आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 443 ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग एक...
आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी
443
ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग
एक शिष्य ने पूछा - "ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग कठिन है या सरल?"
उत्तर मिला - "इनमें से कोई नहीं।"
शिष्य ने फिर पूछा - "ऐसा क्यों?"
"क्योंकि ऐसा कोई मार्ग है ही नहीं।"
"तो फिर कोई मनुष्य अपने लक्ष्य तक कैसे पहुंचेगा?"
"कैसे भी नहीं। यह कभी न खत्म होने वाली यात्रा है। जैसे ही तुम यात्रा करना छोड़ दोगे, पहुंच जाओगे।" - उत्तर मिला।
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यात्रा और गंतव्य - सिद्धाबरी के स्वामीजी
स्वामी चिन्मयानंद जी परम ज्ञानी, सिद्धांत-परायण एवं सदाचारी संत थे। उनका आश्रम उत्तर दिशा में बर्फीले पर्वतों पर सिद्धाबरी नामक जगह पर स्थित था। उन्होंने दिल्ली में गीता ज्ञान यज्ञ का आयोजन किया। लखनऊ के रहने वाले श्री सुरेश पंत उनके परम शिष्य बन गए थे। सुरेश एम.बी.ए. डिग्री धारक थे एवं अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कृतसंकल्प थे। स्वामी जी की ओर सुरेश चुंबकीय आकर्षण रखते थे और उनका शिष्य बनकर स्वयं संन्यासी बनना चाहते थे। उन्होंने स्वामी जी के साथ सिद्धाबरी जाने का निश्चय किया।
सिद्धाबरी से 30 किमी. पूर्व स्वामी जी कार से उतर गए और बोले - "सुरेश! आओ यहां से हम लोग पैदल चलें।" सुरेश भी कार से उतर गए और बोले - "कहां?" स्वामीजी ने उतर दिया - "आश्रम।" सुरेश ने कहा - "किंतु आप तो कह रहे थे कि यह सड़क सीधे सिद्धाबरी जाती है। तो क्यों न हम लोग कार से चलें? इससे हम लोग जल्दी पहुंच जायेंगे और मैं बिना वक्त गंवाए अपनी शिक्षा-दीक्षा शुरू कर दूंगा। स्वामी जी बोले - "चलो पैदल ही चलते हैं।" सुरेश उनके साथ चलने लगा।
स्वामी जी 65 वर्ष के थे। वे दुर्बल किंतु फुर्तीले थे। वे अपनी चहलकदमी का पूरा आनंद ले रहे थे। कुछ देर तक चलने के बाद सुरेश ऊब गए। वे एक वृक्ष के पास रुके और सुरेश ने पूछा - "स्वामी जी, यहां से आश्रम कितना दूर है?" स्वामी जी बोले - "इस पेड़ पर लगे सूबसूरत सफेद फूलों को देखो। ये कितने सुंदर हैं।" वे लोग चलते रहे और एक नदी के प्रपात के पास पहुंचे। सुरेश ने पूछा - "स्वामी जी, हम लोग सिद्धाबरी कब तक पहुंच जायेंगे?" स्वामी जी मुस्कराते हुए बोले -"सुरेश! तुमने इस जलप्रपात का संगीत सुना? कितना कर्णप्रिय है?" वे चलते रहे।
वे लोग पश्चिम दिशा की ओर बढ़ते रहे। सुरेश ने फिर पूछा - "अब आश्रम कितनी दूर है? स्वामी जी ने आँखें मटकाते हुए उत्तर दिया - "सुरेश, वो देखो सूरज अस्त होते समय कितना सुंदर लग रहा है।" सुरेश रुककर स्वामीजी को देखने लगा और विस्मय से बोला - "स्वामी जी, निश्चित रूप से कुछ गड़बड़ है। या तो मैं गलत हूं या आप। मैं आपसे जो कुछ भी पूछ रहा हूं, आप उसका सही से उत्तर नहीं दे रहे हैं।"
स्वामीजी ने सहानुभूति पूर्वक उत्तर दिया - "मेरे बच्चे! तुम सिर्फ गंतव्य की ओर ध्यान दे रहे हो और मैं तुम्हें यात्रा मनोरंजक करने के तरीके बता रहा हूं।"
यात्रा अपने आप में एक मनोरंजन है।
गंतव्य या लक्ष्य तो सिर्फ एक बिंदु है।
यात्रा के दौरान प्रत्येक चरण का आनंद लो।
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190
पाँच महंत
दक्षिण के लामा ने उत्तर के लामा को संदेश भेजा कि उनके क्षेत्र में बौद्ध धर्म के बारे में लोगों को जागरूक करने हेतु एक महंत भेज दें.
