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मई 2006 में छींटें और बौछारें में प्रकाशित रचनाएँ...

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जनाब बिल गेट्स फ़रमाते हैं कि काश! वो विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्ति नहीं होते. इसी बीच यह भी खबर आई थी कि हॉलीवुड की एक अदाकारा (नाम मैं भूल...

भारतवंशियों स्वदेश लौटो!
मैं गरीब हूँ, बहुत गरीब
आपको अपने आप पर भरोसा है या नहीं?

जनाब बिल गेट्स फ़रमाते हैं कि काश! वो विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्ति नहीं होते. इसी बीच यह भी खबर आई थी कि हॉलीवुड की एक अदाकारा (नाम मैं भूल रहा हूँ) हमेशा यह चाहती थी कि काश! वो थोड़ा सा कम ख़ूबसूरत होती (लोगों की भूखी नज़रों से बचने के लिए).

अब तो हम सभी के लिए यह सीख मिल ही गई है कि भाई, आपके पास जितना है उसी में खुश रहो. जनाब बिल गेट्स के पास तमाम जहान की दौलत है, मगर उन्हें मलाल है कि काश वे कुछ कम धनी होते, जबकि बाकी की सारी दुनिया अधिक-और-अधिक धनवान बनने में लगी हुई है.

विश्व के सबसे धनी होने के क्या फ़ायदे या नुक़सान हैं ये तो बिल गेट्स ही बता सकते हैं, मगर यह तो तय है कि नुक़सान का पलड़ा जरा ज्यादा ही होगा इसीलिए तो वे यह तमन्ना रखते हैं कि काश! वो विश्व के सबसे धनी व्यक्ति नहीं होते.

वैसे, यह अनुभव तो मैं भी लेना चाहूँगा कि विश्व का सबसे धनी व्यक्ति होने का अनुभव कैसा होता है?

पर, अभी तो मैं अपने मुहल्ले की अपनी गली का सबसे धनी व्यक्ति बनने की दौड़ में लगा हुआ हूँ... सोचता हूँ कि बिल गेट्स से कुछ सीख लेकर अब यह दौड़ छोड़ ही दूं. क्या फ़ायदा बाद में पछताता फिरूं कि काश! मैं अपने मुहल्ले की अपनी गली का सबसे धनी व्यक्ति नहीं होता!

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आपका खूसट बॉस आपको नित्य, निहायत ही अ-प्रायोगिक लक्ष्य देता है, जिसे पूरा करने में आपको अपनी नानी याद आ जाती है.

पर, अगर आप भारतीय सरकारी कर्मचारी हैं, तो आपके पास अपने लक्ष्यों को पूरा करने के सैकड़ों रास्ते हैं – वो भी बगैर नानी – दादी को याद किए! ऊपर से, आप सिर्फ अपना पेन काग़ज़ के जरिए बड़े से बड़ा लक्ष्य पूरा कर सकते हैं.

एक उदाहरण सामने है – बीबीसी की खबर के अनुसार, सरकार ने गरीबों की शादी की योजना बनाई और कुछ लक्ष्य निर्धारित किए. बस, सरकारी कर्मचारियों को तो लक्ष्य के आंकड़े जैसे भी हो पूरे करने थे. लिहाजा जिनकी शादियाँ पहले ही हो चुकी थीं, उनकी दोबारा-तिबारा शादियाँ करवा दी गईं और गिनती में ले कर लक्ष्य शानदार तरीके से पूरा कर लिया गया.

इमर्जेंसी के दौरान ऐसे ही, प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को नसबंदी के लक्ष्य पूरा करने होते थे. उस समय निर्वाण को प्राप्त होने जा रहे 80 वर्षीय वृद्ध हो या कुंवारा या निःसंतान दंपत्ति, सभी नसबंदी के लक्ष्य में बाकायदा शामिल किए जाते थे और कभी तो एक ही व्यक्ति के दोबारा-तिबारा नसबंदी भी किए गए. लक्ष्य तो लक्ष्य है वह भी सरकारी – उसे तो हर हाल में पूरा करना होता है. कोई जवाब नहीं सुना जाता कि लक्ष्य पूरा क्यों नहीं हुआ. लक्ष्य में कमी के लिए किसी भी तरह का स्पष्टीकरण आपकी कार्यप्रणाली में लापरवाही और अक्षमता का ही द्योतक होता है.

विद्युत मंडल में कार्य के दौरान गाहे बगाहे ऐसे ही लक्ष्यों से सामना करना होता था. लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कुछ विचारवान और उत्साही, एडवेंचरस किस्म के भाई लोग विद्युतीकरण के एक ही कार्य को दो-तीन दफा दर्ज कर शाबासी तो ले ही लेते थे, एक ही कार्य को कई-कई योजनाओं के अंतर्गत पूरा दिखा कर उसकी प्रगति का लक्ष्य पूरा कर लेते थे. लक्ष्य देने वाले भी खुश, लक्ष्य पूरा करने वाले भी खुश. अफसर भी प्रसन्न, ठेकेदार भी. कभी जाँच होती तो कार्यप्रणाली में अनियमितता मानी जाती, वित्तीय अनियमितता नहीं, और सिवाय कुछ हो हल्ला के प्रायः कहीं कुछ नहीं होता. सरकारी दफ़्तरों में अप्रायोगिक लक्ष्य देना और उस अप्रायोगिक लक्ष्य को अप्रायोगिक तरीके से सफलता पूर्वक पूरा करना तो सामान्य सी बात है.

एक मज़ेदार उदाहरण आपको बताऊँ. एक बड़े अफ़सर थे, जिनका तकनीकी ज्ञान असाधारण रूप से कम था. उनके भी ऊपर के एक अफसर जो बड़े तीक्ष्ण बुद्धि के थे और थोड़े तुनक मिज़ाज थे उनके लिए कहा करते थे कि इनकी इंजीनियरिंग की डिग्री फर्जी है और मैं जांच करवाऊंगा. बहरहाल, जाँच तो कभी नहीं हुई, मगर उनकी कार्यप्रणाली गैर तकनीकी ही हुआ करती थी. परंतु चूंकि सरकारी अमले में कार्य नहीं वरन वरिष्ठता तथा कुछ अन्य (?) ही प्रमुख आधार होता है पदोन्नति का, लिहाजा वे भी तकनीकी ज्ञान कम होने के बावजूद उच्च पद पर पहुँच चुके थे. तो, एक बार विभाग प्रमुख से ऊर्जा-क्षति में कमी के लिए असंभावित सा लक्ष्य हमारे कार्यालय को प्राप्त हुआ. उस समय ऊर्जा-क्षति की गणनाओं का कार्य मेरे ही जिम्मे था. ऊर्जा-क्षति में कमी तो मैदानी कार्य से ही संभव था जिसमें कि बिजली चोरी रोकी जाती, लाइनों-उपकरणों का रखरखाव बराबर रखा जाता तथा खराब, बंद पड़े मीटरों को सही किया जाता और फिर इस तरह ऊर्जा-क्षति में कमी लाई जाती. ऐसे मैदानी कार्य ज्यादा कुछ हुए नहीं और ऊर्जा-क्षति में अपेक्षित कमी आई ही नहीं.

मगर उस अफसर के लिए तो ऊपर से लक्ष्य पूरा करने का आदेश आ ही चुका था. उन्होंने फरमान दिया – चाहे जैसे भी हो यह लक्ष्य पूरा किया जाना है, और जो लक्ष्य है उससे भी ज्यादा लक्ष्य पाना है. उन्हें ऊर्जा-क्षति की गणना के तकनीकी पहलुओं से तो कोई मतलब ही नहीं था. अंततः उनके आदेशों से लक्ष्य पूरा किया ही गया. काग़ज़ों में एसेसमेंट यूनिटों की अच्छी खासी संख्या बढ़ाकर ऊर्जा-क्षति को दिए गए लक्ष्य से भी और कम किया गया.

और, आपको पता है? इस काग़ज़ी लक्ष्य-प्राप्ति का क्या प्रतिफल रहा था? पूरे प्रभाग में लक्ष्य प्राप्ति में प्रथम स्थान पाने पर उस अफसर को प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुआ था!

