में इस तरह बदनाम करेगा. इसी वजह से अब दीवाली में अच्छी खासी संख्या में रस्सी बम बिना फूटे रह जाते हैं और ढेरों चीनी लड़ियाँ बिना लटकी रह जाती हैं अपने भाग्य को कोसते. क्योंकि होता यह है कि आप त्यौहारी उत्साह से या बच्चे की जिद से इन्हें खरीद कर ले तो आते हैं, मगर लोग क्या कहेंगे, कहीं सोशल मीडिया में टंग तो नहीं जाएंगे, यह सोचकर उपयोग नहीं कर पाते हैं. ऊपर से, कोढ़ में खाज की तरह न्यायालय भी अपने सिर पर आ बैठा है - वो हरित हो या सर्वोच्च - कहता है, बेटा, वैसे बहुत दीवाली मना लिया, अब ऐसे मना!
दीवाली ही क्या, दिया गया कोई भी त्यौहार ले लीजिये, उस दौरान यदि आप सोशल मीडिया में थोड़ी देर घूम फिर आएं, मन में अवसाद लेकर चले आएंगे और, अपने आपको और अपने पुरखों को कोसने लगेंगे कि पर्यावरण की चिंता, धरती की चिंता किए बगैर, मानवता की चिंता किए बगैर ऐसे-ऐसे वाहियात त्यौहार मनाने की परंपरा क्यों और कैसे चली आ रही है और इनमें नित नई फूहड़ताएँ क्यों घुसी चली आ रही हैं. होली में पानी बचाओ लकड़ी बचाओ कैंपेन चलेगा तो बकरीद पर बकरी बचाओ. गणपति-दुर्गापूजा पर ध्वनि प्रदूषण और पर्यावरण-मित्र मूर्तियों की बातें चलेंगी तो दीवाली पर पटाखे नहीं फोड़ने और चीनी झालरों के बहिष्कार के कैंपेन चलेंगे. अब जरा बताइए, बिना पटाखों के कोई दीवाली, दीवाली हो सकती है भला? और, यदि 50 रुपए में घर में बढ़िया रौशनी हो रही हो तो आदमी 500 रुपए क्यों खर्च करे? झालर चीनी हो तो हुआ करे, बच तो अपना धन रहा है – फ़िजूल खर्ची कर धन की देवी लक्ष्मी का अपमान वह भी दीवाली में, लक्ष्मीपूजन के समय! क्या यह चलेगा? बिलकुल नहीं!
सोशल मीडिया और त्यौहार
एक सरसरी निगाह से देखें तो सोशल मीडिया का स्वरूप त्यौहार विरोधी दिखाई देता है. किसी त्यौहार के पक्ष में चार लोग कुछ कहते हैं तो विपक्ष में चालीस लोग अपने तर्क-कुतर्क समेत चले आते हैं. त्यौहारों पर धीर-गंभीर और शोधात्मक शास्त्रोक्त बातें करने वाले चार होते हैं तो हवाई खिल्ली उड़ाने वाले चालीस.
मगर, वास्तविकता तो यह है कि सोशल मीडिया जैसा त्यौहार-बाज प्लेटफ़ॉर्म और कोई नहीं है. याद कीजिए अपने पिछले जन्मदिन को. फ़ेसबुक पर, व्हाट्सएप्प पर, लाइन और टेलीग्राम पर आपको कितने सैकड़ा-हजार बधाईयां मिलीं? बधाइयों का यह सिलसिला बाकायदा हफ़्ते भर पहले से जो चालू होता है तो वो दो हफ़्ते तक बिलेटेड चलता रहता है. इसके उलट, कोई दशक भर पहले के अपने जन्मदिन की याद कर लें. आंकड़ा दर्जन भर में ही सिमट गया होगा, और बहुत संभव है, दूसरों की तो दूर, आप स्वयं वो दिन भूल गए होंगे. होली दीवाली पर भी यही हाल होता है. दीवाली की इतनी बधाईयाँ, हर संभव ऐप्प के जरिए आप तक पहुँचती हैं कि यदि आप वाकई इन बधाइयों में लिखी इबारतों को पढ़ने बैठ जाएँ, मल्टीमीडिया संदेशों को देखने सुनने बैठ जाएं, तो अगली दीवाली तक ये किसी सूरत खत्म न हों!
फिर, सोशल मीडिया में तो हर रोज दीवाली मनती है. देश दुनिया में चलता हुआ कोई भी एक नामालूम सा विषय उठा लिया जाता है और फिर दो-तरफ़ा पटाखे फ़ोड़ने का दौर चल निकलता है. कोई समर्थन के रस्सी बम दागता है तो कोई विरोधों की अंतहीन फुलझड़ियाँ छेड़ता है. कोई तटस्थता के अनार चलाता है तो कोई तीसरा ही चौथे की इस तटस्थता को संज्ञेय अपराध घोषित करता हुआ रॉकेट चलाता है कि भाई, ऐसे नहीं चलेगा. गोया आपको कोई न कोई किनारा पकड़ना ही होगा. त्यौहार तो मनाना ही होगा. यदि आप सोशल मीडिया में हैं, तो फुलझड़ी हरी जलाओ या गेरुआ, जलानी तो पड़ेगी!
