दिसम्बर 05 छींटे और बौछारें में प्रकाशित रचनाएँ ***** एक लत यह भी ! श्रेणी: समाज पर निगाह — @ 6:11 pm **-** संभवतः आपको भी मेरी तरह ब्लॉग या...
दिसम्बर 05 छींटे और बौछारें में प्रकाशित रचनाएँ
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एक लत यह भी !
श्रेणी: समाज पर निगाह — @ 6:11 pm
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संभवतः आपको भी मेरी तरह ब्लॉग यानी चिट्ठों की लत लग गई होगी. मगर यह लत शराब, सिगरेट, तम्बाखू, चरस, गांजा, ड्रग्स की लत सी नहीं है. बल्कि यह लत तो उससे भी बढ़कर, भयंकर है. क्योंकि किसी बेकार सी सुबह जब अपरिहार्य कारणों से आप औरों का चिट्ठा पढ़ नहीं पाते और अपना स्वयं का चिट्ठा पोस्ट नहीं कर पाते तो फिर हालत देखने लायक रहती है – किसी असाध्य, पुराने रोगी से भी ज्यादा बीमार!
जब तक आप अपना आज का चिट्ठा पोस्ट नहीं कर लेते हैं, सोचते रहते हैं क्या लिखें. कभी दर्जनों मसाला हाथ में रहते हुए भी नहीं सूझता कि कैसे लिखें – क्या लिखें. कभी कोई विषय सूझता भी नहीं और कुंजीपट पर हाथ अपने आप दौड़ने लगता है. चिट्ठा पोस्ट करने के बाद भी सोचते रहते हैं कि अरे, इसे तो ऐसा भी लिखा जा सकता था और वैसा भी. इस विषय के बदले वो वाला विषय रहता तो ज्यादा अच्छा रहता, या इसे ऐसे लिखता तो भी ज्यादा बेहतर होता. पोस्ट करने के बाद अकसर कई-कई दफा उसमें बदलाव परिवर्तन करते रहते हैं. कुछ नहीं तो फ़ॉन्ट का आकार, रुप-रंग ही सुधारते रहते हैं. इसी में दिन बीत जाता है तो फिर दूसरे दिन क्या लिखें इसकी चिन्ता खाने लगती है. कोई विषय पर कोई और पहल कर अपना चिट्ठा पहले लिख देता है तो तमाम दिन आपको सालता रहता है कि अरे! इस पर तो मैं भी, बड़े अच्छे से लिख सकता था- अगले ने फोकट में बाजी मार ली.
चिट्ठा पोस्ट करने के बाद आपका बहुत सारा समय बहुत सारी खुशफ़हमी में बीत जाता है कि लोग पढ़ रहे होंगे, पढ़ने वालों को आनन्द आ रहा होगा. समस्यामूलक चिट्ठों से पाठकों में भी जागृति की भावना जागृत होगी और मज़ेदार, जानकारी परक चिट्ठों से पाठकों के ज्ञान में वृद्धि होगी. फिर पाठकों की टिप्पणियों का इंतजार चालू हो जाता है. कभी उम्मीद से ज्यादा और कभी उम्मीद से कम टिप्पणियाँ किसी चिट्ठे की आत्मा को हमेशा उद्वेलित करती रहती हैं, और, उसे पोस्ट करने वाले चिट्ठाकार को तो और भी भयंकर ज्यादा.
ये तो हुई अपने चिट्ठे पोस्ट करने के लत की बात. दूसरों के चिट्ठे पढ़ने की लत तो और भी बुरी है. आप किसी चिट्ठे के बारे में यह अंदाज़ा कतई नहीं लगा सकते कि वह आज क्या लिखने वाला है. और यही तो आकर्षण-लत का कारण होता है. चिट्ठा लत का एक और कारण यह होता है - किसी चिट्ठे को पढ़कर आप हर्षित होते हैं, किसी को पढ़कर तिलमिला जाते हैं, किसी को पढ़कर प्रसन्न हो जाते हैं और किसी-किसी को पढ़कर तो अपने आप पर गुस्सा भी करते हैं कि क्या घटिया चीज़ें पढ़ते रहते हैं – सचमुच के एक्स्टेसी- हीरोईन के नशे के जैसा अनुभव. किसी पोस्ट को पढ़कर कभी लगता है कि दौड़कर उसके चिट्ठाकार को गले लगा लें या उसके चरणरज का स्पर्श कर लें. और कभी इसके विपरीत लगता है कि अच्छा ही हुआ वह चिट्ठाकार अपने आसपास नहीं है, नहीं तो दुनियावालों को एक और महाभारत के किस्से पढ़ने को मजबूर होना पड़ता.
वैसे, चिट्ठों में यह बात तो है कि वे कभी बायस्ड नहीं होते. अगर किसी विचारधारा में वे बायस्ड हैं भी तो आप बायस्ड होकर नहीं पढ़ सकते हैं – और भी तो तमाम दूसरे चिट्ठाकार होते हैं पढ़ने के लिए. ऊपर से चिट्ठों में क्या नहीं होता? कथा-कविता-कहानी-चुटकुले-व्यंग्य-पहेली-तकनीकी-वैज्ञानिक जानकारी से लेकर ताज़ा समाचारों तक! और मनुष्य तो इनका दीवाना प्रारंभ से रहा है- जब लत पड़ने की तमाम सामग्रियाँ एक साथ होंगी – तो आदमी चिट्ठा लती क्यों न हो जाए?
चिट्ठों में भीषण अनाकर्षक विषयों के बारे में भी उतने ही अनाकर्षक विस्तार से और बड़े ही नए-नवेले तरीके से छपता है और प्रायः यह देखा गया है कि मेरी तरह, अन्य पाठकों को इन्हीं तरह के चिट्ठों में ही मज़ा आता है. स्टेट काउंटर की रपटें अक्सर यह बताती हैं कि किसी तकनीकी जानकारी युक्त पोस्ट को तो लोगों ने घास नहीं डाली, परंतु प्रेम प्यार के किस्सों को पढ़ने वालों की लाइन लग गई. चिट्ठों के लत लगाने में चिट्ठे का एक खास गुण बहुत ही खतरनाक है. वह यह है कि किसी का कोई चिट्ठा टाइप्ड हो ही नहीं सकता. उसमें मोनोटोनसता आ ही नहीं सकता. एकरसता का अनुभव आ ही नहीं सकता. चिट्ठाकार एक दिन तो अपने आँगन में बिछे बर्फ की बात करता है तो दूसरे दिन भीषण गर्मी में अपनी नानी के गांव के नीम के पेड़ की छांव तले बिताए लम्हों की बात करता है. इसी तरह विभिन्न चिट्ठाकार जाने कहाँ से खोज-खोज कर विषयों को लाते रहते हैं, उस पर लिखते रहते हैं. अब आप ऐसे नायाब किस्से कहानियों को पढ़-पढ़ कर उसके लती तो हो ही जाएंगे. और अगर कभी अनुगूंज के विषय की तरह तमाम चिट्ठाकार एक ही विषय के बारे में भी लिखते हैं तब भी ऐसे बार-बार दोहराव वाले विषय भी हर बार, हर-एक की नई शैली, नए भाषा विन्यास, वर्णन के नए अंदाज, और कुछ नहीं तो चिट्ठा-स्थल की जमावट के कारण हर बार हर चिट्ठे को बार बार पढ़ने में मजा ही आता है.
चिट्ठों में ढेरों खूबसूरत, नशे जैसी बातें हैं. आपका दिमाग शंट हो रहा है? कोई फुरसतिया टाइप चिट्ठा पढ़ लें. कोई काम करने को मन ही नहीं हो रहा है? कल की चिट्ठा पोस्टिंग के लिए कोई प्लाट सोच लें. मन अलसाया सा हो रहा है? अगले के चिट्ठों पर दो चार टिप्पणियाँ ठोंक मारिए. आज का दिन तो वाह, क्या बात है बढ़िया गुजरा – एक चिट्ठा लिखने का सबसे सटीक अवसर. कोई तूफ़ानी दिन बड़ा नागवार गुज़रा – अपना दर्द बांटने के लिए चिट्ठा लेखन - सबसे सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ साधन.
इसी कारण यह लत लोगों में भीषण, महामारी की तरह फैल रहा है. और, सबसे बुरी बात तो यह है कि इस लत से पीछा छुड़ाने का न तो साधन है, न कोई इलाज है और न ही कोई नुस्खा है!
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आदर्शवादी संस्कार : ये क्या होता है?
आदर्शवाद एक भ्रान्ति है – फ़लॉसी है.
मेरे समाज में शराब पीना बुरा माना जाता है. बहुत समय पहले मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे. उनके समाज में शराब पीना सामाजिकता माना जाता है. कोई भी पाहुना-मेहमान आता था तो चाहे जैसे भी हो, उन्हें उनका स्वागत सत्कार मुर्गा-दारू से ही करना पड़ता था. बाहर आदमी लोग दारू पीने के लिए बैठते तो पहला जाम घर की औरतों के लिए अंदर भेजा जाता. सरगुजा के कोरवा आदिवासियों में हर घर में दारू बनती है. साल भर के बच्चे को भी वे दारु पिलाते हैं और जब वह बच्चा मस्ती में नाचता है तो बड़े-बूढ़े मजे लेते हैं.
यहाँ आदर्श कौन सा समाज है? जो दारू नहीं छूने देता या जहाँ मेहमान नवाज़ी में दारू आवश्यक रुप से परोसना होता है?
मेरे एक अन्य पड़ोसी थे. पक्के निरामिष. वे मेरे सामिष आहार पर टीका करते थे कि मैं कैसे ये सब खा लेता हूँ. पर वे धी-दूध-मक्खन-मलाई से तर माल उड़ाते थे, जिस पर मैं टीका करता था, और बताता था कि मनुष्य जन्म से ही सामिष है. उसका प्रथम आहार – मां का दूध ही सामिष होता है. एक बार मैंने उन्हें मेनका गांधी का लिखा आलेख पढ़वाया – घी-दूध उतना ही सामिष है जितना गो-मांस. उनके आदर्शवाद को एक क्षण के लिए डगमगाता तो देखा, परंतु उनका वह आदर्शवाद बदला नहीं.
