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हिंदी ब्लॉगिंग का स्वर्णिम अध्याय : विनीत कुमार

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"मैं कभी-कभी सोचते हुए गहरे हताशा से भर जाता हूं कि मेरी पहचान किस हद तक सीमित है कि अगर मैंने अदना सा ये ब्लॉग शुरु नहीं करता तो जित...

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ब्लॉग की पोस्टिंग ई-मेल से...

"मैं कभी-कभी सोचते हुए गहरे हताशा से भर जाता हूं कि मेरी पहचान किस हद तक सीमित है कि अगर मैंने अदना सा ये ब्लॉग शुरु नहीं करता तो जितने लोग मुझे अब जानते हैं, बमुश्किल उनमें से दस फीसद लोग मुझे जान रहे होते. इतना ही नहीं, चाहे जितने भी लोग किसी न किसी रुप में मेरे आसपास हैं उनमें से आधे से ज्यादा लोग ब्लॉगिंग न करने पर नहीं होते. सुख-दुख,छोटी-बड़ी दुनियाभर की न जाने कितनी सारी बातें मैं उनसे साझा करता हूं. मैं इन सबसे बिना पूछे रिश्तेदारी क्लेम करने लग जाउं तो आज इस देश का कोई भी ऐसा शहर/कस्बा नहीं है जहां कोई दोस्त न मिल जाए. मुझे तो अब देश के किसी भी कोने में जाने में हिचक ही नहीं होती..लगता है, मुसीबत आने पर उस शहर में ब्लॉगर तो होगा. हम इस अर्थ में अतिजातिवादी हो गए हैं और ब्लॉग नाम की जाति की तलाश और उम्मीद से पूरे देश में भटकते रहते हैं. - विनीत कुमार"
 
--- और, यह कहानी लगभग हर प्रतिबद्ध ब्लॉगर की है. चाहे वो रतन सिंह शेखावत हों जिन्हें राजस्थान के गांव गांव के बच्चे बच्चे भी भगतपुरा डॉट काम वाला के नाम से जानते हैं या कोई और.
विनीत कुमार ने अपनी ब्लॉगिंग के पांच साल पूरे होने पर हमेशा की तरह एक धारदार, अपनी अलग बेलौस देसी शैली में, लड़भक और लड़चट जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए अपना अनुभव अपने ब्लॉग हुंकार पर लिखा है, जिसे हर संजीदा ब्लॉगर को पढ़ना चाहिए.  उनकी यह प्रविष्टि साभार यहाँ प्रकाशित की जा रही है. छींटे और बौछारें की तरफ से हुंकार को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं! 
विनीत कुमार का दो वर्ष पहले लिया गया ब्लॉग साक्षात्कार का वीडियो यू-ट्यूब पर यहाँ तथा यहाँ देखें.

आज ब्लॉगिंग करते हुए कुल पांच साल हो गए. आज ही के दिन मैंने मेनस्ट्रीम मीडिया की मामूली( सैलरी के लिहाज से) नौकरी छोड़कर अकादमिक दुनिया में पूरी तरह वापस आने का फैसला लिया था. ब्लॉगिंग करते हुए साल-दर-साल गुजरते चले जा रहे हैं लेकिन मैं इस रात को और अगली सुबह को अक्सर याद करता हूं जब हम उस आदिम सपने से बाहर निकलकर कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है, आजतक में काम करना है वर्चुअल स्पेस पर कीबोर्डघसीटी करने लग गए.