आज, मैंने भी अपने आपको एक सड़ा सा, बेकार सा व्यंज़ल लिखने का लक्ष्य दिया है.

आप बताएँ कि लक्ष्य पूरा हुआ या नहीं?

मुझे लक्ष्य प्राप्ति हेतु आपका प्रमाणपत्र मिलेगा?

व्यंज़ल -----.

खटता रहा तमाम उम्र लक्ष्य की खातिर वो लक्ष्य पहचाना नहीं लक्ष्य की खातिर

कितने तो घाव दे दिए मैंने अपनों को लोग कहते हैं क्षुद्र से लक्ष्य की खातिर

आग तो लगी हुई है मन में इधर भी क्या करें बुझे बैठे हैं लक्ष्य की खातिर

कैसा मजा होगा परवाने को जलने में जल के देखना होगा लक्ष्य की खातिर

रवि भी कभी दीवाना था आशिक था वो बन गया आदमी लक्ष्य की खातिर

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अंतरजाल पर एक बार फिर से डॉट कॉम बूम छाया हुआ है. और, इस दफ़ा अंतरजाल पर हिन्दी भी इससे अछूता नहीं है. अंतरजाल के तमाम क्षेत्रों में हिन्दी अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज करवाने की ओर अग्रसर है. पिछले चंद महीनों में ही हिन्दी चिट्ठाकारों की संख्या, जो अरसे से महज दो अंकों में सिमटी थी, दो सौ का आंकड़ा पार तो कर ही चुकी है, नित्य नए लोग इसमें जुड़ते जा रहे हैं. माइक्रोसॉफ़्ट भाषाइंडिया ने भारतीय चिट्ठाकारों को मई06 के महीने में चिट्ठाकारी पुरस्कारों की घोषणा भी की है, जिसमें हिन्दी भाषा भी सम्मिलित है. कुछ नई साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाएँ भी अंतरजाल पर हिन्दी में अवतरित हुईं, जिसमें खालिस महिलाओं की पत्रिका तो है ही, एक प्रतिष्ठित खेल पत्रिका भी है,और, ईश्वर आपको शांति प्रदान करें, एक आध्यात्मिक पत्रिका भी है. तमाम तरह के हिन्दी के लिए उपयोगी अंतरजाल के उपकरणों औजारों की तो बात ही क्या! अब हमारे लिए लगभग हर क़िस्म के हिन्दी के औजार अंतरजाल पर उपलब्ध हैं जिनमें ई-मेल से लेकर फ़ोरम तक, सभी कुछ शामिल हैं.

आइए, अंतरजाल पर हिन्दी के ऐसे ही कुछ नए, अच्छे, उपयोगी उपकरणों/औजारों पर एक नज़र डालते हैं-

हिन्दी टाइप करने के कुछ अच्छे ऑनलाइन औजार:

यूनिकोड हिन्दी में टाइप करने के लिए कुछ समय पहले तक सिर्फ इनस्क्रिप्ट कुंजीपट ही मौजूद था, वह भी विंडोज़ एक्सपी या लिनक्स के नए संस्करणों में संस्थापित करने के बाद इस्तेमाल में लिया जा सकता था. इसकी निर्भरता खत्म करने के लिए बहुत से ऑफलाइन तथा ऑनलाइन औजारों की रचना विविध स्तरों पर की गई. आज अंतरजाल पर यूनिकोड हिन्दी में टाइप करने के कई अच्छे ऑनलाइन औजार हैं. तारीफ की बात यह है कि इनमें आपको तमाम तरह के कुंजीपट के विकल्प भी प्राप्त होते हैं. कई औजार तो ऐसे हैं जिनमें न सिर्फ हिन्दी, बल्कि अन्य कई भारतीय भाषाओं मसलन पंजाबी, गुजराती, तमिल, तेलुगू इत्यादि में भी टाइप करने की सुविधाएँ देते हैं. हिंदिनी के नए हग-2 औजार में टाइनी-एमसीई का इम्प्लीमेंटेशन इसके हिन्दी अनुवाद के साथ किया गया है जिससे हिन्दी पाठ को एचटीएमएल में सजाया-संवारा भी जा सकता है. इसमें फ़ोनेटिक हिन्दी कुंजीपट विकल्प है. रमण कौल के जालस्थल पर यूनी नागरी तथा यूनीस्क्रिप्ट हिन्दी में टाइप करने के लिए क्रमशः फ़ोनेटिक तथा इनस्क्रिप्ट कुंजीपट हैं तो साथ ही पंजाबी में टाइप करने के लिए भी एक कुंजीपट है. इस साइट पर शुषा तथा कृतिदेव (रेमिंगटन) फ़ॉन्ट के कुंजीपट शामिल करने हेतु कार्य जारी है.

इसी से मिलते जुलते कुछ अन्य ऑनलाइन कुंजीपट हैं सोर्सफ़ोर्ज पर यह बहुभाषी कुंजीपट आपको विविध भारतीय भाषाओं को कई कुंजीपट में टाइप करने की सुविधा देता है. इसी तरह गेट2होम साइट पर आप हिन्दी समेत विश्व की तमाम लोकप्रिय भाषाओं में ऑनलाइन टाइप कर सकते हैं. ऐसा ही एक अ न्य प्रयास भारतीय भाषाओं में अनुप्रयोगों को अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करने के लिए बनाया गया है, परंतु जिसका इस्तेमाल बख़ूबी भारतीय भाषाओं, जिसमें हिन्दी सम्मिलित है- के टाइप करने में लिया जा सकता है. अब आपको न तो अपने कम्प्यूटर पर हिन्दी कुंजीपट की चिंता और न ऑपरेटिंग सिस्टम की चिंता क्योंकि ऊपर दिए गए लगभग सभी साइटें इंटरनेट एक्सप्लोरर 6 और या फ़ॉयरफ़ॉक्स के नए संस्करण (1.5) में विंडोज 98 में भी बख़ूबी चलते हैं. विंडोज़ एक्सपी तथा लिनक्स के ताजा संस्करणों (यथा फेदोरा कोर 4 या अधिक) में तो खैर यह समर्थन है ही.

िन्दीकेकुछनएऑनलाइनशब्दकोशशब्दसंग्र:

हिन्दी के लिए देखते ही देखते कोई दर्जन भर ऑनलाइन अंग्रेज़ी-शब्दकोश उपलब्ध हो चुके हैं और नए-नए ऑनलाइन शब्दकोश आना जारी है. अब हिन्दी-हिन्दी शब्दकोश व शब्दसंग्रह (थिसॉरस) भी जारी किया जा चुका है जो साहित्यकारों के लिए अत्यंत उपयोगी है. ऑनलाइन अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोशों की सूची में एक और नाम जुड़ा है शब्दनिधि. इसे देबाशीष ने अंतरजाल की नवीनतम तकनॉलाज़ी एजेक्स का इस्तेमाल कर बनाया है और इसमें काफ़ी विस्तार की गुंजाइशें भी हैं. एक अन्य, आइट्रांस आधारित हिन्दी अंग्रेजी हिन्दी ऑनलाइन शब्दकोश भी है हिन्दी या अंग्रेज़ी किसी भी भाषा में शब्दों के अर्थ ढूंढने की सुविधा देता है. हिन्दी में मिलते जुलते शब्दों को ढूंढने का यह बढ़िया स्थल है. आपको अपने रदीफ़-काफ़िये के लिए उचित शब्दों की खोज यहीं करनी चाहिए.

ढेरों मुफ़्त के हिन्दी यूनिकोड फ़ॉन्ट

बहुत सारे व्यक्तिगत तथा संस्थागत प्रयासों से हिन्दी यूनिकोड के लिए ढेर सारे फ़ॉन्ट मुफ़्त सॉफ़्टवेयर लाइसेंस के तहत जारी किए जा चुके हैं जिनका इस्तेमाल आप बख़ूबी अपने दस्तावेज़ों को सजाने संवारने में कर सकते हैं. विविध स्रोतों से डाउनलोड किए जा सकने वाले इन फ़ॉन्ट के बारे में चित्रमय जानकारियों को डाउनलोड कड़ी सहित इस जालस्थल पर खूबसूरती से संग्रह किया गया है.