सिने तारिका खुशबू के जिस बयान को लेकर आदर्शवादी हल्ला मचा रहे हैं, मजा देखिए कि 21 चुंबनों वाली और विवाह-पूर्व संबंधों को महिमा मंडित करने वाली फ़िल्में नील और निक्की, सलाम नमस्ते सिनेमाघरों में धूम मचा रही हैं. बस्तर में घोटुल में किशोर और नव-वयस्क विवाह-पूर्व सम्बन्धों के जरिए ही जीवन का अनुभव सीखते हैं और यह प्रथा उस समाज में पीढ़ियों से चली आ रही हैं – बिना किसी उलटे प्रभाव के. मालवा के झाबुआ अंचल में जब गेहूँ की फसल तैयार हो जाती है तो गांव गांव में मेला लगता है. विवाह योग्य युवक-युवती सज-धज कर मेले में जाते हैं, अपने मन पसंद युवक-युवती चुनते हैं और जंगल में भाग जाते हैं. बाद में मामला जमता है तो शादी कर लेते हैं. फिर भी, पश्चिमी देशों के लिव-इन रिलेशन शिप को क्या भारतीय परिवेश में कभी आदर्शवादी संस्कार की श्रेणी में माना जाने लगेगा? निकट भविष्य में तो, शायद नहीं. और, आज अगर आप भगवान् श्री कृष्ण की तरह सोलह हजार पटरानियों से रास लीला रचाएँगे तो सीधे जेल में चले जाएँगे.
मालवा-राजस्थान से लगे क्षेत्र में कंजर आदिवासी रहते हैं. उनकी पीढ़ियों में सदियों से प्रथा है कि वे चोरी-चकारी कर अपना भरण-पोषण करते हैं. वहीं कुछ बेड़िया जाति के लोग भी हैं जिनकी महिलाओं का पेशा वेश्यावृत्ति ही होता है. पुरुष अपने परिवार की महिलाओं के लिए दलाली का कार्य करते हैं और इसमें उन्हें कोई झिझक-शर्म नहीं होती.
बहुत पहले मैंने किसी पत्रिका में एक प्रतिष्ठित परिवार की उच्च संस्कारित लड़की का यह अनुभव मैंने पढ़ा था-
उस लड़की की चचेरी बहन, जो यूरोप में रहती थी, भारत आई थी. एक दिन उनका सारा परिवार कहीं पिकनिक पर जा रहा था. लड़कियाँ तैयार हो रही थीं. परिवार के सारे लोग तैयार होकर बाहर पहुँच चुके थे और हॉर्न पे हॉर्न दिए जा रहे थे. किसी ने बाहर से चिल्ला कर पूछा- अरे चलो भी, इतनी देर क्यों लगा रहे हो? उस चचेरी बहन ने अपनी भारतीय बहन का नाम बोलते हुए जोर से चिल्लाकर उत्तर दिया - अरे अभी आते हैं, जरा इसकी ब्रा का हुक टूट गया है नया लगाकर आते हैं.
इस बात पर भारतीय बहन नाराज हो गई कि तूने क्यों चिल्लाकर कहा कि मेरे ब्रा का हुक टूट गया है. यहाँ के संस्कार में तो ब्रा को छिपाकर पहना जाता है, दूसरे कपड़ों के नीचे, अंदर, छिपाकर धोया-सुखाया जाता है ताकि किसी की नजर न पड़े. उसकी यूरोपीय बहन ने सॉरी कहते हुए उसे बताया कि इसमें छिपाने वाली क्या बात है? यह भी दूसरे वस्त्रों की तरह है – जब उसने अपने लिए पहली बार ब्रा खरीदी तो उसे गर्व से अपने डैडी को पहन कर बताया था और पूछा था कि वह कैसी लग रही है.
ये तो मात्र चंद उदाहरण हैं. देश काल के हिसाब से ऐसे लाखों-करोड़ों हो सकते हैं.
अर्थ साफ है – कुछ का आदर्शवाद बाकी दूसरों के लिए थोथा है. मेरा अपना आदर्शवाद और संस्कार दूसरों को निहायत बेवकूफ़ाना लग सकता है और वहीं दूसरों का आदर्शवादी संस्कार मुझे घटिया प्रतीत हो सकता है, मेरे लिए वर्जित, निषिद्ध हो सकता है.
आदर्शवाद एक भ्रान्ति है. (अति) आदर्शवाद (अति) भ्रान्ति है. और, हमें पता है, भ्रान्तियाँ सही भी हो सकती हैं, गलत भी और नहीं भी.
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इंडिया शाइनिंग विद एजुकेटेड पॉलिटीशियन्स...
शिक्षित राष्ट्र प्रमुख
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यह सुखद संयोग ही है कि वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही उच्चशिक्षित हैं, और अपने-अपने क्षेत्र के कर्मठ, ईमानदार और ख्यातिप्राप्त व्यक्तित्व रहे हैं. इधर राज्यों में भी ऐसा ही कुछ कम संयोग नहीं बन रहा है. अल्प शिक्षित उमा से मध्यप्रदेश को छुटकारा मिला और अभी शिवराज सिंह चौहान मुख्य मंत्री बने हैं, वे स्वर्णपदक प्राप्त स्नातकोत्तर डिग्री धारी हैं. छत्तीसगढ़ में रमण सिंह चिकित्सा विज्ञान में डिग्रीधारी हैं. उधर बिहार भी अंततः चरवाहों से मुक्त हो गया लगता है – चूँकि वहाँ इंजीनियरिंग डिग्रीधारी नितीश कुमार मुख्य मंत्री बन चुके हैं.
इंडिया शाइनिंग ? फ़ीलिंग गुड ?
नहीं. नीचे देखिए, आज ही के अख़बार की कतरन क्या कहती है:
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एक रेल यात्रा
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कल्पना कीजिए कि आप किसी कॉन्फ़्रेंस में भाग लेने ट्रेन से दूसरे शहर जा रहे हों, साथ के आपके बैग में आपका क़ीमती सूट हो जिसे आप पहन कर अपना भाषण देने वाले हों, और रात भर की यात्रा के बाद, अपने पड़ाव पर सुबह जब सूट पहनने के लिए निकालते हों तो पता चलता है कि ट्रेन के डिब्बे में पल रहे चूहों ने आपके कीमती सूट को कुतर खाया है, भला तब आपकी क्या स्थिति होगी?
यह कल्पना नहीं हक़ीक़त है. आइए, उस बंधु ने जिन्होंने इस हादसे को भुगता है, उसके दुःख में हम भी शामिल हों और थोड़ी देर के लिए शोक मनाएँ.
रेल यात्राओं में तो और भी विचित्र बातें होती ही रहती हैं. मुम्बई से दिल्ली की ओर उत्तर भारत में जाने वाली ट्रेनों में अकसर सामान्य डिब्बे में जहरखुरानी की वारदातें होती हैं. बहुत से कामगार मुम्बई में काम-धाम कर कमाई का पैसा जमा करते हैं और तीज त्यौहार में अपने अपने गांव शहरों को जाते हैं. इन मासूमों को कुछ गिरोह के लोग फांसते हैं. उन्हें सामान्य डिब्बों में जहाँ आरक्षण नहीं होता है, भीड़ में बैठने सोने की जगह परोसते हैं, और दोस्ती गांठ लेते हैं. फिर बातों में उलझा कर चाय-नाश्ते में जहरीला पदार्थ खिलाकर बेहोश कर देते हैं और बीच रास्ते में अपने शिकार का माल असबाब उड़ाकर उतर जाते हैं. रतलाम में ये ट्रेनें प्रायः सुबह पहुँचती हैं – और ये लुटे हुए कभी बेहोश और कभी मौत की, सदा की नींद सो चुके यात्री रेल्वे पुलिस को अकसर, दूसरे चौथे दिन मिलते हैं.
और, ये जहरखुरानी करने वाले भी, उन चूहों की तरह ट्रेन के डब्बों में ही पल रहे होते हैं...
अब अपनी अगली ट्रेन यात्रा में चोर उचक्कों के अतिरिक्त चूहों से भी बचने के तमाम उपाय कर रखने होंगे. कोई आश्चर्य नहीं जब यात्रियों के हाथों में एक अदद सूटकेस के अतिरिक्त एक अदद चूहेदानी भी साथ हो!
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व्यंज़ल
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व्यंग्य : आइए, अपन भी कोई अभियान चलाएँ
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किसी कार्य की सफलता के लिए उसे अभियानों के रूप में बदल दिया जाए तो उसके सफल होने की संभावनाएँ बढ़े या न बढ़े, वे अभियान जरूर सफल हो जाते हैं. बात बिलकुल साफ है कार्य हो या न हो - अभियान के रूप में होने वाली गतिविधियाँ ज्यादा, पूरी तरह सफल होती हैं. क्या आपको नहीं लगता कि सफाई अभियान से लेकर सत्ता प्राप्ति के अभियान तक में इस ‘अभियान’ शब्द के महत्व को अब किसी सूरत नकारा नहीं जा सकता.
वैसे भी अभियानों के अभाव में भारत में कहीं कुछ भी नहीं होता. यदि होता भी है तो लोगों को पता ही नहीं चलता कि कुछ हो भी रहा है. उदाहरण के लिए बैंक, विद्युत मण्डल, दूरभाष जैसे विभागों में साल में एक बार ग्राहक सेवा सप्ताह का अभियान चलता है. यानी साल में सिर्फ एक बार, सप्ताह भर अभियान के तहत वे ग्राहकों की सेवा करते हैं. बाकी समय कौन ग्राहक और कैसी सेवा? सरकारी उपक्रम है, काम करो न करो अपनी नौकरी पक्की, महीने के आखीर में अपना वेतन पक्का. उसी तरह रेल, नगर निगम इत्यादि में साल में एक बार, एक सप्ताह के लिए स्वच्छता अभियान चलाया जाता है. बाकी समय सड़ते रहो गंदगी-बदबू में.
देश में सालभर लोग सड़क दुर्घटनाओं में घायल होते – मरते रहते हैं. इसके लिए परिवहन विभाग और पुलिस विभाग भी साल में एक बार राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा सप्ताह का अभियान चलाया जाता है. सप्ताह भर, पोस्टरों एवं बैनरों के द्वारा बताया जाता है कि सड़क पर सुरक्षित चलना चाहिए, नियमों का पालन करना चाहिए. केवल सप्ताह भर यह अभियान चलता है. फिर बात वहीं की वहीं. सड़कों में गड्ढों की तरह. अभियान खत्म तो बात खत्म. – गोया साल में बस एक सप्ताह ही सुरक्षा से, नियमों का पालन करते चलो, बाकी साल भर आँय-बाँय, असुरक्षित चलने की छूट सबको है.