ब्लॉगिंग के जब भी साल पूरे होते हैं, मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं. मैं अपने पीछे के उन सालों को उसी क्रम में याद करने लग जाता हूं. इतनी जतन और सावधानी से जैसे कि इसके पहले की कोई तारीख या दिन मेरी जिंदगी के लिए कोई खास मायने नहीं रखते. इससे ठीक एक महीने पहले मेरा जन्मदिन आता है और हर बार घसीट-घसाटकर बीत जाता है. पिछले दो बार से तो हॉस्पिटल में और अबकी बार तो इतना खराब कि मैं शायद ही अपने जन्मदिन को याद करना चाहूंगा. दिनभर मयूर विहार के घर को छोड़ने और कचोटने में बीत गया. ये सच है कि हमारी मौत की तारीखें मुकर्रर नहीं होती लेकिन कुछ तारीखें ऐसी जरुर होती है जो अक्सर जिंदगी के आसपास नाचती रहती है और मौत जैसी ही तकलीफ देती रहती है. शायद इन तारीखों में से मेरे जन्मदिन की एक ऐसी ही तारीख है. खैर,

अपने जन्मदिन को लेकर मैं जितना ही शिथिल,बेपरवाह और लगभग उदास रहता हूं, ब्लॉगिंग की तारीख को लेकर उतना ही उत्साहित, संजीदा और तरल. मैं धीरे-धीरे अपने जन्मदिन की तारीख को खिसकाकर 19 सितंबर तक ले आना चाहता हूं ताकि 17 अगस्त के आसपास मौत जैसी तकलीफ नाचनी बंद हो जाए. मुझे अक्सर लगता है कि मेरी असल पैदाईश इसी दिन हुई. जिस विनीत को आप जानते हैं, वो इस तारीख के पहले आपके बीच नहीं था. वो पहले साहित्य का छात्र था, किसी चैनल का ट्रेनी थी, रिसर्चर था, मां का दुलारा बेटा था, पापा का दुत्कारा कुपुत्र था, बिहार-झारखंड छोड़कर हमेशा के लिए दिल्ली में बसने की चाहत लिए एक शख्स था. वो कदम-कदम पर प्रशांत प्रियदर्शी, ललित, गिरीन्द्र, शैलेश भारतवासी जैसे को परेशान करनेवाला ब्लॉगर नहीं था. वो बात/मुद्दे पीछे पोस्ट तान देनेवाला ब्लॉग राइटर नहीं था. मैं कभी-कभी सोचते हुए गहरे हताशा से भर जाता हूं कि मेरी पहचान किस हद तक सीमित है कि अगर मैंने अदना सा ये ब्लॉग शुरु नहीं करता तो जितने लोग मुझे अब जानते हैं, बमुश्किल उनमें से दस फीसद लोग मुझे जान रहे होते. इतना ही नहीं, चाहे जितने भी लोग किसी न किसी रुप में मेरे आसपास हैं उनमें से आधे से ज्यादा लोग ब्लॉगिंग न करने पर नहीं होते. सुख-दुख,छोटी-बड़ी दुनियाभर की न जाने कितनी सारी बातें मैं उनसे साझा करता हूं. लंबे समय तक जीमेल से उनसे चैट होती रही है इसलिए अब वे इस मंच से छूट भी गए हैं तो भी फोन करते हुए रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि हम जबलपुर फोन कर रहे हैं कि गिरीन्द्र अब पूर्णिया चला गया है कि पीडी जब किस्सा सुनाना शुरु करता है तो कब चेन्नई से उठाकर पटना की जलेबीनुमा सड़कों और उतनी ही घुमावदार यादों की तरफ लेकर चला जाता है. मैं इन सबसे बिना पूछे रिश्तेदारी क्लेम करने लग जाउं तो आज इस देश का कोई भी ऐसा शहर/कस्बा नहीं है जहां कोई दोस्त न मिल जाए. मुझे तो अब देश के किसी भी कोने में जाने में हिचक ही नहीं होती..लगता है, मुसीबत आने पर उस शहर में ब्लॉगर तो होगा. हम इस अर्थ में अतिजातिवादी हो गए हैं और ब्लॉग नाम की जाति की तलाश और उम्मीद से पूरे देश में भटकते रहते हैं. अब तो फ़ेसबुक ने पहले से भी ज्यादा मामले को आसान कर दिया है.