वर्तनीजाँचकीक्षमतायुक्तमुफ़्तहिन्दीलेखक:

इस हिन्दी लेखक के जरिए आप विंडोज के किसी भी अनुप्रयोग में सीधे ही फ़ॉनेटिक हिन्दी में टाइप कर सकते हैं. हालांकि इस हिन्दी लेखक की वर्तनी जाँच क्षमता थोड़ी सी सीमित ही है (इसके वर्तनी जाँचक डाटाबेस में हिन्दी के 60 हजार शब्दों को शामिल किया गया है), और यह ऑफ़िस एक्सपी के साथ कार्य करता है, परंतु आम जन के मुफ़्त इस्तेमाल के लिए व्यक्तिगत प्रयास से इसे जारी किया गया है जिसकी सराहना की जानी चाहिए. वैसे भी, माइक्रोसॉफ़्ट के भारी भरकम हिन्दी ऑफ़िस में भी जब आप हिन्दी में संयुक्ताक्षरों या बहुवचनों में वर्तनी जाँच करते हैं तो पाते हैं कि सही वर्तनी वाले शब्दों को भी यह गलत बताता है- यानी हिन्दी में वर्तनी जाँच में समस्याएँ तो बनी ही रहनी हैं.

इंटरनेट अब अंततः भारतीय भाषाओं की फ़ॉन्ट की समस्या से मुक्त:

जी हाँ, अब कम से कम अंतरजाल पर भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन हेतु फ़ॉन्ट की समस्या से आप मुक्त हो चुके हैं. अब आपको अपने ब्राउज़र में विविध भारतीय भाषाओं की साइटों पर भ्रमण करने के लिए तमाम तरह के फ़ॉन्ट संस्थापित करने की आवश्यकता नहीं है. बस, संबंधित भाषा का एक यूनिकोड फ़ॉन्ट आपको संस्थापित करना होगा और आपका काम हो जाएगा. यानी कि एक यूनिकोड हिन्दी फ़ॉन्ट मंगल या रघु से आप जागरण, भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, अभिव्यक्ति इत्यादि सभी हिन्दी के जालस्थलों का आनंद ले सकते हैं. मॉज़िला फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र तथा उसके पद्मा एक्सटेंशन को इसके लिए धन्यवाद देना होगा. इस्तेमाल करने के लिए, फ़ॉयरफ़ॉक्स चालू करें, फिर जाल स्थल पर पद्मा एकस्टेंशन के इस स्थल पर जाएँ. यहाँ padma.xpi नाम का फ़ॉयरफ़ॉक्स एक्सटेंशन फ़ाइल मिलेगा. इसे क्लिक कर खोलें. यह आपको इस प्लगइन को संस्थापित करने को पूछेगा. हाँ करें और फ़ॉयरफ़ॉक्स फिर से प्रारंभ करें.

अब फ़ॉयरफ़ॉक्स में टूल्स > एक्सटेंशन पर जाएँ, पद्मा दिखाई देगा. उसे चुनें, ऑप्शन्स में क्लिक करें, पद्मा प्रेफरेंस नाम का चाइल्ड विंडो खुलेगा, उसमें अपडेट बटन पर क्लिक करें, आपको ऑटोट्रांसफ़ॉर्म सूची दिखाई देगी. उसमें अभिव्यक्ति का यूआरएल अगर नहीं दिखाई दे रहा हो तो डालें, बस काम हो गया.

अभिव्यक्ति.ऑर्ग में जाएँ, यूनिकोड में साइट का आनन्द लें.

अभिव्यक्ति यूनिकोड में कुछ यूँ दिखाई देता है:

अभिव्यक्ति   यूनिकोड हिन्दी में पद्मा एक्सटेंशन के जरिए...

हाँ, आप यूनिकोड में काटने-चिपकाने वाला काम भी कर सकते हैं - यानी पृष्ठों को सीधे कॉपी कर अपने पास यूनिकोड हिन्दी में रख सकते हैं - अलग से फ़ॉन्ट परिवर्तक की भी आवश्यकता नहीं! यह सारा कार्य डायनॉमिक रूप से करता है और इसी वजह से हो सकता है कि आपका ब्राउज़र हिन्दी साइटों को दिखाते समय कुछ धीमा हो जाए, मगर यह अत्यंत उपयोगी तो है ही इसमें कोई दो मत नहीं.

औरअबहिन्दीमेंपरिचर्चाभी:

हिन्दी में ऑनलाइन फ़ोरम की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी जहाँ वाद-विवाद, जानकारियों का आदान-प्रदान और यूँ ही मटरगश्ती हिन्दी प्रेमी अपनी भाषा में कर सकें. इस कमी को भी पूरा कर लिया गया है और हिन्दी फ़ोरम परिचर्चा धूम-धड़ाके के साथ प्रारंभ हो गया है. फ़ोरम में आप भी आमंत्रित हैं. चाहे अपनी समस्याएँ लेकर आएँ, विचार प्रदान करने आएँ या फिर दूसरों के विचार जानने आएँ. हर तरह की सामग्रियाँ यहां आपको मिलेंगी. फ़ोरम का जन्म बस अभी ही हुआ है, अतः खूब सारे विषय और ढेरों सामग्री की आशा अभी न करें, परंतु हिन्दी के बढ़ते, ठोस कदमों के चलते इस फ़ोरम को समृद्ध होते देर नहीं लगेगी.

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**-** गुरु

मप्र सरकार ने एक और नया, नायाब आदेश निकाला है. उस आदेश के तहत समस्त शासकीय स्कूलों-महाविद्यालयों के प्राचार्य अब लर्निंग ड्राइविंग लाइसेंस जारी कर सकेंगे.

वैसे भी, सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से उनके मूल कार्य- अध्यापन के अलावा बहुत से कार्य, विविध सरकारी आदेशों के तहत करवाए जाते रहे हैं. मध्याह्न भोजन योजना में शिक्षक, शिक्षक कम कैटरिंग प्रबंधक अधिक हो गए हैं. नियमित शिक्षकों का घोर अकाल है. अधिकतर सरकारी पाठशालाओं की हालत अस्तबलों से भी बुरी है. ढाई-तीन हजार रुपए मासिक पर सरकारें शिक्षक नहीं, शिक्षाकर्मी भर्ती कर रही हैं - जिनका काम छात्रों को पढ़ाना है – वे क्या खाकर पढ़ाते होंगे – इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. अधिकांश स्कूलों में शिक्षकों की पूरी संख्या नहीं है और ऊपर से आधे शिक्षक बाबू का काम करते हैं जो सरकारी स्कूली विभागों की विभिन्न स्तरों की विभिन्न योजनाओं की साप्ताहिक-मासिक-त्रैमासिक-छमाही-वार्षिक प्रगति प्रतिवेदन बनाने-भेजने का ही काम करते रहते हैं. इन सबके बीच लाइसेंस बनाने का एक और कार्य स्कूलों के मत्थे थोप दिया गया है.

जहाँ आपको एक ही देश के दूसरे प्रांत में पढ़ाने के लिए भी अलग-अलग लाइसेंस लेने होते हैं, उसके उलट यहाँ आपको तीन सौ रुपए माहवार से चालू होकर तमाम शिक्षक कहीं पर भी पढ़ाने के लिए मिल जाते हैं. और, क्या कहा? लाइसेंस? पढ़ाने के लिए? नियम तो यहाँ भी हैं कि शिक्षण कार्य के लिए बीएड जैसी डिग्रियाँ अनिवार्य हैं, परंतु अधिकांश स्कूलों में, जिनमें शासकीय स्कूल भी शामिल हैं, इस मूल नियम को ही नहीं माना जाता.