शहरों में जब तब अतिक्रमण विरोधी अभियान भी चलते हैं. जोर-शोर से अतिक्रमण हटाने का अभियान अन्य अभियानों की तरह ही कुछ ही दिन चलता है. कुछ समय बाद हटाए गए अतिक्रमण पुनः अपने नए, विकराल स्वरूप में तो आ ही जाते हैं, नए अतिक्रमण भी रूप ले लेते हैं. इससे लोगों को अतिक्रमण के बारे में अधिक जानकारी तो हो ही जाती है, अगले अतिक्रमण विरोधी अभियान की पुख्ता नींव पड़ जाती है.
यूँ देखा जाए तो मेरे जैसे आम आदमी को ऐसे अभियानों की आवश्यकता कभी नहीं होती. वह गंदी रेलों में, खड़े-खड़े या कभी रेलों की छतों पर घनघोर असुरक्षित होते हुए भी अपनी जरूरी यात्रा पूरी कर लेता है. क्योंकि भीतर जगह नहीं और दूसरा कोई विकल्प भी नहीं. वह बैंक, विद्युत विभाग में अपने काम के खातिर घंटों लाइन में लगकर इस आशा में प्रसन्न होता है कि अब उसका काम हो जाएगा. फिर अभियान की जरूरत ही क्या?
अभियानों की जरूरत दरअसल, इस देश के नेताओं-अफ़सरों को है. इन अभियानों के बगैर उनकी प्रसिद्धि का ग्राफ जो ऊपर नहीं चढ़ता. ये लोग अभियान चलाने की नई नई योजनाएँ बनाने में लगे रहते हैं. कहीं ऋण बांटने का तो कहीं ऋण मुक्ति का. कहीं पहले से ही कंगाल हो चुकी सरकारी विद्युत कंपनी के उपभोक्ताओं के बिलों की माफ़ी का अभियान. जिस देश के बहुसंख्य आदमी की पहचान लंगोट है, उसे कम्प्यूटर जनित पहचान पत्र प्रदान करने का अभियान चलाया जाता है. वह उस परिचय पत्र को अपनी लंगोट में बाँध कर रखेगा, और कोई सरकारी अफसर पूछेगा – अबे अपनी पहचान बता – तो वह झट अपनी लंगोट में से पहचान पत्र निकाल कर बता देगा, नहीं तो उसे भी जेल की हवा खानी पड़ेगी.
एक तरफ़ अंग्रेज़ी उच्च शिक्षा, उच्च पदों के लिए अपरिहार्य और अनिवार्य होती जा रही है, दूसरी तरफ हिन्दी बचाओ – तमिल बचाओ का अभियान बदस्तूर जारी है. जहाँ देश के होनहार, भविष्य निर्माता बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा का ढांचागत् अकाल है, वहीं बड़ों-बूढ़ों के लिए साक्षरता और उत्तर साक्षरता अभियान चलाया जा रहा है. उदाहरण कम नहीं हैं. जहाँ देखो, वहाँ अभियान और अभियान – अभियान ही अभियान.
अब इन अभियानों को ख़त्म करने के लिए भी अभियान चलाया जाना चाहिए ताकि अभियानों की जरूरतों को नकारा जा सके. या फिर, दूसरे, भले विचार में, इन अभियानों में गति लाने के लिए भी कोई अभियान चलाया जाना चाहिए. क्या खयाल है आपका. अपन भी शुरू करें कोई अभियान ?
(दैनिक भास्कर 9 मई 1996 में पूर्व-प्रकाशित)
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सम्मानजनक विदाई
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सम्मान के लिए, नाक बचाने के लिए दुनिया में लोग महायुद्ध से लेकर भयंकर अपराध तक कर लेते हैं. फिर यह जो जरा सा हो-हल्ला मच रहा है तो इसमें खास क्या है.
वैसे भी, जीने के लिए आदमी को क्या चाहिए? सम्मान की एक रोटी. अब अगर आप रोटी में से सम्मान को ही छीन लेंगे, सम्मान का हिस्सा निकाल लेंगे तो, आदमी के लिए रोटी में रह क्या जाएगा? रोटी तो, गली के कुत्तों के भाग्य में भी होता है, जो लोग उन्हें डाल देते हैं.
आपका कोई मेहमान जब जाता है तो आप उसे सम्मानजनक विदाई देते हैं. उसे घर के बाहर दरवाजे तक या अगर वे शहर से बाहर जा रहे हों, तो बस अड्डे, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट तक, सम्मानजनक तरीके से छोड़कर आते हैं. उसे यह अहसास दिलाते हैं कि भाई, आप आए, आपका-हमारा साथ बड़ा अच्छा, शुभ और फलदायक गुजरा. आप ऐसे ही आते रहें- इत्यादि..इत्यादि. आपका मेहमान गदगद होकर, सम्मानपूर्वक जाता है.
तो अब अगर सौरव गांगुली को भारतीय क्रिकेट टीम से बेहद असम्मानजनक तरीके से निकाल बाहर किया गया है और इसलिए लोग बाग़ हल्ला मचा रहे हैं तो क्या बुरा है? कोलकाता में प्रदर्शन हो रहे हैं तो इसमें बुराई क्या है? प्रणव मुख़र्जी से लेकर प्रकाश और वृंदा कारत तथा सीताराम येचुरी तक कह रहे हैं कि यह तो टीम सलेक्टर्स का बेहद असम्मानजनक कार्य है, तो इसमें गलत क्या है? और इस प्रकरण में संसद में भी सवाल उठाए जा रहे हैं तो भाई, बुराई क्या है?
संसद में तो क़ानून पास हो जाना चाहिए कि क्रिकेट में ही क्या, भारत के हर खेल में खिलाड़ियों को, खिलाड़ियों की उनकी अपनी अनुमति लेकर, उनकी इच्छा से, सम्मानजनक तरीके से ही बाहर किया जाना चाहिए. हर खिलाड़ी को ग्रेसफुली बाहर किया जाना चाहिए. बल्कि बाहर क्यों, भारतीय वंश परंपरा को कायम रखते हुए खिलाड़ियों के परिवारों के सदस्यों को प्राथमिकता में स्थान देना चाहिए – कुछ प्रतिशत कोटा तो रखा ही जा सकता है. मानव संसाधन मंत्रालय के लिए तो यह एक और नया, नायाब विचार होगा. अर्जुन सिंह जी, सुन रहे हैं?
आपके हिसाब से सौरव की सम्मानजनक विदाई कैसी होनी चाहिए थी? शायद होना यह चाहिए था कि सौरव को दस बीस मैच की और कप्तानी देनी चाहिए थी. उसे बीस पच्चीस मैच पहले बताना चाहिए था कि भाई, महामहिम सौरव जी, टीम सलेक्टरों को अब आपकी जरूरत भारतीय टीम में कुछ ख़ास महसूस नहीं हो रही है, लिहाजा आपको टीम से बाहर किए जाने का महान् कार्य करना है. परंतु आपको सम्मानजनक तरीके से ही निकाल बाहर किया जा सकता है, नहीं तो कोलकाता में प्रदर्शन, तोड़ फोड़ होंगे, आपको फटाक् से निकाल बाहर करना कुछ खास राजनीतिज्ञों को नागवार गुजरेगा, अतः अब आप ही बता दें कि आप किस तरीके से, कितने मैच खेलकर, किस ग्रेसफुली तरीके से, किस सम्मानजनक तरीके से बाहर होना पसंद करेंगे. आपके टीम से बाहर होने पर कोई आयोजन-सत्कार-सम्मान समारोह इत्यादि करना हो तो वह भी बतावें..
वैसे भी, जब से क्रिकेट में सट्टा चला है, लोगों को क्रिकेट मैच के बजाए उसकी राजनीति में, सट्टे में ज्यादा मज़ा आने लगा है. जेंटलमेन का खेल अब पॉलिटिकल पर्सन्स, बुकीज़ का खेल हो गया है. जो लोग मैदान में कभी उतरे नहीं और क्रिकेट को टीवी पर देख बुढ़ा गए वे क्रिकेट संघों के प्रमुख बन रहे हैं. राजनीतिज्ञ क्रिकेट संघों पर कब्जा जमा रहे हैं. ये सब बातें क्रिकेट के लिए बहुत सम्मान की बात है. और शायद यही वजह है कि क्रिकेट का बुखार लोगों में दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है.
पहले मैं क्रिकेट से बहुत चिढ़ता था- कि यह भी कोई खेल है – कभी दिन भर, कभी तीन और कभी पाँच दिन तक ठुक-ठुक करते रहो और नतीज़ा सिफर (ड्रॉ)! पर इधर इस खेल में इतनी राजनीति देख मेरे मन में इस खेल के प्रति अचानक ही सम्मान का भाव पैदा हो गया है. मैं सोच रहा हूँ कि मुहल्ले के ही क्रिकेट क्लब में खेलना शुरू कर दूँ. इससे, जब टीम से मेरी बिदाई होगी तो सम्मानजनक बिदाई के नाम पर थोड़ा सा सम्मान मुझे भी मिल जाएगा. या फिर दूसरे विचार में सोचता हूँ कि क्रिकेट क्लब का कोई मेम्बरान ही बन जाऊँ. फिर देखूंगा कि लोग-बाग़ कैसे अपनी टीम के खिलाड़ियों को असम्मानजनक तरीके से बाहर करते हैं.
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बहुत किए हो सम्मान की बातें
कभी अपनाए सम्मान की बातें
द्वार के नवीन परदे को देखकर
सब सोचते हैं सम्मान की बातें
जाने क्यों हो जाते हो ज़लील
दूसरों के ये हैं सम्मान की बातें
वो तो है कि वक्त-वक्त में यारों
बदल जाती हैं सम्मान की बातें
रिक्त उदर में किसी को भी रवि
लुभाती नहीं हैं सम्मान की बातें
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कोई रचना कालजयी क्यों होती है?