पिछले पांच साल की तरफ पलटकर देखता हूं तो लगता है इसी ब्लॉगिंग ने मेरे भीतर कितना साहस, कितने सारे जिद्दी धुन भर दिए हैं. सोचिए न, संत जेवियर्स कॉलेज,रांची के स्कूल जैसी सख्ती भरे माहौल से निकलकर आया ग्रेजुएट, हिन्दू कॉलेज दिल्ली में आकर सबकुछ नए सिरे से समझने की कोशिश करता है. बनने से पहले उसके भीतर की कई सारी चीजें टूटती है, चटकती है..इसी जद्दोजहद में कब पैसे कमाने की जरुरत होने लगी,पता तक नहीं चला. ये वो समय था जब जोड़-तोड़,चेला-चमचई, अग्गा-पिच्छा को आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता बताया जा रहा था. हम एक बेहतर लेखक,पत्रकार,रिसर्चर बनने के सपने लेकर,ट्रेनिंग लेकर तैयार हुए थे और अब हमें बने रहने और सफल होने के लिए निहायत अव्वल दर्जे का हरामी,कमीना, चाटुकार,सेटर बनना था. ऐसे में मुझे गहरी उदासी के बीच भी अपने ब्लॉग पर बेइंतहा प्यार उमड़ता है- हुंकारः हां जी सर कल्चर के खिलाफ.

कभी-कभी तो मैं सोचकर कांप जाता हूं कि अगर मैंने ब्लॉगिंग न की होती तो देश-दुनिया और समाज को देखने का तरीका मेरा कितना अलग होता. अलग अभी जिस तरह से देख पा रहा हूं, उससे . नहीं तो जमाने के हिसाब से तो अधिकांश लोगों की तरह ही होता. हम हर शख्स को अकादमिक चश्में में कैद करके देखते- वो ब्राह्मण है, वो राजपूत है, वो भूमिहार है, ओबीसी है,दलित है. उसकी गर्लफ्रैंड एससी है, जान-बूझकर पटाया है कि कोई नहीं तो कम से कम एक की तो नौकरी पक्की हो जाए. उसका गाइड यूपी का है, बनारस-बनारस कार्ड खेला है. वो हरियाणा का है, वो जाट है, ये लड़की ओबीसी है..ब्ला,ब्ला. इस अकदामिक चश्मे से जो कि जाहिर तौर पर तमाम तरह के वैचारिक खुलेपन और देरिदा,फूको,ल्योतार की किताबों को सेल्फ में सजा लेने और वैल्यू लोडेड वर्ड्स के बीच-बीच में झोंकते रहने के बावजूद अलग से कुछ समझ नहीं आता. पूर्ववर्ती साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के डिब्बाबंद विचार बस क्लासरुम और आगे चलकर उत्तर-पुस्तिकाओं/थीसिस तक में जाकर सिमट जाती है, मुझे लगता है इस ब्लॉग ने ही मुझे लोगों को,चीजों को इस चश्मे से देखने से मना कर दिया. इसे ऐसे कह लें कि अकादमिक दुनिया की वो बारीकी मेरे भीतर पैदा ही नहीं होने दी जिसमें इस तरह के भेदभाव को बरतते हुए भी ज्ञान की बदौलत प्रगतिशील होने के कला सीख-समझ सकें. ब्लॉगिंग ने एक ही साथ हमें साहसी और ठस्स बना दिया.