अब तो गुरूजी के बारे में यही कह सकते हैं - जो पहली क्लास में बच्चा सबसे पहले सीखता है - गुरुजी गुरुजी चाम चटिया गुरुजी मर गे उठाव खटिया ।।

*-**-*

व्यंज़ल

गुरु-गोविंद की कथा तो कथा थी गुरु क्या अब कोई मानता है गुरु को गुरु

निश्चित ही वो कोई और दौर रहा होगा गलबहियाँ डाले घूमते हैं अब शिष्य गुरु

माना कि पढ़ना है जरा कठिन काम पढ़ाना अब और ज्यादा कठिन है गुरु

भुखमरी की बातें ही तो वह पढ़ाएगा फटेहालों में भी फटेहाल है आज गुरू

एक कामयाब शिक्षक रहा है रवि भी पढ़ाने के सिवा सब काम करे है गुरु

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यह पोस्ट मैं लिनक्स लाइव सीडी से बूट कर, रमण कौल के यूनिस्क्रिप्ट से टाइप कर धन्यवाद के बतौर लिख रहा था कि मेरी नज़र 'इधर-उधर की' में माइक्रोसॉफ़्ट के भाषा इंडिया के लोगो पर पड़ी.

लिनक्स लाइव सीडी में हिन्दी भाषा का कोई समर्थन नहीं है, परंतु यूनिकोड व यूनिस्क्रिप्ट की महिमा कि सिर्फ एक हिन्दी यूनिकोड फ़ॉन्ट को अपने होम डिरेक्ट्री पर खींच लाने से सब कुछ हिन्दी में देखा पढ़ा व लिखा भी जा सका.

तो, बात माइक्रोसॉफ़्ट भाषा इंडिया के लोगो की हो रही थी. लोगो में बताया जा रहा था कि आप भी इंडिक ब्लॉग अवार्ड में भाग लें.

मैंने उस लोगो को क्लिक किया तो पाया कि नॉमिनेशन का समय ५ मई पहले ही खत्म हो गया है - करीब बीस दिन पहले. और लोगो टिमटिमा रहा है, नॉमिनेशन का फ़ॉर्म जगमगा रहा है.

और तो और, माइक्रोसॉफ़्ट वाले जो इनाम दे रहे हैं उससे तो ज्यादा देबाशीष ने अकेले दम पर बांट दिए थे.

बहरहाल आपने अपना नॉमिनेशन किया या नहीं?

हाँ, असली बात तो रह ही गई.

इसे मॉजिल्ला पर लिखा गया है - थोड़ा सा छरकता है, पर काम तो करता है :)

रमण जी को धन्यवाद

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आरक्षण पर अंतहीन बहस जारी है. मैंने पहले भी दो एक बार लिखा था. मैंने वर्ग संघर्ष की भी भविष्यवाणी की थी जो सच प्रतीत होती दिख रही है.

आरक्षण पर इंडिया टुडे के प्रकाशक-संपादक अरुण पुरी ने सटीक, संक्षिप्त संपादकीय (15 मई अंग्रेज़ी अंक) लिखा है जो हिन्दी में (थोड़ा सा परिवर्तित रूप) प्रभु चावला के हस्ताक्षर सहित 17 मई के हिन्दी इंडिया टुडे में प्रकाशित हुआ है. इसकी स्कैन की गई छवि को आप यहाँ पढ़ सकते हैं (यह दीगर बात है कि भारत की सर्वाधिक बिकने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका इंडिया टुडे भी हिन्दी के लिए डायनॉमिक फ़ॉन्ट का इस्तेमाल करती है – यूनिकोड नहीं जिससे उसकी सामग्री अप्रयोज्य ही रह जाती है):

india-today-arakshan

अपने बीस वर्षीय सरकारी सेवाकाल में मैंने भी आरक्षण और आरक्षितों को बहुत करीब से देखा है. कॉलेज समय से मेरे दो अज़ीज दोस्त हरिजन (शेड्यूल्ड कास्ट) रहे हैं और उनमें से एक तो दिहाड़ी मजदूर का बेटा था और वह झुग्गी-झोंपड़ी में रहता था. आरक्षण के कारण ही वे हमारे साथ पढ़ रहे थे. पढ़ने में उन्हें ज्यादा मेहनत करनी होती थी, और हम सभी उन्हें अपना सारा सहयोग भी प्रदान करते थे. पढ़ाई के दौरान कहीं कोई डिस्क्रिमिनेशन जैसी चीज़ हमारे जेहन में आई ही नहीं – चूंकि एक बार एडमीशन के पश्चात् आपको परीक्षा तो पास करनी ही होती है और उसमें कहीं कोई आरक्षण नहीं है – कम से कम अब तक तो नहीं.

नौकरी पाने की कोई समस्या उस समय थी नहीं. चार-पाँच अच्छी नौकरियों में से अपना मनपसंद फ़ील्ड चुनना होता था. इसलिए आरक्षण का कोई असर हो रहा हो ऐसा भी नहीं था.

बाद में नौकरी के दौरान बीस वर्षों में मुझे ले-देकर एक प्रमोशन मिला वह भी अपने दम पर- अतिरिक्त योग्यता हासिल करने के उपरांत. परंतु इस बीच आरक्षित वर्ग के मेरे से नीचे के पोस्ट के, जूनियरों को दो से तीन प्रमोशन तक मिले. और, आप कोई भगवान नहीं हैं- मनुष्य ही हैं- जब आपका दो स्तर का जूनियर, काबिलीयत के दम पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर आपका बॉस बन जाए तो आपको अच्छा, बढ़िया महसूस हो. आप कल्पना कर सकते हैं कि मुझे भी कैसा महसूस हुआ होगा. मुझे तो लगता है कि यह बात तो भगवान को भी ख़ासा नागवार लगेगा.

परंतु मैंने यह भी देखा है कि आदिवासी, हरिजन और पिछड़ी जातियों में प्रतिभावानों की कतई कोई कमी नहीं है. एक से एक धुरंधर हैं वहाँ भी. मेरे पास अनुसूचित जाति का एक चतुर्थ वर्ग कर्मचारी था (वह अभी भी कार्यरत है). उससे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति आज तक मैंने नहीं देखा. वह कोई पढ़ा लिखा नहीं था. परंतु फ़ाइल के रुप और रंग को देखकर उसका नाम बता देता था. छः महीने पहले फ़ाइल करने के लिए दिए किसी काग़ज़ को मांगने पर वह उस फ़ाइल में से ढूंढ कर सामने कर देता था. तकनीकी क्षेत्र में भी वह मास्टर था. किसी मशीन या किसी वायरिंग को एक बार खोल-खाल कर देख लेने के बाद दुबारा उससे भूल नहीं होती थी. कार्य कुशल तो था ही वह, मेहनती और ईमानदार भी था.

ऐसा बुद्धिमान पुरुष चतुर्थ वर्ग कर्मचारी बन कर रहने को अभिशप्त था. अगर उसे अवसर मिलता तो वह हमारे जैसे कइयों की छुट्टी कर सकता था. उस बेचारे को कोई अवसर ही नहीं मिला. मैं तो खुले आम अपने ऑफ़िस में लोगों से कहा भी करता था कि रामेश्वर (यह उसका असली नाम है) अपने ऑफ़िस का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति है. मैं यह भी कहा करता था कि उसे तो मेरे पद की जगह होना चाहिए था. अगर उस बुद्धिमान को बचपन में शिक्षा मिल जाती, तकनीकी/वैज्ञानिक संस्थान में वह दाखिला ले पाता तो वह निश्चित ही कहाँ से कहाँ पहुँच जाता. वह अगर नहीं पढ़ पाया तो इसमें उसका नुकसान नहीं था, बल्कि यह तो भारत देश का नुकसान था, जिसने इतनी प्रतिभा को उभरने का अवसर ही नहीं दिया. ऐसे ही, सरगुजा में एक अनुसूचित जनजाति का हेल्पर था, जो ऑफ़िस कार्य से लेकर तकनीकी तक सारा कार्य पूरी एफ़ीशिएंसी से करता था. ऑफ़िस की तमाम जानकारियाँ वह मुखाग्र सुना सकता था. कोई भी रपट चाहिए, वह बैठे बैठे ही सही-सटीक रपट बना देता था. वहाँ के इंचार्ज अफ़सर तो बस उसके भरोसे अपना ऑफ़िस छोड़ छुट्टियाँ मनाते रहते थे. और, ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिन्हें मैं नॉन-स्टॉप गिना सकता हूँ.

आरक्षण से उनका क्या भला हुआ? कुछ नहीं. आरक्षण का मतलब उनके लिए सिर्फ यही था कि उन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी मिल गई – या शायद यह भी नहीं – किसी अफ़सर ने उनकी ईमानदारी और बुद्धिमानी देखकर दिहाड़ी पर रख लिया था और बाद में वे नियमित कर्मचारी बन गए.

आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था से क्या हो रहा है? किसी फलदार वृक्ष के जड़ में खाद पानी देने के बजाए उसकी शाखाओं पर खाद पानी बरसाए जा रहे हैं, पत्तों पर रासायनिक टॉनिक का स्प्रे किया जा रहा है और उम्मीद की जा रही है कि फल बढ़िया लगे. थोड़े दिनों में झाड़ को अंततः सूखना ही है.

अगर दलित, पिछड़े समाज का भला करना ही है तो रामेश्वर जैसे होनहारों को बचपन में ढूंढकर उन्हें समाज में कंपीट करने लायक क्यों नहीं बनाया जाता. रामेश्वर जैसे लोगों को तो बस थोड़ी सी सहूलियतों की जरूरत है - उनकी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत, उनके लालन-पालन की जरूरत. बस फिर तो वे अपना रास्ता खुद ही बना लेगें – उन्हें आरक्षण जैसी बैसाखी की जरूरत ही नहीं होगी – बल्कि वे तो सवर्णों का रास्ता कठिन बना देंगे. यही बात नॉलेज कमीशन के लोग कह रहे हैं. परंतु क्षुद्र दृष्टि के नेताओं को इसमें वोट बैंक नज़र नहीं आता. लिहाजा वे नॉलेज कमीशन के विचारों का उपहास कर रहे हैं. वे तो निश्चित ही हर ऐसी बात का उपहास करेंगे जिसमें उन्हें कोई वोट हासिल नहीं होता हो.

दरअसल, भारतीय राजनीति जातिवाद के दलदल में गले तक फंस चुकी है, और वहां से बाहर निकल ही नहीं सकती. वह अपना क्षुद्र, तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ तो देख रही है, परंतु स्वस्थ भारत और स्वस्थ भारतीय समाज को नहीं देख रही. कल के भारत में जातीय वैमनस्य का दंगल तो होना ही है. अब तक हिन्दू मुसलिम का हुआ है- कल अगड़े-पिछड़ों का होगा और, इसकी शुरुआत हो चुकी है.

यह वैसा ही है जैसे बुधिया के पैंसठ किलोमीटर दौड़ने पर मानवाधिकारवादियों ने ग़ज़ब का हो हल्ला मचाया कि उसे उसके पालकों व प्रशिक्षकों ने जबरन उतना लंबा दौड़ाया और उस नन्हे बालक पर अत्याचार किया. परंतु बुधिया जैसे लाखों अन्य बालकों के लिए जो बाल श्रमिक के रूप में तमाम जगह सुबह पाँच बजे से लेकर रात बारह बजे तक काम करते रहते हैं – किसी को कोई चिंता नहीं है.

इतिहास दोहरा रहा है. भारत एक बार और विभाजित हो गया है. और, इसके लिए एक अकेले अर्जुन सिंह जिम्मेदार नहीं हैं – वे तो मात्र एक जरिया भर हैं. वे निमित्त मात्र हैं. अर्जुन नहीं होते तो शरद होते, मुलायम – लालू – मीरा कुमार – पासवान होते. दरअसल, यह विभाजन भारतीय राजनीति के जातिवाद के दलदल में गिरने के कारण हुआ है.

जहाँ आजादी के साठ बरस बाद एक भारतीय को अपनी जाति भूलकर एक भारतीय के रूप में अपनी पहचान बनानी थी, इसके उलट वह खास जाति का ही बना रहने को अभिशप्त हो गया है. और, अब तो उसे अपनी जाति को बनाए रखने में बहुत संभावनाएँ भी नज़र आ रही हैं.

इंडिया टुडे ने सही उद्धरण दिया है- कुत्सित इरादा सिर्फ इसलिए कामयाब होता है क्योंकि भले लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं.

मैं किसी सूरत भला न होऊँ, पर, शुक्र है कि मैं अपने हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहा. मैंने अपना विरोध तो दर्ज कर ही दिया है.

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आजादी के साठ साल बाद भी भारत के पूर्वोत्तर के तीन राज्यों अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं है!

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जबकि सबको पता है कि यहाँ की अधिसंख्य जनता अनुसूचित जनजातियाँ हैं! ओबीसी की तो बात ही छोड़ दें! और, कमाल की बात है कि देश के सारे नेता सुर में सुर मिला कर आरक्षण, और अधिक आरक्षण की बातें करते हैं!

पर, हमारे नेता पूरे सही हैं.

इन राज्यों से कितने सांसद चुने जाते हैं? ले देकर - महज आधा दर्जन. इतने सांसदों से सरकारें बना-बिगड़ा नहीं करतीं.

यहाँ से वोट बैंक का हिसाब पुख्ता नहीं होता.

वोट बैंक के हिसाब तो यूपी – बिहार की जातिवाद पॉलिटिक्स में लगाए जाते हैं जहाँ से 120 से अधिक सांसद चुने जाते हैं!

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व्यंज़ल रखेंगे किसका कितना हिसाब थक जाएंगे देते देते हिसाब वहाँ की चिंता में इतना घुले भूल गए यहां का ही हिसाब देख के बस मुसकराए तो थे क्यूं वो देने लग गए हिसाब मेरे मुल्क पर तो बकाया हैं जाने किसके कितने हिसाब हम कोई दुश्मन हैं क्या रवि मांगते हैं जो हम से हिसाब **-**

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मुझे अपनी पुरानी हो चुकी खटारा गाड़ी से छुटकारा पाना जरूरी हो गया था. दरअसल यह मेरा पहला वाहन था, और इसी वजह से इससे मुझे लगाव सा हो गया था. इसे छोड़ने के खयाल से ही मुझे कतई अच्छा नहीं लगता था इसी कारण मैं इसे सालों-साल चलाता रहा था सुधरवा-सुधरवा कर. एक दिन जब मेकेनिक ने अपने औजार नीचे धर दिए तो मुझे मजबूरी में नई गाड़ी खरीदने जाना ही पड़ा.

शोरूम पहुँचा तो वहाँ रिसेप्शनिस्ट ने गर्मजोशी से स्वागत किया. एक ओर तमाम तरह के नए नए मॉडलों की गाड़ियाँ रखी थीं, और दूसरी ओर बहुत से पुराने और सेकण्ड्स की गाड़ियाँ रखी थीं. मैंने नई चमचमाती गाड़ियों में से एक पसंद की. ग़ज़ब का मॉडल था और कम ईंघन में ज्यादा माइलेज और ज्यादा पॉवर देता था.

रिसेप्शनिस्ट ने मुझसे मेरी जाति पूछी. मैं चिंहुका. अरे! आपको मेरी जाति से क्या लेना देना? रिसेप्शनिस्ट ने मुझे अजीब नजरों से देखा. उसने बताया – नए, अच्छे, पॉवरफुल मॉडलों की गाड़ियाँ आरक्षित हैं और आरक्षित जातियों को ही सप्लाई की जाएंगी. सरकार ने आदेश तो कब से निकाल रखा है. दरअसल, निजी क्षेत्र में आरक्षण के कारण जो सेकण्ड ग्रेड के माल बन रहे थे उनका लेवाल कोई नहीं था तो सरकार ने उन्हें अनारक्षितों में बेचा जाना अनिवार्य कर दिया गया था.

मैंने उसे बताया कि मेरी जाति मानव जाति है. मैंने उससे पूछा कि मुझ मानव जाति को कौन सी गाड़ी मिल सकती है. उसने पुराने, सेकेण्ड्स की गाड़ियों के ढेर की ओर इशारा किया – उसमें से छांट लें, क्योंकि सारी नई पॉवरफुल गाड़ियाँ तो आरक्षितों के लिए आरक्षित हैं. और जो आरक्षित नहीं हैं, वे जनरल क्लास हैं – उन्हें तो सेकण्ड्स में से ही छांटना होगा. कानून जो बन गया है. बेचने वाले बेच नहीं सकते, खरीदने वाले खरीद नहीं सकते.