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एक दिन यूँ ही खाली समय में मैं अपनी बिटिया की किताब – चिकन सूप फ़ॉर द किड्स सॉल के पन्ने पलट रहा था. अचानक एक विकलांग बच्ची की सच्ची कहानी पर मेरी नजर पड़ी और जब मैंने उसे पढ़ा तो मन द्रवित हो गया और मेरी आँखें भर आईं. वह कहानी मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसका अनुवाद कर रचनाकार में प्रकाशित किया था.
आज अख़बार आया तो बिटिया ने चिल्लाते हुए कहा – पापा आपने आज का अख़बार देखा? मैंने पूछा – क्यों क्या बात है? उसने अख़बार का विशेष परिशिष्ट मेरे सामने लहराते हुए कहा – जरा इसे देखो.
अख़बार में सांताक्लॉज़ के चित्र के साथ एक नन्ही बच्ची का बड़ा सा चित्र छपा था और नीचे कहानी दी गई थी – नन्ही चाहत. कहानी वही थी – चिकन सूप फ़ॉर द किड्स सॉल की वही कहानी जिसे रचनाकार पर मैं पहले ही प्रकाशित कर चुका था. अख़बार में छपी उस कहानी के अंत में संदर्भ चिकन सूप फॉर अनसिंकेबल सॉल का दिया गया था. यानी कि उस कहानी में चिकन सूप के संपादकों को भी कुछ विशेष नजर आया था और उसे उन्होंने अपने दूसरे प्रकाशनों में भी स्थान दिया था.
दरअसल, कोई कहानी अपने कथ्य, कथा विन्यास और, खासकर कहने के अंदाज यानी भाषा शैली के अनूठे प्रयोग के आधार पर कालजयी बन जाती है. यही वजह है कि सिर्फ तीन कहानी लिखकर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कालजयी कहानी के प्रसिद्ध कथाकार बन जाते हैं, वहीं साल में सौ की संख्या में रचनाएँ पैदा करने वाले रचनाकार प्रसिद्धि के लिए तरसते रहते हैं. प्रेमचंद की भी सैकड़ों कहानियाँ हैं, मगर बड़े घर की बेटी और बड़े भाई साहब जैसी कहानी एक बार पढ़ने के बाद तो वे पाठकों को ताउम्र याद रहती हैं. रोमियो और जूलियट जैसी कहानियाँ तो सैकड़ों लेखकों ने अपने अपने अंदाज में कहीं, मगर शेख्सपीयर का लिखा ही कालजयी बन पाया – अपने अंदाजे-बयाँ के चलते.
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मुझे इनाम अब तक क्यों नहीं मिला?
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चिट्ठाकार समूह पर कुछ मित्र मंडली ने मुझ समेत कुछ चिट्ठाकारों को इनाम-इकराम देने की पहल की है. दूसरों का तो पता नहीं, परंतु मुझे तो इनाम बहुत पहले मिल जाना था. लोगों ने दिए नहीं तो इसमें मेरा क्या कसूर. वैसे इनाम झटकने के लिए मैंने भी, बकौल आलोक पुराणिक, बहुत हाथ पाँव मारे. परंतु इनाम के अर्थशास्त्र में, इनाम के बही-खाते में, हानिलाभ का प्रतिशत कुछ जमा नहीं. लिहाजा हम इनाम से वंचित हैं अब तक. उम्मीद है किसी दिन बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा और एक अदद (या शायद दर्जनों, क्योंकि जब किसी को इनाम मिलने लगता है तो फिर हर दूसरा व्यक्ति या संगठन उसे इनाम देने लग जाता है.) इनाम मुझे भी मिलेगा.
अब आप पूछेंगे कि इनाम में अर्थशास्त्र कहाँ से आ गया? आलोक पुराणिक का लिखा (आपके करारे व्यंग्य भारत के हर दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में आजकल खूब प्रकाशित हो रहे हैं) इनाम का अर्थशास्त्र इस माह के कादम्बिनी में छपा है. कुछ अंश आप भी पढ़ें और इस अर्थशास्त्र को जानें-
प्रश्न: (आलोक पुराणिक से) आपको अभी तक पुरस्कार क्यों नहीं मिला?
उत्तर: देखिए, मैं पुरस्कारों का कास्ट-बेनिफिट एनॉलिसिस करता हूँ. एक विद्वान ने मुझे बताया था कि अगर तुम दो निर्णायकों को सेट कर लो तो एक अकादमी का ग्यारह हजार रुपए का पुरस्कार तुम्हें मिल सकता है. मैंने पता लगाया कि दो निर्णायकों को सेट करने में करीब पंद्रह हजार रुपए और साठ घंटे खर्च होंगे. मसला यों कि दोनों निर्णायकगण महंगी अंग्रेज़ी शराब के शौकीन थे. एक महीने तक रोज उन्हें महंगी शराब पिलाने में बहुत नोट और बहुत घंटे खर्च होते यानी पुरस्कार का कास्ट यानी लागत पुरस्कार यानी फायदे से बहुत ज्यादा था. सो, ऐसे मौक़ों पर मैं एक झटके-से सिद्धांतवादी बन जाता हूँ और बयान जारी कर देता हूँ कि मैं सिद्धांतों से संचालित होने वाला प्रतिबद्ध लेखक हूँ. मुझे कोई पुरस्कार नहीं चाहिए. हाँ, अगर किसी पुरस्कार की रकम उसकी लागत से ज्यादा हो तो मैं निश्चय ही यह बयान जारी करूंगा आखिर पुरस्कार ही तो किसी लेखक की रचनात्मक प्रतिभा का मूल्यांकन करते हैं. वैसे, यह बयान भविष्य का है.
तो, आलोक पुराणिक की तरह, मैं भी, भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ... और, मेरी सलाह है – आशान्वित आप भी रहें...
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अरे ! यहां तो सूरज पश्चिम से निकल रहा है !
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भागलपुर केंद्रीय जेल में बंद एक क़ैदी जेल की सुरक्षा के लिए ही ख़तरा बना हुआ है ! यहाँ तो हद की भी अति हो गई ! सूरज पश्चिम से निकल रहा है और चन्द्रमा आग फेंक रहा है !
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व्यंज़ल
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अपने सूरज को पश्चिम से उगाया है
कितना दम है ये सबको बताया है
जीवन में अब ईमान जरूरी नहीं
ये बात साबित कर के दिखाया है
इस दौर में तो अपराधियों ने यारों
क़ानून के रखवालों को डराया है
इस हुलिए को भले ही कबूलो नहीं
क्यों कहें कि समाज ने सताया है
दूसरों की खोट निकाल रहा है रवि
खुद झूठ में गीता कुरान उठाया है
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द ट्रू इंडियन मेन ऑफ़ द इयर 2005
2005 का भारतीय व्यक्तित्व
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वर्ष 2005 का इंडियन पर्सन कौन है?
लक्ष्मी मित्तल? जी नहीं. ये तो पूरे के पूरे अमरीकन एन्टरप्रेन्योर जैसे हैं.
अजीम प्रेम जी? क्या आप पागल हैं जो ऐसे व्यापारिक-इमानदार व्यक्तित्व को यह अवार्ड देने जा रहे हैं – कहीं से भी भारतीयता नहीं झलकती इनमें.
सौरव गांगुली?
ठीक कहा आपने. वर्ष 2005 का सही भारतीय व्यक्तित्व है सौरव गांगुली.
कोच चैपल के अनुसार, गांगुली, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान होते हुए भी जिम्मेदारी से नहीं खेले. तेज गेंदबाजों से भिड़ने में, नई गेंदों का सामना करने में अपनी चोटों का बहाना बनाते रहे. खिलाड़ियों में फूट डालते रहे और अपने को प्रिंस जैसा मानते रहे. पूरे भारतीय गुण. 100 प्रतिशत.
गांगुली को जब टीम से निकाला गया तो अखंड-भारतीय-क्षेत्रवाद के अनुसार न सिर्फ बंगाल में आंदोलन हुए, तोड़फोड़ हुए, बल्कि कई पक्ष-विपक्ष के बंगाली राजनेता अपने स्वयं के विरोधों को भुलाकर उनके पक्ष में खुलकर बोले. गुरदास दास गुप्ता जैसे लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि गांगुली बंगाली है, मैं भी बंगाली. मैं उसका पूरा समर्थन करूंगा. भारतीय क्षेत्रवाद की सही मिसाल रहे गांगुली.
अंततः राजनेता सह भारतीय क्रिकेट संघ के अध्यक्ष से गांगुली की मुलाकात ने गांगुली की टीम में स्वाभिमान पूर्ण वापसी कर दी. कोच, कप्तान और टीम चयनकर्ताओं के निर्णय को धता बता कर राजनीतिक निर्णय के जरिए गांगुली को टीम में नहीं रखने के निर्णय को बदल दिया गया. यहाँ एक सच्चे भारतीय मेनिपुलेटर रहे गांगुली.
वैसे, 2005 के भारतीय व्यक्तित्व के कुछ दावेदार ये भी हो सकते हैं-
- शहाबुद्दीन
- पप्पूयादव
वैसे, हो सकता है, आपकी सूची इस सूची से भिन्न हो. हम भी जानना चाहेंगे आपकी सूची मैं कौन-कौन लायक शख्स हैं?
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नव वर्ष की सबसे शानदार बधाई !
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हर नववर्ष के लिए अनेकानेक बधाइयाँ सबको मिलती रहती हैं. पर क्या आपको याद है कि सबसे बढ़िया बधाई कहाँ से, किधर से, किससे, कब मिली?
मुझे पिछले नववर्षों की बधाइयां तो याद नहीं, पर हाँ, इस दफ़ा व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने नववर्ष की जो बधाई मुझ समेत औरों को भी भेजी है, वह इस नववर्ष की सबसे शानदार बधाई है.
इस शानदार बधाई को मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ :-
मिल गई न आपको भी, याद रखने योग्य, नववर्ष की सबसे शानदार बधाई!
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एक लत यह भी !
