आसपास बिखरी हुई शानदार कहानियाँ - Stories from here and there - 95

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  आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 427 बिना डगमगाये हुए दान...

 
sunil handa story book stories from here and there in Hindi

आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीयरवि-रतलामी

427

बिना डगमगाये हुए दान देना - कर्ण और पुजारी

    कर्ण एक उदार चरित्र राजा थे। उन्होंने कभी भी दान मांगने वाले व्यक्ति को अपने द्वार से खाली हाथ नहीं भेजा। अपने इसी गुण के कारण वे दानवीर कर्ण कहलाए।

    एक बार दानवीर कर्ण स्नान की तैयारी कर रहे थे। स्नान के पूर्व की तैयारियाँ की जा रही थीं। विभिन्न धातुओं के कपों में तेल, उबटन, साबुन, हर्बल पाउडर तथा लेप आदि रखे हुये थे। कर्ण एक - एक करके अपने बांये हाथ से कप को उठाकर दाहिने हाथ में सामग्री लेकर उसे शरीर के विभिन्न अंगों में लगा रहे थे। उनके शरीर पर बहुत कम कपड़े थे।

    उसी समय एक तेजस्वी पुजारी उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ और उसने भिक्षा मांगने की मुद्रा में अपनी दाहिनी हथेली कर्ण की ओर बढ़ा दी। मांगने में कुछ गलत नहीं होता। मांगना बच्चों की प्रवृति है। बच्चे मांगते हैं, नौजवान छीनते हैं, वयस्क साझा करते हैं एवं बुजुर्ग देते हैं। मांगने, साझा करने और देने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन छीनने में समस्या है। छीनना युवा उमंग है। छीनना अभिमान है। छीनना अवज्ञा है। मांगो, साझा करो और दो, परंतु छीनो मत।

    इस प्रकार, अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मांगना सदाचार और नैतिक दृष्टि से उचित है। जिस समय पुजारी ने कर्ण की ओर हथेली फैलाकर कुछ मांगा, कर्ण के बायें हाथ में उस समय नारियल के तेल से भरा एक स्वर्ण कप था। कर्ण ने तत्काल वह स्वर्ण कप तेल समेत अपने बांये हाथ से उस पुजारी के दांये हाथ में रख दिया।

    स्वर्ण कप प्राप्त कर वह पुजारी बहुत खुश हुआ। मुस्कराते हुए उसने कर्ण को धन्यवाद दिया। वहाँ से जाने के पूर्व पुजारी ने कर्ण से पूछा - "हे दानवीर! क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूं?" कर्ण ने उत्तर दिया - "जी हां, आप पूछ सकते हैं।"

    पुजारी ने कहा - "जब भी हम किसी को कुछ दान देना चाहते हैं, तो अच्छा यही होता है कि हम दांये हाथ से दान दें और दायें हाथ से ही लें। श्रीमान, मुझे आशा है कि आपको यह बात पता होगी? तब आपने अपने बांये हाथ से यह कप मुझे क्यों दिया?"

    कर्ण ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - "श्रीमान, आप सत्य कह रहे हैं कि हमेशा दांये हाथ से ही दान करना चाहिए। उस समय वह स्वर्ण कप मेरे बांये हाथ में था। बिना एक भी पल गवाए जो कुछ भी मेरे हाथ में था, मैंने आपको दे दिया। यदि मैं इस स्वर्ण कप को बांये हाथ से दांये हाथ में लेता तो उस थोड़े से समय अंतराल में मेरे मन में यह प्रश्न उठ सकता था कि मैं गरीब पुजारी को स्वर्ण कप क्यों दान में दे रहा हूं! मैं क्यों न चांदी का कप दान में दूं! या सिर्फ आटा या अनाज दान देना ही पर्याप्त होगा! मेरे मन में सभी तरह ही डगमगाहट पैदा हो सकती थी। डगमगाना मन की प्रकृति है। डगमगाने वाला मन मनुष्य का शत्रु हो सकता है। स्थिर मन ही मनुष्य का मित्र होता है। हमारा मस्तिष्क कीचड़ भी हो सकता है और शानदार भी हो सकता है। इसलिए, हे बुद्धिमान सज्जन, मैं नहीं चाहता था कि स्वर्ण कप दान देने के पूर्व मेरे मन में जरा सी भी शंका जन्म ले अतः मैंने तत्काल आपको वह कप दान में दे दिया। कृपया मेरा दान स्वीकार करें और अपना आशीर्वाद दें।"

    पुजारी ने कहा - "भगवान आपका भला करे!" और वह पुजारी प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ण कप और स्वर्णिम विचार को लेकर वहां से चला गया।  

    बिना डगमगाये हुए दान दें। सर्वश्रेष्ठ वस्तु दान दें।
निरंतर दान देते रहें। दान देना ही उपासना है। 
   428

लड़ाई - झगड़ा

    मुल्ला नसरुद्दीन और उनकी बेगम के मध्य किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। पूरे मुहल्ले को उनके झगड़े का शोरगुल सुनायी दे रहा था। अंत में बेगम को इतना गुस्सा आया कि वह बोरिया-बिस्तर लेकर अपनी सहेली के पास रहने चली गयीं।

    सहेली उस दिन बहुत व्यस्त थी क्योंकि उसके घर में भोज का आयोजन था। इसलिए मुल्ला नसरुद्दीन के विरोध में बेगम की दास्तान सुनने का उसके पास वक्त नहीं था। इसके बजाए वह उसे नसरुद्दीन के पास वापस जाने के लिए मनाने लग गयी।

     नसरुद्दीन को सहेली के घर पर बुलवाया गया। उन दोनों को सुलह करने के लिए एक कमरे में अकेला छोड़ दिया गया। थोड़ी - थोड़ी देर के बाद एक नौकर आकर उन्हें खाने-पीने की स्वादिष्ट चीजें दे जाता। दोनों मियां-बीवी काफी देर तक खाते-पीते और झगड़ते रहे। उनके पड़ोसी भी वहां आ गए और दोनों को शांत हो जाने के लिए मनाते रहे। अंततः बेगम मुस्करायीं और घर जाने के लिए राजी हो गयीं। सारे गाँव ने राहत की सांस ली। इस दौरान खाना - पीना जारी रहा। नसरुद्दीन और उनकी बेगम ने भरपेट खाना खाया।

    देर रात, भोजन के बाद जब वे दोनों अपने घर की ओर लौट रहे थे, तब नसरुद्दीन बोले - "बेगम! हम लोगों को प्रायः लड़ते रहना चाहिए। क्योंकि यह हमारे पेट के लिए अच्छा है।"

    --------.

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