जैसे तैसे मैंने एक गाड़ी उसमें से छांटी, और उसे लेकर अपने घर की ओर लौट चला. यह गाड़ी तो मेरी मौजूदा गाड़ी से भी खटारा थी. पर, शुक्र है, चल तो रही थी. पत्नी ने आदेश फरमा रखा था – लौटते में सब्जी लेते आना. रास्ते में सब्जी बाजार में रुका. वहाँ एक इंसपेक्टर खड़ा था. उसने मुझसे मेरी जाति पूछी. मैंने कहा भाई, मैं सब्जी लेने आया हूँ. किसी जाति सम्मेलन में नहीं.

उस वर्दीधारी इंसपेक्टर की लाठी मेरे कंधे पर पड़ी. वह गुर्राकर बोला- अबे तू किस देश में रहता है. यहाँ जाति देखकर सब्जी खरीदी-बेची जाती है. जल्दी बता, नहीं तो निकल ले. मैंने उसे भी वही जवाब दिया- मेरी जाति मानव जाति है. वह थोड़ा भ्रमित हुआ. फिर कुछ समझता-नहीं-समझता हुआ फिर गुर्राया – अबे ये बता रिजर्व क्लास है या जनरल? मैंने उसे फिर समझाना चाहा कि मैं मानव हूँ और रिजर्व या जनरल में कोई भिन्नता नहीं समझता. इंसपेक्टर ने अपना झंडा ठकठकाया और बोला – साले जनरल! भाषण पेलता है. उधर जा – वहाँ से ले. उसने एक कोने की ओर इशारा किया जहाँ बासी, सड़ती-गलती सब्जियाँ जनरल क्लास के लिए बिक रही थीं. ताज़ी सब्जियाँ आरक्षित लोगों के लिए आरक्षित थीं. जो आरक्षित सब्जियाँ आरक्षितों में बिक नहीं पाती थीं, सड़ने-गलने लग जाती थीं, बासी पड़ जाती थीं तो जनरल क्लास में बिकने डाल दी जाती थीं. सरकारी आदेशानुसार.

मैंने अपने हिसाब से, खाई जा सकने वाली कुछ सब्जियाँ छाँटीं, और घर की ओर चला. चौराहे से घर की ओर टर्न किया तो ट्रैफ़िक पुलिस ने बड़ी लंबी सीटी बजाई और हाथ देकर रोका. पूछा कौन जात बा? मैंने उससे कहा कि मेरी शादी हो चुकी है और मेरे घर में कोई शादी योग्य वर नहीं है जो मैं जात बताऊँ. जाति-पाति तो शादी ब्याह के समय ही लोग बाग़ देखा करते थे अब तक. ट्रैफ़िक वाला सज्जन पुरुष लग रहा था. वह हँसा, बोला वो बात नहीं बा. बात ई है कि ई रास्ता तनिक रिजर्बे है ना. रिजर्ब जात के हो तो कौनौ बात नई. जाइ सकत हौ. पर रिजर्ब जात नई हौ तो ई रास्ता में नई जा सकत. कौनो चेकिंग में धरा जाऊ तौ जेल के चक्की पीसल पड़ब.

मैंने उससे पूछा कि जो रिजर्व नहीं हैं उनके लिए कौन सा रास्ता है. उसने बताया कि सरकार ने नया कानून बनाया है कि अच्छे, बढ़िया, सिक्स-फोर लेन सड़कें रिजर्वों के लिए रिजर्व हैं. जनरल क्लास को टूटी फूटी गलियों से संतोष करना पड़ेगा. उसने मुझे एक पतली, गड्ढेदार गली की ओर इशारा किया – उधरे से जाओ बाबा.

यू टर्न लेकर घर की ओर रवाना हुआ तो मेरी गाड़ी गली के गड्ढे में धँस गई और बड़े जोर का झटका लगा. खटारा गाड़ी का एक नुकीला पुर्जा निकल कर मेरी बांह में घुस गया और उसमें से तेजी से खून निकलने लगा. मैने जैसे तैसे गाड़ी आगे बढ़ाई. शुक्र की बात थी कि सामने ही अस्पताल था.

अस्पताल पहुँचा तो वहाँ के नामी एक्सपर्ट डाक्टर के सामने मरीजों की लाइन लगी थी. मेरे कंधे से खून बह रहा था. मैं डाक्टर के पास जाना चाहा. परंतु लाइन के मरीजों ने मुझसे मेरी जाति के बारे में पूछा, जिसकी मुझे आशंका पहले से ही हो रही थी. मैं अपने बहते खून से डरा हुआ था लिहाजा सरकारी कानून के भय से झूठ बोल गया – आरक्षिते हूँ बाबा. परंतु इतने में लाइन में किसी ने मुझे पहचान लिया और चिल्लाया – ई तो जनरल है. ई गलत है. इसको इहाँ से भगाओ. जाहिर है, वह नामी, अनारक्षित जाति का एक्सपर्ट डॉक्टर आरक्षितों के लिए आरक्षित था.

लोगों ने मेरी अनारक्षित जाति को पहचान लिया और एक ओर इशारा कर दिया जहाँ एक आरक्षित जाति का डाक्टर खाली-पीली मक्खियाँ मारते बैठा था. उसने मेरे बहते खून को देखा और मुँह बिसूरते हुए अपने कम्पाउण्डर को इशारा किया. मुझे लगा कि कम्पाउण्डर भी मुझसे मेरी जाति पूछेगा. पर वह एक मेकेनिकल किस्म का आदमी लगा जिसको जाति-पांति क्या, दुनियादारी से, सर्दी-गर्मी से भी कोई मतलब नहीं था. उसने मशीनी अंदाज में मेरे घाव पर मरहम पट्टी कर दी. मुझे महसूस हुआ कि काश! पूरी दुनिया ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो.

अस्पताल से आगे निकला तो सामने की सड़क पर भीड़ जमा थी. कोई जलसा हो रहा था. एक नेता भाषण दे रहा था. आगे जाने का रास्ता जाम था. मजबूरन मुझे भी रुकना पड़ा. नेता कहता जा रहा था – हम आरक्षितों को काम करने की क्या जरूरत? सदियों से सड़ा काम करते आ रहे थे. अब कोई काम नहीं करेंगे. क्यों करेंगे काम हम? हमें घर बैठे रोटी कपड़ा और मकान मिलना चाहिए. बिना काम किए सारी सुख सुविधा मिलना चाहिए. वोट देने के सिवाय हम आरक्षित कोई काम नहीं करेंगे. हम सिर्फ और सिर्फ वोट दिया करेंगे. और कुछ नहीं करेंगे. और जो सरकार हमारी आरक्षण संख्या को बढ़ाएगी, इस बात को मानेगी उसे ही वोट देंगे. उसकी हर बात पर जोरों से, पूरे जोशो खरोश से तालियाँ बज रही थीं.

कोई दो घंटे के तीखे जोशीले भाषणों के बाद ले देकर जलसा समाप्त हुआ तो मैं घर की ओर आगे बढ़ा. सड़क के बाजू में एक बुजुर्ग जार जार रो रहा था. दो-चार लोग उसे घेरे बैठे थे, और उसे सांत्वना देने की असफल कोशिश कर रहे थे. मैंने जिज्ञासा वश लोगों से पूछा कि वह किसलिए रो रहा है. लोगों ने बताया – इस आरक्षित जाति के बुजुर्ग ने अपनी बिटिया के लिए एक अच्छा वर तलाशा था. शादी पक्की कर दी थी. परंतु सरकारी कानून के तहत इसे अपनी बिटिया को किसी अन्य आरक्षित के साथ शादी करवाना थी, जो इस बुजुर्ग और इसकी बिटिया के हिसाब से उसके योग्य नहीं थे. इसकी बिटिया ने इस वजह से खुदकुशी कर ली. मैं भी जार जार रोने लग गया. मुझे मेरी बेटी याद आ गई. उसके गम में शरीक होता हुआ मैं आगे बढ़ गया. मैं क्या कर सकता था? मैं कुछ नहीं कर सकता था. पता नहीं सरकार को क्या हो गया है. वह आगे क्या करेगी पता नहीं.