सोशल मीडिया की त्यौहारी तैयारियाँ
दीपावली का त्यौहार हर्षोल्लास से मनाने के लिए लोग बहुत पहले से तैयारी करते हैं. दीपावली में नए कपड़े, नए जूते पहनने का चलन है. सोशल मीडिया ने आदमी को चहुँओर से अपग्रेड कर दिया है. अब दीवाली पर नई डीपी, नया स्टेटस अपडेट और नया बैकग्राउंड फ़ोटो लगाने का प्रचलन है. नए कपड़ों व जूतों से ज्यादा जरूरी ये हो गए हैं. माल भले ही कॉपी-पेस्ट हो, मगर दिखना विशिष्ट, अलग चाहिए. इसीलिए वे पहले से ही ऐसी चीजों को ढूंढना व कॉपी कर सहेजना प्रारंभ कर देते हैं. पहले लोग दीवाली में अपने घरों की साफ सफाई किया करते थे. घर में पड़े कूड़ा कबाड़ा हटाते थे, जाले साफ करते थे और घरों की दीवारों, दरवाजे खिड़कियों में रंग रोगन करते थे. आजकल लोग दीवाली में अपने फ्रेंड लिस्ट धोते चमकाते हैं. मित्र, प्रशंसक, फ़ॉलोअर और अनुसरणकर्ताओं को ब्लॉक-अनब्लॉक करते हैं. ग्रुप की सदस्यता की साफ सफाई करते हैं, अपने सोशल प्लेटफ़ॉर्म के वाल सजाते संवारते हैं. उनकी थीमें बदलते हैं. दीपावली के वार्षिक घरेलू साफ-सफाई की अपेक्षा सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की साफ सफाई कहीं ज्यादा श्रमसाध्य और तकलीफ़देह है. ऊपर से, कोई एक प्लेटफ़ॉर्म होता तो भी कोई बात थी. यहाँ तो फ़ेसबुक भी है तो व्हाट्सएप्प भी, लिंक्डइन भी है तो इंस्टाग्राम भी. और अब तो टिंडर भी आ गया है!
जिस तरह पटाखों की दुकानें सजती हैं, कुछ अरसा पहले तक, दीपावली पर ग्रीटिंग कार्डों की दुकानें सजा करती थीं. आर्चीज़ और वकील जैसे नामी ब्रांडों से लेकर स्थानीय प्रिंटर में प्रिंट किए या प्रीमियम हैंड-मेड आदि किस्म किस्म के दीपावली के बधाई कार्ड मिलते थे. चिप व बैटरी लगे हुए म्यूजिकल बधाई कार्ड भी अवतरित हो चुके थे. हर रेंज के, हर जेब के मुताबिक - व्यक्तिगत के लिए खुदरे में विविध पसंदानुसार और व्यावसायिक उपयोग के लिए थोक में एक जैसे छपे हुए मिलते थे. हर आम व खास अपने हर आम व खास को दीपावली के ग्रीटिंग कार्ड भेजता था. सोशल मीडिया ने छपे ग्रीटिंग कार्डों का धंधा बल्कि उसका कंसेप्ट ही चौपट कर दिया – जैसे वाट्सएप्प ने पारंपरिक एसएमएस का किया है. स्वभाव से आरामतलब और कृपण आदमी ने भौतिक ग्रीटिंग कार्डों का शानदार विकल्प सोशल मीडिया में ई-कार्डों के रूप में देख लिया. हींग लगे न फिटकरी के तर्ज पर पिक्चर-पोस्टकार्ड, एनीमेटेड जिफ और ऑडियो-वीडियो युक्त मीडिया के जरिए जब मुफ़्त में सोशल मीडिया में बधाईयों का आदान प्रदान शानदार तरीके से हो तो आदमी धन क्यों खर्च करे? वह भी ऐसे बधाई कार्डों पर जिसे एक बार देख लेने के बाद आमतौर पर कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है. यूँ, हजार बार फारवर्ड मारे गए, सुंदर सुंदर मीडिया फोटो-वीडियो फ़ाइलें जिन्हें ई-कार्ड या इलैक्ट्रॉनिक ग्रीटिंग कार्ड कह लें, जो हम-आप एक दूसरे को भेजते हैं वो भी एक तरह से ई-कचरा ही हैं.
जो भी हो, सोशल मीडिया ने व्यक्ति की उत्सवधर्मिता में नए आयाम तो जोड़े ही हैं, और इनमें से बहुत से मानवता के लिए शुभकारक भी हैं. तो आइए, इस दफ़ा केवल सोशल मीडिया में ही दीपावली मनाएँ. वर्चुअल दीपावली. ई-ग्रीटिंग करें, मल्टीमीडिया फ्लैश की फुलझड़ियाँ जलाएँ और ईपटाखे फ़ोड़ें और बिजली बचाने के लिए अपने घरों की दीवालों पर चीनी हो या देसी किसी भी किस्म की लड़ियाँ लगाने के बजाए अपने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर जगमग करती फ्लैश एनीमेशन की वर्चुअल लड़ियाँ लगाएँ. आपको दीपावली की ढेरों सोशल मीडिया कामनाएँ!
(कादंबिनी अक्तूबर 2017 दीपावली विशेषांक में पूर्व-प्रकाशित)
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