श्रेणी: समाज पर निगाह — @ 6:11 pm
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संभवतः आपको भी मेरी तरह ब्लॉग यानी चिट्ठों की लत लग गई होगी. मगर यह लत शराब, सिगरेट, तम्बाखू, चरस, गांजा, ड्रग्स की लत सी नहीं है. बल्कि यह लत तो उससे भी बढ़कर, भयंकर है. क्योंकि किसी बेकार सी सुबह जब अपरिहार्य कारणों से आप औरों का चिट्ठा पढ़ नहीं पाते और अपना स्वयं का चिट्ठा पोस्ट नहीं कर पाते तो फिर हालत देखने लायक रहती है – किसी असाध्य, पुराने रोगी से भी ज्यादा बीमार!
जब तक आप अपना आज का चिट्ठा पोस्ट नहीं कर लेते हैं, सोचते रहते हैं क्या लिखें. कभी दर्जनों मसाला हाथ में रहते हुए भी नहीं सूझता कि कैसे लिखें – क्या लिखें. कभी कोई विषय सूझता भी नहीं और कुंजीपट पर हाथ अपने आप दौड़ने लगता है. चिट्ठा पोस्ट करने के बाद भी सोचते रहते हैं कि अरे, इसे तो ऐसा भी लिखा जा सकता था और वैसा भी. इस विषय के बदले वो वाला विषय रहता तो ज्यादा अच्छा रहता, या इसे ऐसे लिखता तो भी ज्यादा बेहतर होता. पोस्ट करने के बाद अकसर कई-कई दफा उसमें बदलाव परिवर्तन करते रहते हैं. कुछ नहीं तो फ़ॉन्ट का आकार, रुप-रंग ही सुधारते रहते हैं. इसी में दिन बीत जाता है तो फिर दूसरे दिन क्या लिखें इसकी चिन्ता खाने लगती है. कोई विषय पर कोई और पहल कर अपना चिट्ठा पहले लिख देता है तो तमाम दिन आपको सालता रहता है कि अरे! इस पर तो मैं भी, बड़े अच्छे से लिख सकता था- अगले ने फोकट में बाजी मार ली.
चिट्ठा पोस्ट करने के बाद आपका बहुत सारा समय बहुत सारी खुशफ़हमी में बीत जाता है कि लोग पढ़ रहे होंगे, पढ़ने वालों को आनन्द आ रहा होगा. समस्यामूलक चिट्ठों से पाठकों में भी जागृति की भावना जागृत होगी और मज़ेदार, जानकारी परक चिट्ठों से पाठकों के ज्ञान में वृद्धि होगी. फिर पाठकों की टिप्पणियों का इंतजार चालू हो जाता है. कभी उम्मीद से ज्यादा और कभी उम्मीद से कम टिप्पणियाँ किसी चिट्ठे की आत्मा को हमेशा उद्वेलित करती रहती हैं, और, उसे पोस्ट करने वाले चिट्ठाकार को तो और भी भयंकर ज्यादा.
ये तो हुई अपने चिट्ठे पोस्ट करने के लत की बात. दूसरों के चिट्ठे पढ़ने की लत तो और भी बुरी है. आप किसी चिट्ठे के बारे में यह अंदाज़ा कतई नहीं लगा सकते कि वह आज क्या लिखने वाला है. और यही तो आकर्षण-लत का कारण होता है. चिट्ठा लत का एक और कारण यह होता है - किसी चिट्ठे को पढ़कर आप हर्षित होते हैं, किसी को पढ़कर तिलमिला जाते हैं, किसी को पढ़कर प्रसन्न हो जाते हैं और किसी-किसी को पढ़कर तो अपने आप पर गुस्सा भी करते हैं कि क्या घटिया चीज़ें पढ़ते रहते हैं – सचमुच के एक्स्टेसी- हीरोईन के नशे के जैसा अनुभव. किसी पोस्ट को पढ़कर कभी लगता है कि दौड़कर उसके चिट्ठाकार को गले लगा लें या उसके चरणरज का स्पर्श कर लें. और कभी इसके विपरीत लगता है कि अच्छा ही हुआ वह चिट्ठाकार अपने आसपास नहीं है, नहीं तो दुनियावालों को एक और महाभारत के किस्से पढ़ने को मजबूर होना पड़ता.
वैसे, चिट्ठों में यह बात तो है कि वे कभी बायस्ड नहीं होते. अगर किसी विचारधारा में वे बायस्ड हैं भी तो आप बायस्ड होकर नहीं पढ़ सकते हैं – और भी तो तमाम दूसरे चिट्ठाकार होते हैं पढ़ने के लिए. ऊपर से चिट्ठों में क्या नहीं होता? कथा-कविता-कहानी-चुटकुले-व्यंग्य-पहेली-तकनीकी-वैज्ञानिक जानकारी से लेकर ताज़ा समाचारों तक! और मनुष्य तो इनका दीवाना प्रारंभ से रहा है- जब लत पड़ने की तमाम सामग्रियाँ एक साथ होंगी – तो आदमी चिट्ठा लती क्यों न हो जाए?
चिट्ठों में भीषण अनाकर्षक विषयों के बारे में भी उतने ही अनाकर्षक विस्तार से और बड़े ही नए-नवेले तरीके से छपता है और प्रायः यह देखा गया है कि मेरी तरह, अन्य पाठकों को इन्हीं तरह के चिट्ठों में ही मज़ा आता है. स्टेट काउंटर की रपटें अक्सर यह बताती हैं कि किसी तकनीकी जानकारी युक्त पोस्ट को तो लोगों ने घास नहीं डाली, परंतु प्रेम प्यार के किस्सों को पढ़ने वालों की लाइन लग गई. चिट्ठों के लत लगाने में चिट्ठे का एक खास गुण बहुत ही खतरनाक है. वह यह है कि किसी का कोई चिट्ठा टाइप्ड हो ही नहीं सकता. उसमें मोनोटोनसता आ ही नहीं सकता. एकरसता का अनुभव आ ही नहीं सकता. चिट्ठाकार एक दिन तो अपने आँगन में बिछे बर्फ की बात करता है तो दूसरे दिन भीषण गर्मी में अपनी नानी के गांव के नीम के पेड़ की छांव तले बिताए लम्हों की बात करता है. इसी तरह विभिन्न चिट्ठाकार जाने कहाँ से खोज-खोज कर विषयों को लाते रहते हैं, उस पर लिखते रहते हैं. अब आप ऐसे नायाब किस्से कहानियों को पढ़-पढ़ कर उसके लती तो हो ही जाएंगे. और अगर कभी अनुगूंज के विषय की तरह तमाम चिट्ठाकार एक ही विषय के बारे में भी लिखते हैं तब भी ऐसे बार-बार दोहराव वाले विषय भी हर बार, हर-एक की नई शैली, नए भाषा विन्यास, वर्णन के नए अंदाज, और कुछ नहीं तो चिट्ठा-स्थल की जमावट के कारण हर बार हर चिट्ठे को बार बार पढ़ने में मजा ही आता है.
चिट्ठों में ढेरों खूबसूरत, नशे जैसी बातें हैं. आपका दिमाग शंट हो रहा है? कोई फुरसतिया टाइप चिट्ठा पढ़ लें. कोई काम करने को मन ही नहीं हो रहा है? कल की चिट्ठा पोस्टिंग के लिए कोई प्लाट सोच लें. मन अलसाया सा हो रहा है? अगले के चिट्ठों पर दो चार टिप्पणियाँ ठोंक मारिए. आज का दिन तो वाह, क्या बात है बढ़िया गुजरा – एक चिट्ठा लिखने का सबसे सटीक अवसर. कोई तूफ़ानी दिन बड़ा नागवार गुज़रा – अपना दर्द बांटने के लिए चिट्ठा लेखन - सबसे सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ साधन.
इसी कारण यह लत लोगों में भीषण, महामारी की तरह फैल रहा है. और, सबसे बुरी बात तो यह है कि इस लत से पीछा छुड़ाने का न तो साधन है, न कोई इलाज है और न ही कोई नुस्खा है!
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आदर्शवादी संस्कार : ये क्या होता है?
आदर्शवाद एक भ्रान्ति है – फ़लॉसी है.
मेरे समाज में शराब पीना बुरा माना जाता है. बहुत समय पहले मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे. उनके समाज में शराब पीना सामाजिकता माना जाता है. कोई भी पाहुना-मेहमान आता था तो चाहे जैसे भी हो, उन्हें उनका स्वागत सत्कार मुर्गा-दारू से ही करना पड़ता था. बाहर आदमी लोग दारू पीने के लिए बैठते तो पहला जाम घर की औरतों के लिए अंदर भेजा जाता. सरगुजा के कोरवा आदिवासियों में हर घर में दारू बनती है. साल भर के बच्चे को भी वे दारु पिलाते हैं और जब वह बच्चा मस्ती में नाचता है तो बड़े-बूढ़े मजे लेते हैं.
यहाँ आदर्श कौन सा समाज है? जो दारू नहीं छूने देता या जहाँ मेहमान नवाज़ी में दारू आवश्यक रुप से परोसना होता है?
मेरे एक अन्य पड़ोसी थे. पक्के निरामिष. वे मेरे सामिष आहार पर टीका करते थे कि मैं कैसे ये सब खा लेता हूँ. पर वे धी-दूध-मक्खन-मलाई से तर माल उड़ाते थे, जिस पर मैं टीका करता था, और बताता था कि मनुष्य जन्म से ही सामिष है. उसका प्रथम आहार – मां का दूध ही सामिष होता है. एक बार मैंने उन्हें मेनका गांधी का लिखा आलेख पढ़वाया – घी-दूध उतना ही सामिष है जितना गो-मांस. उनके आदर्शवाद को एक क्षण के लिए डगमगाता तो देखा, परंतु उनका वह आदर्शवाद बदला नहीं.
सिने तारिका खुशबू के जिस बयान को लेकर आदर्शवादी हल्ला मचा रहे हैं, मजा देखिए कि 21 चुंबनों वाली और विवाह-पूर्व संबंधों को महिमा मंडित करने वाली फ़िल्में नील और निक्की, सलाम नमस्ते सिनेमाघरों में धूम मचा रही हैं. बस्तर में घोटुल में किशोर और नव-वयस्क विवाह-पूर्व सम्बन्धों के जरिए ही जीवन का अनुभव सीखते हैं और यह प्रथा उस समाज में पीढ़ियों से चली आ रही हैं – बिना किसी उलटे प्रभाव के. मालवा के झाबुआ अंचल में जब गेहूँ की फसल तैयार हो जाती है तो गांव गांव में मेला लगता है. विवाह योग्य युवक-युवती सज-धज कर मेले में जाते हैं, अपने मन पसंद युवक-युवती चुनते हैं और जंगल में भाग जाते हैं. बाद में मामला जमता है तो शादी कर लेते हैं. फिर भी, पश्चिमी देशों के लिव-इन रिलेशन शिप को क्या भारतीय परिवेश में कभी आदर्शवादी संस्कार की श्रेणी में माना जाने लगेगा? निकट भविष्य में तो, शायद नहीं. और, आज अगर आप भगवान् श्री कृष्ण की तरह सोलह हजार पटरानियों से रास लीला रचाएँगे तो सीधे जेल में चले जाएँगे.