साहसी इस अर्थ में कि जब हम अपनी लैपटॉप पर घुप्प अंधेरे में बैठकर किसी भी मठाधीश पर लिख रहे होते हैं तो दिमाग में रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि वो मेरा किस हद तक नुकसान करेंगे ? बस एक किस्म का इत्मीनान होता है कि इस कमरे तक किसी की पहुंच नहीं है और अगर हो भी तो तब तक हम अपनी बात तो कह लेंगे. दुनिया की व्यावहारिकता से पूरी तरह निस्संग तो नहीं लेकिन हां एक हद तक इसने हमें पूरी तरह उसमें लिथड़ने से बचा लिया..आज हम ब्लॉगिंग करते हुए अच्छा चाहे खराब जो कि बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है, वो हो पाए जो कि खालिस रिसर्चर होते हुए शायद कभी नहीं हो पाते..इसने हमारे भीतर वो अकूत ताकत पैदा की है कि हम किसी भी घटना और व्यक्ति के प्रति असहमत होने की स्थिति में लिख सकते हैं, प्रतिरोध जाहिर कर सकते हैं. निराला, बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध, प्रेमचंद, रेणू जैसे  अपने पुराने साहित्यकारों में अस्वीकार का जो साहस रहा है, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का जो माद्दा रहा है, वो उनकी रचनाओं के पढ़ने के बाद क्लासरुम और अकादमिक दुनिया से नहीं, इसी ब्लॉगिंग से थोड़ा-बहुत ही सही अपने भीतर संरक्षित रह पाया.

और ठस्स इस अर्थ में कि इसने मेरे भीतर वो कभी कलात्मक बोध पैदा नहीं होने दिया जिसका इस्तेमाल हम भाषिक सौन्दर्य विधान पैदा करने के बजाय उस झीने पर्दे की तरह करते जो हमें स्टैंड राइटिंग के बजाय मैनेज्ड राइटिंग की तरफ ले जाता. हम सिर्फ उन्हीं रचनाओं,लेखकों और मूर्धन्यों के बारे में लिखते जो हमारी जेब की सेहत और बौद्धिक छवि दुरुस्त करने के काम आते. मतलब हम चूजी राइटर होने से बच गए और इससे हुआ ये कि हमारे हिस्से कई ऐसे मुद्दे,कई ऐसे लोग आ गए जो मेनस्ट्रीम मीडिया की डस्टबिन में फेंक दिए गए थे, जो अकामदिक दुनिया में सिरमौर करार दे दिए गए थे, जो मीडिया में मसीहा नाम से समादृत थे. हमने लेखन के नाम पर ठिठई ज्यादा की है और ये सब बस इसलिए कि ब्लॉग नाम की एक चीज हमारे पास थी और जिसके उपर किसी की सत्ता नहीं थी. ये अलग बात है कि अब इस विधा में भी एक से एक लड़भक और लड़चट लोग आ गए हैं. मैं तो अपने उन पुराने ब्लॉगर साथियों को याद करता हूं जो अपनी भाषिक खूबसूरती के साथ ऐसी धज्जियां उड़ाते थे कि पायजामे का सिला बुश्शर्ट तक को पता न चले. हम इस अकेले ब्लॉग की बदौलत( आर्थिक रुप से जेआरएफ की बदौलत) लंबे समय तक सिस्टम का कल-पुर्जा,चेला-चपाटी बनने से बचते रहे. नहीं तो हम कभी ब्लॉगर नहीं, चम्पू या फिर जमाने पहले ही एस्सिटेंट/ एसोशिएट पदनाम से सुशोभित हो गए होते.