जैसे तैसे घर आया तो पत्नी भरी बैठी थी. आम पत्नियों की तरह, देर से घर आने में उसे भी हमेशा लगता रहता था कि मैं अपने दोस्तों के साथ कहीं बैठ कर जाम उड़ाता होऊंगा. पर फिर मेरी बांह पर पट्टी बंधी देखी तो उसका गुस्सा हवा हो गया. हाय राम! ये क्या हो गया उसके मुँह से बेसाख्ता निकला. मैं पस्त हो चुका था, और कुछ बोलने बताने के मूड में नहीं था. बस इतना ही कहा – कुछ नहीं, गाड़ी के एक पुर्जे से चोट लग गई थी.

पत्नी सब्जियों की राह देख ही रही थी. बच्चे भी भूखे बैठे थे. जल्दी जल्दी उसने सब्जी बनाई और परोसी. रोटियाँ उसने पहले ही बना रखी थी. बासी सब्जी से बनी तरकारी कुछ अजीब स्वाद दे रही थी. पर मुझे तो पेट भरना था. जैसे तैसे निवाला अंदर करता रहा. बिटिया ने एक – दो कौर मुँह में डाले और उसे उबकाई सी आने लगी. उसने अपनी मम्मी से शिकायत की कि सब्जी कैसा स्वाद दे रही है. उसने खाना खाने से मना कर दिया. मैं भरा बैठा ही हुआ था – एक जोरदार चांटा उसे रसीद कर दिया. अब तो यही खाना मिलेगा तुझे इस आरक्षित भारत में. पार्लियामेंट, सरकार भी कोई चीज होती है. खाना है तो खा नहीं तो मर.

वह सदमे से चीखी पर ढंग से रो भी नहीं सकी. आज तक उसे अपने पालकों की टेढ़ी नजर भी नहीं मिली थी. पत्नी दौड़ते हुए आई. मुझ पर चिल्लाई – क्या हो गया है तुम्हें आज?

पत्नी की आवाज फिर आई – क्या हो गया है तुम्हें आज? अरे! अब उठिए भी. नौ बज गए हैं. क्या दिन भर सोते रहोगे?

मेरी नींद खुल गई.

उफ! तो मैं सपना देख रहा था. बाप रे! क्या ख़ौफ़नाक सपना था.

पत्नी ने मेरे एक हाथ में चाय का प्याला और दूसरे में अख़बार थमाया और कहा – सुबह से तीन बार जगा चुकी हूँ तुम्हें और तुम नींद में जाने क्या बड़बड़ाए जा रहे हो. मैं उसे देखकर बस मुसकुरा दिया. सुबह-सुबह की खिड़की से आती रौशनी में उसका खूबसूरत चेहरा चमक रहा था. उधर अख़बार में हेडलाइन झांक रहा था – सरकार ने आरक्षण लागू करने का फैसला ले लिया है.

अख़बार एक ओर फेंक कर मैंने उससे कहा – चलो बाहर बग़ीचे में चलते हैं. बगीचे में रंग बिरंगे पुष्प चारों ओर खिले हुए थे. एक तरफ मे-फ़्लॉवर के लाल सुर्ख गोल पुष्प मंद हवा में मन्द मन्द नृत्य कर रहे थे. शुक्र है, प्रकृति में आरक्षण लागू नहीं था – मुझे मेरा सपना फिर याद आ गया था.

***-*** चित्र : रेखा श्रीवास्तव की कलाकृति. आर्ट पेपर पर काली स्याही से रेखांकन

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मैंने जो सपना देखा था, लगता है हकीकत में बदलने लगा है. तभी तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने खबरों की यह खबर छापी है-

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इस बीच, इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता का आरक्षण मुद्दे पर संतुलित नजरिया पढ़ने में आया. सरकार की असफलता की कहानी. अवश्य पढ़ें. अकसर, असफल लोग असफलता का ठीकरा किसी अन्य के सिर पर ही फोड़ने की कोशिश करते हैं. सरकार यही तो कर रही है. वह अपनी असफलता का ठीकरा भारत की अभिशप्त जनता पर फोड़ रही है.

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**-** जब नॉलेज़ कमीशन के सदस्यों ने यही बात कही थी तो अर्जुनसिंह से लेकर येचुरी तक महान भारत के महान नेताओं ने नॉलेज कमीशन के सदस्यों के लिए यही बात तो कही थी. और जिससे दुःखी और आहत होकर नॉलेज कमीशन के कन्वीनर मेंबर सहित दो सदस्यों ने अपने इस्तीफ़े भी सौंप दिए.

मैं भी यही बात कहना चाहता हूँ योर ऑनर! आखिर पार्लियामेंट भी कोई चीज है. संविधान संशोधन कोई चीज है. सुप्रीम अथॉरिटी तो पार्लियामेंट है. पार्लियामेंट ने संविधान संशोधन कर दिया है. पार्लियामेंट ने क़ानून बना दिया है. अब क़ानून का पालन करना करवाना तो आपका कर्तव्य है. आप जो पूछ रहे हैं उसका हक आपको नहीं है – और, पार्लियामेंट से तो पूछने का तो कोई हक नहीं है. पार्लियामेंट में तो उसके ही सदस्य- भले ही प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत के पैसे लेकर पूछें – पूछ सकते हैं.

और, संविधान संशोधनों की बात करें तो, जब सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग लाभ के पद पर कोई तलवार दिखाने की कोशिश करता है तो पार्लियामेंट के सदस्य अपने लाभ की खातिर आनन फानन में नया क़ानून बना डालते हैं – संविधान संशोधन कर डालते हैं. संविधान की मूल आत्मा के साथ कितनी बार बलात्कार किया गया है क्या कोई हिसाब बता सकता है?

और जब कोई इन नेताओं से भारत के बारे में भारत के समाज और उसकी अखंडता, उसकी प्रगति के बारे में पूछता है तो ये उनके ही ज्ञान पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं. यह जुदा बात है कि नेताओं को खुद यह नहीं पता होता कि वे जो कर रहे हैं वो क्या कर रहे हैं – सिवाय यह देखने-समझने के कि उन्हें तात्कालिक चुनावी लाभ कितना हो रहा है.

आरक्षण के बारे में हर सोचने-समझने वाले ने अपने हिसाब से कुछ-न-कुछ कहा ही है. कुछ और बेबाक विचार – जम्मू-कश्मीर के मु ख्य सचिव , तथा अतनु डे तो पढ़ने लायक हैं ही, पटना के सुपर 30 प्रशिक्षण संस्थान की कहा नी भी आंखें खोलने वाली है जहाँ जाति-धर्म कोई मायने नहीं रखती है.

ऐसी ही संसदीय अनैतिकता पर कुलदीप नैयर का विचारोत्तेजक आलेख पढ़ें –

अनैतिकता पर संसद की मुहर: कुलदीप नैयर

(साभार – दैनिक जागरण)

राजनीतिक दल अपनी समग्र गंदगी और कपट से मुक्तिपाने और शुद्ध होने की संतुष्टि के लिए संसद का उपयोग पावन गंगा के तौर पर कर रहे हैं। वे अपनी गलतियों को छिपाने के लिए कानून बना रहे हैं और इस प्रक्रिया में देश में नैतिकता के स्तर को गिरा रहे हैं। वे यह जानते हुए भी कि उनके कृत्य समाज को अभिशप्त कर रहे हैं, अपनी उद्देश्य सिद्धि में व्यस्त हैं। वे जितनी हानि कर रहे हैं उसका आकलन करने के मामले में उनके हाव-भाव संवेदनहीनता वाले हैं। संसद में पारित अयोग्यता निरोधक संशोधन विधेयक, 2006 को ही ले लीजिए। इसमें सांसद के लाभ के पद पर विराजमान होने को क्षम्य कर दिया गया। संविधान निर्माताओं ने सांसदों को लाभ के पद पर नियुक्त करने से इसलिए प्रतिबंधित किया था ताकि उनकी निष्ठा को खरीदा न जा सका। संसद ने यद्यपि कानून के जरिए कुछ पदों को इस कानून से छूट भी प्रदान की, किंतु केंद्र और राज्यों, दोनों ने इस प्रावधान का दुरुपयोग संसद और विधानसभाओं में अपने प्रबल और प्रखर समर्थकों को पुरस्कृत करने के लिए किया। ऐसे सदस्य कोई वेतन नहीं पाते, परंतु उन्हें वे सभी सुविधाएं और ठाठ-बाट सुलभ हैं जो मंत्रियों को उपलब्ध हैं।