प्रत्युत्तर में उत्तर के लामा ने एक के बजाए पाँच महंत भेज दिए.
पांचों महंतों ने दक्षिण की अपनी लंबी यात्रा प्रारंभ की.
रास्ते में महंतों ने एक गांव में रात्रि बिताई. उस गांव का पादरी पिछले दिनों शांत हो गया था और गांव वासी अपने गिरिजाघर के लिए एक पादरी की तलाश कर रहे थे. पादरी की तनख्वाह अच्छी खासी थी.
पाँच में से एक महंत ने गांव के पादरी की भूमिका स्वीकार ली. उसने कहा – यदि मैं इन ग्रामीणों की आवश्यकताओं को नहीं समझूंगा और उनकी सहायता नहीं करूंगा तो मैं पक्का बौद्ध कैसे कहलाऊंगा. अतः मैं अब से इस गांव को अपनी सेवाएं दूंगा.
बाकी बचे चारों महंत आगे बढ़ चले. रास्ते में एक राज्य के राजा ने महंतों का एक रात्रि के लिए आतिथ्य किया. सुबह जब चारों चलने लगे तो राजा ने उनमें से एक महंत से कहा – आप यहीं रुक जाएं, और राज्य की न्याय व्यवस्था में अपना योगदान दें. मेरी इकलौती बेटी राजकुमारी विवाह योग्य है आप उनके लिए उपयुक्त वर प्रतीत होते हैं, उनसे विवाह कर लें. तब आप मेरी मृत्यु के पश्चात आप ही इस राज्य के उत्तराधिकारी होंगे.
उस महंत ने अपने साथी महंतों से कहा – यदि मैं राजा का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेता हूं तो मैं पूरे राज्य में अपने धर्म का डंका बजवा सकता हूँ. यदि मैं यह दायित्व नहीं स्वीकारता हूँ तो मैं पक्का बौद्ध कैसे कहलाऊंगा.
बाकी के तीन महंत आगे बढ़ चले. और कुछ इसी तरह के किस्से बाकी के अन्य दो महंतों के साथ भी हुआ और वे वहीं बीच में साथ छोड़ते गए.
अंत में एक महंत बच रहा. वह एकमात्र ही दक्षिणी क्षेत्र के लामा के पास पहुँचा.
अपने लक्ष्यों को बहुत से अन्य अतिआवश्यक (आकर्षक?) कारणों के कारण हम बीच में छोड़ देते हैं. और, कर्मकांड तो वास्तव में ईश्वर से दूर भागने का लोकप्रिय तरीका है. और आज यह सर्वाधिक फलते-फूलते उद्योग में भी शामिल हो गया है – जहाँ इनपुट न्यूनतम है और आउटपुट अकल्पनीय अधिकतम!
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एक बार में बस एक कदम
रात्रि हो चली थी. अंधकार अपना साम्राज्य फैला चुका था. एक तीर्थ यात्री चाहता था कि वह रात्रि में ही पहाड़ी स्थित मंदिर का दर्शन कर लौट आए, तो सुबह वह वापस अपने गांव जाने वाली एकमात्र गाड़ी को समय पर पकड़ लेगा.
उसने पास ही एक कुटिया में रह रहे बुजुर्गवार से पूछा कि रौशनी की कोई व्यवस्था हो सकती है क्या.
बुजुर्गवार ने अपना टिमटिमाता लालटेन उसे थमा दिया. लालटेन की लौ बेहद धीमी थी और बमुश्किल दो कदम अँधेरा छंट रहा था.
तीर्थयात्री ने बुजुर्गवार से कहा – बाबा, इस लालटेन की रौशनी तो सिर्फ दो कदम तक ही मिलती है. आगे तो अँधेरा ही छाया रहता है, और आगे दिखता कुछ नहीं.
बुजुर्गवार ने तीर्थयात्री की ओर एक गहन दृष्टि डाली और कहा – बेटे, मुझे तो नहीं लगता कि तुम एक बार में एक से ज्यादा कदम भर पाते होगे!
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(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. कहानियाँ किसे पसंद नहीं हैं? कहानियाँ आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकती हैं. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)
sundar, prernaspad kahaniyan
जवाब देंहटाएंKahani 191. great....
जवाब देंहटाएंअन्तहीन यात्रा..
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