कई बार कुछ घटनाएं,कुछ प्रसंग बहुत ही ज्यादा मन को कचोटती है. लगता है किससे कहें. मोबाइल की टच स्क्रीन पर उंगलियां सरकने लग जाती है. फिर हम उसे साइड कर देते हैं जैसे कि किसी पर यकीन न हो और फिर एक नई पोस्ट लिख देते हैं. कौन ऐसा पात्र खोजने जाए जो ठीक-ठीक मेरी मनःस्थिति को समझ सकेगा,लाओ यहीं उतार दो. आप जो मुझे लगातार पढ़ते हैं न, कई बार वो मेरे मन की कबाड़ है, उचाट मन को उचटने न देने की कवायद. उसमें न तो रिपोर्टिंग है, न खबर है, न कथा है और न ही साहित्यिकता. उसमें वो सब है,जिससे हम छूटना चाहते हैं, जिसके छूटते जाने पर भारी तकलीफ होती है.
अपने इस ब्लॉग के एक कोने में अक्सर मेरी मां होती है. न्यूज बुलेटिन की तरह खेल,राजनीति,मनोरंजन की तरह एक अनिवार्य सेग्मेंट. वो मां जो अक्सर मजाक में कहा करती है- तुमको पैदा तो किए लेकिन चीन्हें( पहचानना) बहुत बाद में. वो इसके जरिए मुझे रोज चीन्ह रही है. जमशेदपुर के चार कमरे की फ्लैट में, बालकनी में बैठकर गुजरती बकरियों,गाड़ियों और डॉगिज को देखते हुए. प्रभात खबर, हिन्दुस्तान, जागरण में छपी मेरी पोस्टों से गुजरते हुए. मुझे लगता है कि अगर मैं ब्लॉगिंग नहीं कर रहा होता तो मां के इस कोने को कहां व्यक्त कर पाता. कौन माई का लाल मेरी इस "बिसूरन कथा" को छापता. बचपन की मेरी उन फटीचर यादों को अपने अखबार और पत्रिकाओं के पन्ने पर जगह देता.

हम सबके बीच साग-सब्जी-दूध-फल-गाड़ी-मोटर के बाजारों के बीच अफवाहों का भी एक बड़ा बाजार है. ये बाजार बिना किसी ईंधन के अफवाहों से गर्म रहता है. इसी बाजार में अक्सर अटकलें लगती हैं. इन्हीं में  ये अटकल अक्सर लगती रही है- ये कुछ दिन का खेल है, देखिएगा लाइफ सेट होते ही ब्लॉग-स्लॉग सब छोड़ देगा. अरे देख नहीं रहे हैं, जनसत्ता, तहलका में लिखने और चैनल पर आने के बाद से कितना कम हो गया है लिखना ? बनने दिए एस्सिटेंट प्रोफेसर, सब ब्लॉगिंग पर बरफ जम जाएगा. इन अटकलों का हम क्या कर सकते हैं ? वैसे भी अफवाहें और अटकलें जब तक जिंदा रहे, उसी शक्ल में जिंदा रहे तो अच्छा है. उनका रुपांतरण घातक ही है..लेकिन इतना तो जरुर है कि हम ब्लॉगिंग तो तभी छोड़ सकते हैं न जब मीडिया में किसी घटना से गुजरने के बाद उबाल आने बंद हो जाएं. आसपास की चीजों के चटकने के बाद भीतर से कुछ रिसने का एहसास खत्म हो जाए. मां के फोन पर यादों की गलियों में गुम होने बंद हो जाए..जब तक ये होते रहेंगे, आखिर विचारों के कबाड़ और कचोट को कहां रखेंगे. यहीं न. ऐसे में तो हम बस इतना ही कह सकते हैं न कि हमारी निरंतरता भले ही टूटती-अटकती रहे लेकिन तासीर बनी रहे, मैं अपनी कोशिश तो बस इतनी ही कर सकता हूं और अटकलों के बाजार के बीच आप मेरे लिए यही कामना कर सकते हैं, बाकी का क्या है ?

मेरे इस ब्लॉग में और ब्लॉगिंग करते हुए कई संबंध दर्ज है, कईयों से जुड़ने के संबंध और कईयों से जुड़कर अलग होने के संदर्भ. कुछ हमारे रोज के टिप्पणीकार हुआ करते थे, अब वे भूले-बिसरे गीत की तरह बनकर रह गए हैं. कुछ हमारे लेखन के बीच अचानक से संदर्भहीन हो गए हैं. अगर किसी रात मैं उन तमाम पुरानी पोस्टों को एक-एक करके पढ़ना शुरु करुं तो ऐसा लगेगा कि हम किसी कस्बे से गुजर रहे हैं जहां कभी हमारी गली हुआ करती थी, अब वो किसी का मकान हो गया है. जिसके साथ कभी हम अक्सर लुकाछिपी खेला करते थे वो हमारी पकड़ से छूट गए हैं. ये इतिहास जैसा प्रामाणिक न होते हुए भी, उससे कम दिलचस्प नहीं है. देर रात उन सबको याद करना कभी पागलपन लगता है और कभी हाथ गर्दन की तरफ बढ़ते हैं कि कोई दुपट्टा रखा होगा कि हम भभका मारकर रोने से पहले ही उसे अपने मुंह में ठूंस लें. संभावनाओं का ऐसा एल्बम सच में कितना दिलचस्प है न. !