मालवा-राजस्थान से लगे क्षेत्र में कंजर आदिवासी रहते हैं. उनकी पीढ़ियों में सदियों से प्रथा है कि वे चोरी-चकारी कर अपना भरण-पोषण करते हैं. वहीं कुछ बेड़िया जाति के लोग भी हैं जिनकी महिलाओं का पेशा वेश्यावृत्ति ही होता है. पुरुष अपने परिवार की महिलाओं के लिए दलाली का कार्य करते हैं और इसमें उन्हें कोई झिझक-शर्म नहीं होती.
बहुत पहले मैंने किसी पत्रिका में एक प्रतिष्ठित परिवार की उच्च संस्कारित लड़की का यह अनुभव मैंने पढ़ा था-
उस लड़की की चचेरी बहन, जो यूरोप में रहती थी, भारत आई थी. एक दिन उनका सारा परिवार कहीं पिकनिक पर जा रहा था. लड़कियाँ तैयार हो रही थीं. परिवार के सारे लोग तैयार होकर बाहर पहुँच चुके थे और हॉर्न पे हॉर्न दिए जा रहे थे. किसी ने बाहर से चिल्ला कर पूछा- अरे चलो भी, इतनी देर क्यों लगा रहे हो? उस चचेरी बहन ने अपनी भारतीय बहन का नाम बोलते हुए जोर से चिल्लाकर उत्तर दिया - अरे अभी आते हैं, जरा इसकी ब्रा का हुक टूट गया है नया लगाकर आते हैं.
इस बात पर भारतीय बहन नाराज हो गई कि तूने क्यों चिल्लाकर कहा कि मेरे ब्रा का हुक टूट गया है. यहाँ के संस्कार में तो ब्रा को छिपाकर पहना जाता है, दूसरे कपड़ों के नीचे, अंदर, छिपाकर धोया-सुखाया जाता है ताकि किसी की नजर न पड़े. उसकी यूरोपीय बहन ने सॉरी कहते हुए उसे बताया कि इसमें छिपाने वाली क्या बात है? यह भी दूसरे वस्त्रों की तरह है – जब उसने अपने लिए पहली बार ब्रा खरीदी तो उसे गर्व से अपने डैडी को पहन कर बताया था और पूछा था कि वह कैसी लग रही है.
ये तो मात्र चंद उदाहरण हैं. देश काल के हिसाब से ऐसे लाखों-करोड़ों हो सकते हैं.
अर्थ साफ है – कुछ का आदर्शवाद बाकी दूसरों के लिए थोथा है. मेरा अपना आदर्शवाद और संस्कार दूसरों को निहायत बेवकूफ़ाना लग सकता है और वहीं दूसरों का आदर्शवादी संस्कार मुझे घटिया प्रतीत हो सकता है, मेरे लिए वर्जित, निषिद्ध हो सकता है.
आदर्शवाद एक भ्रान्ति है. (अति) आदर्शवाद (अति) भ्रान्ति है. और, हमें पता है, भ्रान्तियाँ सही भी हो सकती हैं, गलत भी और नहीं भी.
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इंडिया शाइनिंग विद एजुकेटेड पॉलिटीशियन्स...
शिक्षित राष्ट्र प्रमुख
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यह सुखद संयोग ही है कि वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही उच्चशिक्षित हैं, और अपने-अपने क्षेत्र के कर्मठ, ईमानदार और ख्यातिप्राप्त व्यक्तित्व रहे हैं. इधर राज्यों में भी ऐसा ही कुछ कम संयोग नहीं बन रहा है. अल्प शिक्षित उमा से मध्यप्रदेश को छुटकारा मिला और अभी शिवराज सिंह चौहान मुख्य मंत्री बने हैं, वे स्वर्णपदक प्राप्त स्नातकोत्तर डिग्री धारी हैं. छत्तीसगढ़ में रमण सिंह चिकित्सा विज्ञान में डिग्रीधारी हैं. उधर बिहार भी अंततः चरवाहों से मुक्त हो गया लगता है – चूँकि वहाँ इंजीनियरिंग डिग्रीधारी नितीश कुमार मुख्य मंत्री बन चुके हैं.
इंडिया शाइनिंग ? फ़ीलिंग गुड ?
नहीं. नीचे देखिए, आज ही के अख़बार की कतरन क्या कहती है:
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एक रेल यात्रा
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कल्पना कीजिए कि आप किसी कॉन्फ़्रेंस में भाग लेने ट्रेन से दूसरे शहर जा रहे हों, साथ के आपके बैग में आपका क़ीमती सूट हो जिसे आप पहन कर अपना भाषण देने वाले हों, और रात भर की यात्रा के बाद, अपने पड़ाव पर सुबह जब सूट पहनने के लिए निकालते हों तो पता चलता है कि ट्रेन के डिब्बे में पल रहे चूहों ने आपके कीमती सूट को कुतर खाया है, भला तब आपकी क्या स्थिति होगी?
यह कल्पना नहीं हक़ीक़त है. आइए, उस बंधु ने जिन्होंने इस हादसे को भुगता है, उसके दुःख में हम भी शामिल हों और थोड़ी देर के लिए शोक मनाएँ.
रेल यात्राओं में तो और भी विचित्र बातें होती ही रहती हैं. मुम्बई से दिल्ली की ओर उत्तर भारत में जाने वाली ट्रेनों में अकसर सामान्य डिब्बे में जहरखुरानी की वारदातें होती हैं. बहुत से कामगार मुम्बई में काम-धाम कर कमाई का पैसा जमा करते हैं और तीज त्यौहार में अपने अपने गांव शहरों को जाते हैं. इन मासूमों को कुछ गिरोह के लोग फांसते हैं. उन्हें सामान्य डिब्बों में जहाँ आरक्षण नहीं होता है, भीड़ में बैठने सोने की जगह परोसते हैं, और दोस्ती गांठ लेते हैं. फिर बातों में उलझा कर चाय-नाश्ते में जहरीला पदार्थ खिलाकर बेहोश कर देते हैं और बीच रास्ते में अपने शिकार का माल असबाब उड़ाकर उतर जाते हैं. रतलाम में ये ट्रेनें प्रायः सुबह पहुँचती हैं – और ये लुटे हुए कभी बेहोश और कभी मौत की, सदा की नींद सो चुके यात्री रेल्वे पुलिस को अकसर, दूसरे चौथे दिन मिलते हैं.
और, ये जहरखुरानी करने वाले भी, उन चूहों की तरह ट्रेन के डब्बों में ही पल रहे होते हैं...
अब अपनी अगली ट्रेन यात्रा में चोर उचक्कों के अतिरिक्त चूहों से भी बचने के तमाम उपाय कर रखने होंगे. कोई आश्चर्य नहीं जब यात्रियों के हाथों में एक अदद सूटकेस के अतिरिक्त एक अदद चूहेदानी भी साथ हो!
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व्यंज़ल
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अपना सूट तो खुद हमने ही कतरवाया है
पैंट पीस फाड़कर बरमूडा निकलवाया है
इस तरह हँसा न कीजिए हमें देखकर
वो दोस्त थे जिन्होंने कच्छा उतरवाया है
खुद के हालातों की खबर नहीं है लेकिन
दावा ये है कि कइयों को सुधरवाया है
विश्वास न कीजिए मगर हमने भी बहुत
झूठी क़समें खिलाकर सच उगलवाया है
महज़ मजे की खातिर शातिर रवि ने
जाने कितने गड़े मुर्दों को उखड़वाया है
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व्यंग्य : आइए, अपन भी कोई अभियान चलाएँ
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किसी कार्य की सफलता के लिए उसे अभियानों के रूप में बदल दिया जाए तो उसके सफल होने की संभावनाएँ बढ़े या न बढ़े, वे अभियान जरूर सफल हो जाते हैं. बात बिलकुल साफ है कार्य हो या न हो - अभियान के रूप में होने वाली गतिविधियाँ ज्यादा, पूरी तरह सफल होती हैं. क्या आपको नहीं लगता कि सफाई अभियान से लेकर सत्ता प्राप्ति के अभियान तक में इस ‘अभियान’ शब्द के महत्व को अब किसी सूरत नकारा नहीं जा सकता.
वैसे भी अभियानों के अभाव में भारत में कहीं कुछ भी नहीं होता. यदि होता भी है तो लोगों को पता ही नहीं चलता कि कुछ हो भी रहा है. उदाहरण के लिए बैंक, विद्युत मण्डल, दूरभाष जैसे विभागों में साल में एक बार ग्राहक सेवा सप्ताह का अभियान चलता है. यानी साल में सिर्फ एक बार, सप्ताह भर अभियान के तहत वे ग्राहकों की सेवा करते हैं. बाकी समय कौन ग्राहक और कैसी सेवा? सरकारी उपक्रम है, काम करो न करो अपनी नौकरी पक्की, महीने के आखीर में अपना वेतन पक्का. उसी तरह रेल, नगर निगम इत्यादि में साल में एक बार, एक सप्ताह के लिए स्वच्छता अभियान चलाया जाता है. बाकी समय सड़ते रहो गंदगी-बदबू में.
देश में सालभर लोग सड़क दुर्घटनाओं में घायल होते – मरते रहते हैं. इसके लिए परिवहन विभाग और पुलिस विभाग भी साल में एक बार राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा सप्ताह का अभियान चलाया जाता है. सप्ताह भर, पोस्टरों एवं बैनरों के द्वारा बताया जाता है कि सड़क पर सुरक्षित चलना चाहिए, नियमों का पालन करना चाहिए. केवल सप्ताह भर यह अभियान चलता है. फिर बात वहीं की वहीं. सड़कों में गड्ढों की तरह. अभियान खत्म तो बात खत्म. – गोया साल में बस एक सप्ताह ही सुरक्षा से, नियमों का पालन करते चलो, बाकी साल भर आँय-बाँय, असुरक्षित चलने की छूट सबको है.