यह कोई लुकी-छिपी बात नहीं कि सत्तारूढ़ दल अपने समूह को जोड़े रखने के लिए ऐसी नियुक्तियां करते हैं। जो लोग मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किए जा पाते उन्हें निगमों का अध्यक्ष या ऐसे ही अन्य पद प्रदान कर पटाया जाता है। संसद ने जो कानून पारित किया उससे लगभग 50 सांसदों को छूट मिल गई है। इनमें लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और सत्तारूढ़ संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी भी शामिल हैं। अन्य के समान संभवतऱ् उन्हें भी यह भय था कि जो पद उन्होंने सहेजे हुए हैं उनके कारण उन्हें भी अयोग्य ठहराया जा सकता है। यह खेदजनक है कि सोनिया गांधी एक बार पुनऱ् राष्ट्रीय सलाहकार परिषद प्रमुख का पद ग्रहण करने वाली हैं। बुनियादी तौर पर इस पद के कारण ही सोनिया गांधी को लोकसभा सीट से त्यागपत्र देना पड़ा था। निऱ्संदेह संसद ने घोषित कर दिया है कि यह लाभ का पद नहीं है, किंतु क्या कोई अवैध एक्ट संसद की मंजूरी मात्र से वैध हो जाता है? अभी न्यायिक पड़ताल या समीक्षा तो होनी है, क्योंकि यह अधिनियम पूर्व प्रभाव से लागू होना है। ऐसा लगता है कि पुराने पाप धो दिए गए हैं। वे सभी लोग जो लाभ के पद पर आसीन हैं उनकी सदस्यता कायम रहेगी।

बेचारी जया बच्चन इसलिए पीड़ित हुईं, क्योंकि उनका मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया था, जिसने निर्वाचन आयोग द्वारा घोषित अयोग्यता को सही ठहराया। चूंकि शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व प्रतिशोधी है इसलिए उसने एक द्वेषपूर्ण धारा विधेयक में शामिल कर दी, जिसमें कहा गया है कि यदि कोई अदालत एक सदस्य को छूट भी दे दे तो भी उसकी बहाली नहीं हो सकती। जो भी हो, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद जया बच्चन की सदस्यता बहाल नहीं होनी। संसद में पारित अयोग्यता निरोधक संशोधन विधेयक मात्र इसीलिए पावन नहीं हो जाता कि संसद ऐसा कहती है। क्या सांसद यह मानते हैं कि यदि वे किसी अवैध बात पर अपनी मुहर लगा देते हैं तो वह वैध हो जाती है? आज छूट पाने वाले सांसदों की संख्या 50 है। कल यह दोगुनी-तिगुनी हो सकती है। राज्य पहले ही संवैधानिक प्रावधान से गजब ढा चुके हैं। अधिनियम के बाद तो वे और मनमानी कर सकते हैं।

यह कोई रहस्य नहीं कि सत्तारूढ़ दल अथवा गठबंधन द्वारा सभी समर्थक सदस्यों (यदि वे मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जा सके) को किसी न किसी पद पर आसीन कर दिया जाता है। बेहतर होता कि यह आकलन करना केंद्रीय निर्वाचन आयोग या कानूनी अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि कोईपद लाभ का है या नहीं? हर मामले में संसद को दखल नहीं देना चाहिए, क्योंकि ऐसा करके वह अपने स्तर पर स्वयं ही आंच ला रही है। एक अन्य कानून को ले लें, जिसे संसद ने पारित किया है। यह दिल्ली में अनधिकृत अथवा अवैध निर्माणों से संबंधित है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने तो स्पष्टतः कहा है कि उन्होंने विधायकों के मकानों को ढहाए जाने से बचाया है। क्या उन्होंने झुग्गी और झोपडियों के मामले में भी ऐसा किया? क्यों गाज आम आदमी पर ही गिरती है? भवन निर्माताओं, नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के बीच सांठगांठ ने राजधानी को कंक्रीट के जंगल में बदल दिया है। यहां तक कि पार्क और हरित स्थल भी नहीं बख्शे गए। सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में जो स्टैंड लिया था वह संसद के जरिए परास्त कर दिया गया।

सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली न्यायालय ने अवैध निर्माणों को ढहाने का आदेश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने नए अधिनियम के विरुद्ध एक याचिका विचारार्थ स्वीकार कर ली है, यद्यपि उसने अभी अपना फैसला नहीं दिया है। हो सकता है कि वह अपने मूल निर्णय पर ही डटे। जहां तक दिल्ली सरकार का संबंध है तो कोई भी यह जानना चाहेगा कि उसने अवैध निर्माणों को ढहाए जाने का यह नाटक क्यों किया, जबकि उसका वास्तविक मकसद उन्हें यथावत रखने का था। मैं महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत करके राजनीतिक दलों और खासकर कांग्रेस को लज्जित नहीं करना चाहता, जिनकी यह प्रबल धारणा थी-गलत माध्यमों से सही परिणाम नहीं मिल सकते। गांधी जी की सोच और विचारों में प्रशासन का नैतिक पक्ष महत्वपूर्ण था। उन्होंने कहा था, जिसे जीवन का नैतिक अथवा आध्यात्मिक पक्ष कहा जाता है उसके प्रति हेय भावना न केवल इंसान के बुनियादी गुणों की उपेक्षा करती है, बल्कि मानवीय व्यवहार को मूल्यों से भी वंचित कर देती है। दोनों ही अधिनियम अपने अंश और उद्देश्य में ही अनैतिक और गलत हैं। कांग्रेस और वाम दलों ने तो खास तौर पर संसद की गरिमा को गिराया है। उनसे बेहतर व्यवहार की अपेक्षा थी। चूंकि तरीके और उपाय ही प्रदूषित थे इसलिए उनके नतीजे भी प्रदूषित हैं। भाजपा लाभ के पद से संबंधित विधेयक से दूरी बनाए रखते लगी। पार्टी को यह स्पष्ट करने की जहमत उठानी पड़ी कि उसके एक नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने तो लाभ के पद का प्रकरण सार्वजनिक होने से पहले ही तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था।

मैं नहीं जानता कि यह पार्टी राज्यों में भी इतनी ही शुद्धतावादी है या नहीं जितना कि उसने संसद में होने का दावा किया, मगर जब दिल्ली में अवैध निर्माणों को नियमित करने का प्रसंग उपस्थित हुआ तो भाजपा अग्रिम मोर्चे पर थी। दोनों अधिनियमों ने अनेक सवाल उपस्थित कर दिए हैं। एक यह है कि क्या राजनीतिक दलों की कल्पना अदालत को मात देने की है? इससे भी ज्यादा बुरी बात है- कानून के शासन की अवहेलना। संसद विधि विरुद्ध कानूनों पर पर्दा डालने का प्रयास करे, यह तो और भी अधिक क्षोभ की बात है। मैं इस बारे में सुनिश्चित हूं कि विधि विरुद्ध कानूनों, खास तौर पर लाभ के पद से संबंधित कानून को तो सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी ही जाएगी। हमें बेशक निर्वाचित प्रतिनिधियों के समक्ष नतमस्तक होना चाहिए, किंतु संसद ने जो कुछ किया है उसे स्वीकार और मान्य करके तो हम न्यायालयों के अधिकार को कम करने के प्रयासों को ही प्रोत्साहित करेंगे।

हमारे समक्ष आपातकाल के उस दौर का लज्जाजनक पूर्व उदाहरण है जब अदालतों का कोई महत्व नहीं रहा था और प्रशासनिक प्रक्रियाओं एवं नियमों को व्यक्तियों के लाभार्थ निष्प्रभावी सा कर दिया गया था। वह परिदृश्य था जब विरोधी मत का गला घोंट दिया गया था और लोकतांत्रिक मूल्यों के आम क्षरण के हालात बने थे। राजनीतिक दलों ने जो चुनौती दी है राष्ट्र को उसे स्वीकार करना होगा। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)

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