COMMENTS

BLOGGER: 11
  1. यही सब ब्लॉगजगत की उपलब्धि है..

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  2. आपका अंदाज़े बयां पसंद आया साथ ही बेबाकी से अपनी बात कहने का अंदाज़ निराला .

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  3. कुछ और लोग भी आपके पदचिन्हो पर चलकर यही महसूस करते हैं ब्लागिंग के लिये , लगे रहिये ऐसे ही

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  4. आपका ब्लॉगर होना ब्लागिंग को अच्छे से डिफाईन करना है !

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  5. post shirshak ko sabit kar raha hai.......


    pranam.

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  6. ब्लोगिंग के सन्दर्भ में वेबाकी से रखी गयी आपकी बातें बहुत ही अच्छी लगी ... आपका धीरे-धीरे अपने जन्मदिन की तारीख को खिसकाकर 19 सितंबर तक ले आना वाकई बहुत दिलचस्प है .

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  7. मुझे अच्छी तरह याद है साल २००९, फरीदाबाद में साहित्य शिल्पी (आदरणीय श्री राजीव रंजन जी) द्वारा आयोजित प्रथम ब्लोगर सम्मलेन में. मैंने विनीत जी को सुना था. अन्य बहुतों से वहां परिचित हुआ.
    वहां से लौटने के बाद मैंने देखा और पाया देश में कुछेक ब्लोगर हैं - एक ब्लोगर की भूमिका क्या होती है, एक ब्लोगर क्यों ब्लोगर के रूप में सम्मान पाने का अधिकारी होता है. जो सीधे सीधे कहते हैं.

    प्रस्तुति के लिए रवि भाई जी का आभार! लगे रहिये विनीत जी !

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  8. मुझे अच्छी तरह याद है साल २००९, फरीदाबाद में साहित्य शिल्पी (आदरणीय श्री राजीव रंजन जी) द्वारा आयोजित प्रथम ब्लोगर सम्मलेन में. मैंने विनीत जी को सुना था. अन्य बहुतों से वहां परिचित हुआ.
    वहां से लौटने के बाद मैंने देखा और पाया देश में कुछेक ब्लोगर हैं - एक ब्लोगर की भूमिका क्या होती है, एक ब्लोगर क्यों ब्लोगर के रूप में सम्मान पाने का अधिकारी होता है. जो सीधे सीधे कहते हैं.

    प्रस्तुति के लिए रवि भाई जी का आभार! लगे रहिये विनीत जी

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  9. रवि सर, आपकी सहृदयता का कायल हूं..आपलोगों ने जिस तरह से प्रोत्साहित किया है ब्लॉग लेखन के प्रति, उसका नतीजा है कि कई बार लगा कि छूट जाएगा लिखना लेकिन छूटता नहीं.बस कोशिश यही रहती है कि लिखने की जो धार आपलोगों से मिली है वो किसी भी हालत में बरकरार रहे.

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    1. शुभकामनाएं!
      आपके इस आत्मकथात्मक आलेख को मैं एक साहित्य सम्मेलन में पढ़ने भी जा रहा हूँ!

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छींटे और बौछारें: हिंदी ब्लॉगिंग का स्वर्णिम अध्याय : विनीत कुमार
हिंदी ब्लॉगिंग का स्वर्णिम अध्याय : विनीत कुमार
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