शहरों में जब तब अतिक्रमण विरोधी अभियान भी चलते हैं. जोर-शोर से अतिक्रमण हटाने का अभियान अन्य अभियानों की तरह ही कुछ ही दिन चलता है. कुछ समय बाद हटाए गए अतिक्रमण पुनः अपने नए, विकराल स्वरूप में तो आ ही जाते हैं, नए अतिक्रमण भी रूप ले लेते हैं. इससे लोगों को अतिक्रमण के बारे में अधिक जानकारी तो हो ही जाती है, अगले अतिक्रमण विरोधी अभियान की पुख्ता नींव पड़ जाती है.
यूँ देखा जाए तो मेरे जैसे आम आदमी को ऐसे अभियानों की आवश्यकता कभी नहीं होती. वह गंदी रेलों में, खड़े-खड़े या कभी रेलों की छतों पर घनघोर असुरक्षित होते हुए भी अपनी जरूरी यात्रा पूरी कर लेता है. क्योंकि भीतर जगह नहीं और दूसरा कोई विकल्प भी नहीं. वह बैंक, विद्युत विभाग में अपने काम के खातिर घंटों लाइन में लगकर इस आशा में प्रसन्न होता है कि अब उसका काम हो जाएगा. फिर अभियान की जरूरत ही क्या?
अभियानों की जरूरत दरअसल, इस देश के नेताओं-अफ़सरों को है. इन अभियानों के बगैर उनकी प्रसिद्धि का ग्राफ जो ऊपर नहीं चढ़ता. ये लोग अभियान चलाने की नई नई योजनाएँ बनाने में लगे रहते हैं. कहीं ऋण बांटने का तो कहीं ऋण मुक्ति का. कहीं पहले से ही कंगाल हो चुकी सरकारी विद्युत कंपनी के उपभोक्ताओं के बिलों की माफ़ी का अभियान. जिस देश के बहुसंख्य आदमी की पहचान लंगोट है, उसे कम्प्यूटर जनित पहचान पत्र प्रदान करने का अभियान चलाया जाता है. वह उस परिचय पत्र को अपनी लंगोट में बाँध कर रखेगा, और कोई सरकारी अफसर पूछेगा – अबे अपनी पहचान बता – तो वह झट अपनी लंगोट में से पहचान पत्र निकाल कर बता देगा, नहीं तो उसे भी जेल की हवा खानी पड़ेगी.
एक तरफ़ अंग्रेज़ी उच्च शिक्षा, उच्च पदों के लिए अपरिहार्य और अनिवार्य होती जा रही है, दूसरी तरफ हिन्दी बचाओ – तमिल बचाओ का अभियान बदस्तूर जारी है. जहाँ देश के होनहार, भविष्य निर्माता बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा का ढांचागत् अकाल है, वहीं बड़ों-बूढ़ों के लिए साक्षरता और उत्तर साक्षरता अभियान चलाया जा रहा है. उदाहरण कम नहीं हैं. जहाँ देखो, वहाँ अभियान और अभियान – अभियान ही अभियान.
अब इन अभियानों को ख़त्म करने के लिए भी अभियान चलाया जाना चाहिए ताकि अभियानों की जरूरतों को नकारा जा सके. या फिर, दूसरे, भले विचार में, इन अभियानों में गति लाने के लिए भी कोई अभियान चलाया जाना चाहिए. क्या खयाल है आपका. अपन भी शुरू करें कोई अभियान ?
(दैनिक भास्कर 9 मई 1996 में पूर्व-प्रकाशित)
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सम्मानजनक विदाई
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सम्मान के लिए, नाक बचाने के लिए दुनिया में लोग महायुद्ध से लेकर भयंकर अपराध तक कर लेते हैं. फिर यह जो जरा सा हो-हल्ला मच रहा है तो इसमें खास क्या है.
वैसे भी, जीने के लिए आदमी को क्या चाहिए? सम्मान की एक रोटी. अब अगर आप रोटी में से सम्मान को ही छीन लेंगे, सम्मान का हिस्सा निकाल लेंगे तो, आदमी के लिए रोटी में रह क्या जाएगा? रोटी तो, गली के कुत्तों के भाग्य में भी होता है, जो लोग उन्हें डाल देते हैं.
आपका कोई मेहमान जब जाता है तो आप उसे सम्मानजनक विदाई देते हैं. उसे घर के बाहर दरवाजे तक या अगर वे शहर से बाहर जा रहे हों, तो बस अड्डे, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट तक, सम्मानजनक तरीके से छोड़कर आते हैं. उसे यह अहसास दिलाते हैं कि भाई, आप आए, आपका-हमारा साथ बड़ा अच्छा, शुभ और फलदायक गुजरा. आप ऐसे ही आते रहें- इत्यादि..इत्यादि. आपका मेहमान गदगद होकर, सम्मानपूर्वक जाता है.
तो अब अगर सौरव गांगुली को भारतीय क्रिकेट टीम से बेहद असम्मानजनक तरीके से निकाल बाहर किया गया है और इसलिए लोग बाग़ हल्ला मचा रहे हैं तो क्या बुरा है? कोलकाता में प्रदर्शन हो रहे हैं तो इसमें बुराई क्या है? प्रणव मुख़र्जी से लेकर प्रकाश और वृंदा कारत तथा सीताराम येचुरी तक कह रहे हैं कि यह तो टीम सलेक्टर्स का बेहद असम्मानजनक कार्य है, तो इसमें गलत क्या है? और इस प्रकरण में संसद में भी सवाल उठाए जा रहे हैं तो भाई, बुराई क्या है?
संसद में तो क़ानून पास हो जाना चाहिए कि क्रिकेट में ही क्या, भारत के हर खेल में खिलाड़ियों को, खिलाड़ियों की उनकी अपनी अनुमति लेकर, उनकी इच्छा से, सम्मानजनक तरीके से ही बाहर किया जाना चाहिए. हर खिलाड़ी को ग्रेसफुली बाहर किया जाना चाहिए. बल्कि बाहर क्यों, भारतीय वंश परंपरा को कायम रखते हुए खिलाड़ियों के परिवारों के सदस्यों को प्राथमिकता में स्थान देना चाहिए – कुछ प्रतिशत कोटा तो रखा ही जा सकता है. मानव संसाधन मंत्रालय के लिए तो यह एक और नया, नायाब विचार होगा. अर्जुन सिंह जी, सुन रहे हैं?
आपके हिसाब से सौरव की सम्मानजनक विदाई कैसी होनी चाहिए थी? शायद होना यह चाहिए था कि सौरव को दस बीस मैच की और कप्तानी देनी चाहिए थी. उसे बीस पच्चीस मैच पहले बताना चाहिए था कि भाई, महामहिम सौरव जी, टीम सलेक्टरों को अब आपकी जरूरत भारतीय टीम में कुछ ख़ास महसूस नहीं हो रही है, लिहाजा आपको टीम से बाहर किए जाने का महान् कार्य करना है. परंतु आपको सम्मानजनक तरीके से ही निकाल बाहर किया जा सकता है, नहीं तो कोलकाता में प्रदर्शन, तोड़ फोड़ होंगे, आपको फटाक् से निकाल बाहर करना कुछ खास राजनीतिज्ञों को नागवार गुजरेगा, अतः अब आप ही बता दें कि आप किस तरीके से, कितने मैच खेलकर, किस ग्रेसफुली तरीके से, किस सम्मानजनक तरीके से बाहर होना पसंद करेंगे. आपके टीम से बाहर होने पर कोई आयोजन-सत्कार-सम्मान समारोह इत्यादि करना हो तो वह भी बतावें..
वैसे भी, जब से क्रिकेट में सट्टा चला है, लोगों को क्रिकेट मैच के बजाए उसकी राजनीति में, सट्टे में ज्यादा मज़ा आने लगा है. जेंटलमेन का खेल अब पॉलिटिकल पर्सन्स, बुकीज़ का खेल हो गया है. जो लोग मैदान में कभी उतरे नहीं और क्रिकेट को टीवी पर देख बुढ़ा गए वे क्रिकेट संघों के प्रमुख बन रहे हैं. राजनीतिज्ञ क्रिकेट संघों पर कब्जा जमा रहे हैं. ये सब बातें क्रिकेट के लिए बहुत सम्मान की बात है. और शायद यही वजह है कि क्रिकेट का बुखार लोगों में दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है.
पहले मैं क्रिकेट से बहुत चिढ़ता था- कि यह भी कोई खेल है – कभी दिन भर, कभी तीन और कभी पाँच दिन तक ठुक-ठुक करते रहो और नतीज़ा सिफर (ड्रॉ)! पर इधर इस खेल में इतनी राजनीति देख मेरे मन में इस खेल के प्रति अचानक ही सम्मान का भाव पैदा हो गया है. मैं सोच रहा हूँ कि मुहल्ले के ही क्रिकेट क्लब में खेलना शुरू कर दूँ. इससे, जब टीम से मेरी बिदाई होगी तो सम्मानजनक बिदाई के नाम पर थोड़ा सा सम्मान मुझे भी मिल जाएगा. या फिर दूसरे विचार में सोचता हूँ कि क्रिकेट क्लब का कोई मेम्बरान ही बन जाऊँ. फिर देखूंगा कि लोग-बाग़ कैसे अपनी टीम के खिलाड़ियों को असम्मानजनक तरीके से बाहर करते हैं.
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व्यंज़ल
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बहुत किए हो सम्मान की बातें
कभी अपनाए सम्मान की बातें
द्वार के नवीन परदे को देखकर
सब सोचते हैं सम्मान की बातें
जाने क्यों हो जाते हो ज़लील
दूसरों के ये हैं सम्मान की बातें
वो तो है कि वक्त-वक्त में यारों
बदल जाती हैं सम्मान की बातें
रिक्त उदर में किसी को भी रवि
लुभाती नहीं हैं सम्मान की बातें
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कोई रचना कालजयी क्यों होती है?
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एक दिन यूँ ही खाली समय में मैं अपनी बिटिया की किताब – चिकन सूप फ़ॉर द किड्स सॉल के पन्ने पलट रहा था. अचानक एक विकलांग बच्ची की सच्ची कहानी पर मेरी नजर पड़ी और जब मैंने उसे पढ़ा तो मन द्रवित हो गया और मेरी आँखें भर आईं. वह कहानी मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसका अनुवाद कर रचनाकार में प्रकाशित किया था.
आज अख़बार आया तो बिटिया ने चिल्लाते हुए कहा – पापा आपने आज का अख़बार देखा? मैंने पूछा – क्यों क्या बात है? उसने अख़बार का विशेष परिशिष्ट मेरे सामने लहराते हुए कहा – जरा इसे देखो.
अख़बार में सांताक्लॉज़ के चित्र के साथ एक नन्ही बच्ची का बड़ा सा चित्र छपा था और नीचे कहानी दी गई थी – नन्ही चाहत. कहानी वही थी – चिकन सूप फ़ॉर द किड्स सॉल की वही कहानी जिसे रचनाकार पर मैं पहले ही प्रकाशित कर चुका था. अख़बार में छपी उस कहानी के अंत में संदर्भ चिकन सूप फॉर अनसिंकेबल सॉल का दिया गया था. यानी कि उस कहानी में चिकन सूप के संपादकों को भी कुछ विशेष नजर आया था और उसे उन्होंने अपने दूसरे प्रकाशनों में भी स्थान दिया था.
दरअसल, कोई कहानी अपने कथ्य, कथा विन्यास और, खासकर कहने के अंदाज यानी भाषा शैली के अनूठे प्रयोग के आधार पर कालजयी बन जाती है. यही वजह है कि सिर्फ तीन कहानी लिखकर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कालजयी कहानी के प्रसिद्ध कथाकार बन जाते हैं, वहीं साल में सौ की संख्या में रचनाएँ पैदा करने वाले रचनाकार प्रसिद्धि के लिए तरसते रहते हैं. प्रेमचंद की भी सैकड़ों कहानियाँ हैं, मगर बड़े घर की बेटी और बड़े भाई साहब जैसी कहानी एक बार पढ़ने के बाद तो वे पाठकों को ताउम्र याद रहती हैं. रोमियो और जूलियट जैसी कहानियाँ तो सैकड़ों लेखकों ने अपने अपने अंदाज में कहीं, मगर शेख्सपीयर का लिखा ही कालजयी बन पाया – अपने अंदाजे-बयाँ के चलते.
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मुझे इनाम अब तक क्यों नहीं मिला?
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चिट्ठाकार समूह पर कुछ मित्र मंडली ने मुझ समेत कुछ चिट्ठाकारों को इनाम-इकराम देने की पहल की है. दूसरों का तो पता नहीं, परंतु मुझे तो इनाम बहुत पहले मिल जाना था. लोगों ने दिए नहीं तो इसमें मेरा क्या कसूर. वैसे इनाम झटकने के लिए मैंने भी, बकौल आलोक पुराणिक, बहुत हाथ पाँव मारे. परंतु इनाम के अर्थशास्त्र में, इनाम के बही-खाते में, हानिलाभ का प्रतिशत कुछ जमा नहीं. लिहाजा हम इनाम से वंचित हैं अब तक. उम्मीद है किसी दिन बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा और एक अदद (या शायद दर्जनों, क्योंकि जब किसी को इनाम मिलने लगता है तो फिर हर दूसरा व्यक्ति या संगठन उसे इनाम देने लग जाता है.) इनाम मुझे भी मिलेगा.
अब आप पूछेंगे कि इनाम में अर्थशास्त्र कहाँ से आ गया? आलोक पुराणिक का लिखा (आपके करारे व्यंग्य भारत के हर दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में आजकल खूब प्रकाशित हो रहे हैं) इनाम का अर्थशास्त्र इस माह के कादम्बिनी में छपा है. कुछ अंश आप भी पढ़ें और इस अर्थशास्त्र को जानें-
प्रश्न: (आलोक पुराणिक से) आपको अभी तक पुरस्कार क्यों नहीं मिला?
उत्तर: देखिए, मैं पुरस्कारों का कास्ट-बेनिफिट एनॉलिसिस करता हूँ. एक विद्वान ने मुझे बताया था कि अगर तुम दो निर्णायकों को सेट कर लो तो एक अकादमी का ग्यारह हजार रुपए का पुरस्कार तुम्हें मिल सकता है. मैंने पता लगाया कि दो निर्णायकों को सेट करने में करीब पंद्रह हजार रुपए और साठ घंटे खर्च होंगे. मसला यों कि दोनों निर्णायकगण महंगी अंग्रेज़ी शराब के शौकीन थे. एक महीने तक रोज उन्हें महंगी शराब पिलाने में बहुत नोट और बहुत घंटे खर्च होते यानी पुरस्कार का कास्ट यानी लागत पुरस्कार यानी फायदे से बहुत ज्यादा था. सो, ऐसे मौक़ों पर मैं एक झटके-से सिद्धांतवादी बन जाता हूँ और बयान जारी कर देता हूँ कि मैं सिद्धांतों से संचालित होने वाला प्रतिबद्ध लेखक हूँ. मुझे कोई पुरस्कार नहीं चाहिए. हाँ, अगर किसी पुरस्कार की रकम उसकी लागत से ज्यादा हो तो मैं निश्चय ही यह बयान जारी करूंगा आखिर पुरस्कार ही तो किसी लेखक की रचनात्मक प्रतिभा का मूल्यांकन करते हैं. वैसे, यह बयान भविष्य का है.
तो, आलोक पुराणिक की तरह, मैं भी, भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ... और, मेरी सलाह है – आशान्वित आप भी रहें...
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अरे ! यहां तो सूरज पश्चिम से निकल रहा है !
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भागलपुर केंद्रीय जेल में बंद एक क़ैदी जेल की सुरक्षा के लिए ही ख़तरा बना हुआ है ! यहाँ तो हद की भी अति हो गई ! सूरज पश्चिम से निकल रहा है और चन्द्रमा आग फेंक रहा है !
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व्यंज़ल
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अपने सूरज को पश्चिम से उगाया है
कितना दम है ये सबको बताया है
जीवन में अब ईमान जरूरी नहीं
ये बात साबित कर के दिखाया है
इस दौर में तो अपराधियों ने यारों
क़ानून के रखवालों को डराया है
इस हुलिए को भले ही कबूलो नहीं
क्यों कहें कि समाज ने सताया है
दूसरों की खोट निकाल रहा है रवि
खुद झूठ में गीता कुरान उठाया है
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द ट्रू इंडियन मेन ऑफ़ द इयर 2005
2005 का भारतीय व्यक्तित्व
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वर्ष 2005 का इंडियन पर्सन कौन है?
लक्ष्मी मित्तल? जी नहीं. ये तो पूरे के पूरे अमरीकन एन्टरप्रेन्योर जैसे हैं.
अजीम प्रेम जी? क्या आप पागल हैं जो ऐसे व्यापारिक-इमानदार व्यक्तित्व को यह अवार्ड देने जा रहे हैं – कहीं से भी भारतीयता नहीं झलकती इनमें.
सौरव गांगुली?
ठीक कहा आपने. वर्ष 2005 का सही भारतीय व्यक्तित्व है सौरव गांगुली.
कोच चैपल के अनुसार, गांगुली, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान होते हुए भी जिम्मेदारी से नहीं खेले. तेज गेंदबाजों से भिड़ने में, नई गेंदों का सामना करने में अपनी चोटों का बहाना बनाते रहे. खिलाड़ियों में फूट डालते रहे और अपने को प्रिंस जैसा मानते रहे. पूरे भारतीय गुण. 100 प्रतिशत.
गांगुली को जब टीम से निकाला गया तो अखंड-भारतीय-क्षेत्रवाद के अनुसार न सिर्फ बंगाल में आंदोलन हुए, तोड़फोड़ हुए, बल्कि कई पक्ष-विपक्ष के बंगाली राजनेता अपने स्वयं के विरोधों को भुलाकर उनके पक्ष में खुलकर बोले. गुरदास दास गुप्ता जैसे लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि गांगुली बंगाली है, मैं भी बंगाली. मैं उसका पूरा समर्थन करूंगा. भारतीय क्षेत्रवाद की सही मिसाल रहे गांगुली.
अंततः राजनेता सह भारतीय क्रिकेट संघ के अध्यक्ष से गांगुली की मुलाकात ने गांगुली की टीम में स्वाभिमान पूर्ण वापसी कर दी. कोच, कप्तान और टीम चयनकर्ताओं के निर्णय को धता बता कर राजनीतिक निर्णय के जरिए गांगुली को टीम में नहीं रखने के निर्णय को बदल दिया गया. यहाँ एक सच्चे भारतीय मेनिपुलेटर रहे गांगुली.
वैसे, 2005 के भारतीय व्यक्तित्व के कुछ दावेदार ये भी हो सकते हैं-
- शहाबुद्दीन
- पप्पूयादव
वैसे, हो सकता है, आपकी सूची इस सूची से भिन्न हो. हम भी जानना चाहेंगे आपकी सूची मैं कौन-कौन लायक शख्स हैं?
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नव वर्ष की सबसे शानदार बधाई !
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हर नववर्ष के लिए अनेकानेक बधाइयाँ सबको मिलती रहती हैं. पर क्या आपको याद है कि सबसे बढ़िया बधाई कहाँ से, किधर से, किससे, कब मिली?
मुझे पिछले नववर्षों की बधाइयां तो याद नहीं, पर हाँ, इस दफ़ा व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने नववर्ष की जो बधाई मुझ समेत औरों को भी भेजी है, वह इस नववर्ष की सबसे शानदार बधाई है.
इस शानदार बधाई को मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ :-
आपकी खुशियों में ग़म कभी ना हो मिक्स, हैप्पी 200सिक्स
कोई कैमरा करे ना आपसे स्टिंग की ट्रिक्स, हैप्पी 200सिक्स
अगर हों क्रिकेटर तो हों चकाचक फ़िक्स, हैप्पी 200सिक्स
स्मगलिंग क्यों करें, जब सेफ है पॉलिटिक्स, हैप्पी 200सिक्स.
मिल गई न आपको भी, याद रखने योग्य, नववर्ष की सबसे शानदार बधाई!
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