आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 379 पुण्य कैसे मिलता है एक प्रसिद...
आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी
379
पुण्य कैसे मिलता है
एक प्रसिद्ध साधु मरने के बाद सीधे स्वर्ग पहुंचे। स्वर्ग के द्वार पर चित्रगुप्त महाराज अपना बहीखाता लिए बैठे थे। उन्होंने साधू से उनका नाम, पता इत्यादि पूछा। गर्व और घमंड से भरे हुए साधु ने कहा - "क्या तुम नहीं जानते कि मैं पृथ्वीलोक पर कितना प्रसिद्ध था?"
चित्रगुप्त ने पूछा - "अपने जीवन में तुमने क्या किया है?"
साधु ने उत्तर दिया - "अपने जीवन के पहले भाग में मैं सांसारिक रूप से सक्रिय था और मेरे मन में सभी के लिए प्रेम और अपनत्व का भाव था। जीवन के दूसरे भाग में मैंने सभी चीजों को त्याग दिया और घनघोर तपस्या की।"
चित्रगुप्त ने अपना बहीखाता खंगाला और साधु से बोले - "मेरे बहीखाते के हिसाब से तो तुमने सारा पुण्य जीवन के पहले ही भाग में अर्जित किया है, दूसरे भाग में नहीं।"
आश्चर्यचकित होकर साधु ने कहा - "यह तो मेरे कथन के विपरीत है। अपने जीवन के पहले भाग में तो मैंने सांसारिक जीवन व्यतीत किया है और दूसरे भाग में मैंने अकेले रहकर प्रभु की आराधना और तपस्या की है।"
चित्रगुप्त ने उत्तर दिया - "पृथ्वीलोक में सांसारिक बने रहने, अच्छे काम करने, सभी से प्रेम करने, और एक-दूसरे की मदद करने से ही पुण्य प्राप्त होता है। इसी कारण तुम स्वर्गलोक में आए हो।"
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जैसा हो अन्न, वैसा हो मन
भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर पड़े थे। सभी पांडव उनके नजदीक खड़े थे और युधिष्ठिर पूर्ण तन्मयता से उनके धर्मोपदेश सुन रहे थे। तभी एकाएक द्रौपदी बोली - "हे पितामह! यदि आपकी अनुमति हो तो क्या मैं आपसे एक प्रश्न कर सकती हूं?"
"हां बेटी! तुम प्रश्न कर सकती हो।" - भीष्म ने उत्तर दिया।
द्रौपदी ने कहा - "महाराज! प्रश्न पूछने के पूर्व मैं क्षमा प्रार्थी हूं। संभवतः आपको मेरा प्रश्न अच्छा नहीं लगेगा।"
पितामह ने उत्तर दिया - "मुझे तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं लगेगा। तुम जो चाहो पूछ सकती है।"
तब द्रौपदी ने कहा - "पितामह! आपको याद होगा, जब दुःशासन भरे दरबार में मेरा चीरहरण कर रहा था और मैं चीख-चीख कर रो रही थी, तब आप भी उस समय वहां मौजूद थे। मैंने आपसे सहायता की पुकार की थी। आज आप उपदेश देकर ये समझा रहे हैं कि 'धर्म क्या है'। उस समय आपका यह धर्मज्ञान कहां गया था जब एक अबला नारी को भरे दरबार अपमानित किया जा रहा था?"
भीष्म पितामह ने उत्तर दिया - "तुम ठीक कह रही हो बेटी! उस समय मैं दुर्योधन का पाप से भरा अन्न खा रहा था जिसने मेरी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया था। इसलिए उस समय मैं धर्म के मार्ग पर नहीं चल सका, यद्यपि मैं तुम्हारी सहायता करना चाहता था। अब अर्जुन के बाणों ने मेरे शरीर में से पाप से भरे दूषित रक्त को निकाल दिया है। मैं काफी दिनों से बाणों की शैय्या पर पड़ा हुआ हूं। सारा दूषित रक्त मेरे शरीर में से बह चुका है। इसीलिए मैं अब धर्म की बात कर रहा हूं।"
मनुष्य पर अन्न का यही प्रभाव होता है। जैसा हो अन्न, वैसा हो मन।
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राजा की पगड़ी
एक बार नसरूद्दीन ने एक सुंदर पगड़ी खरीदी और बड़े शान से पहन कर राजदरबार पहुँचा. उसे यह विश्वास था कि राजा जरूर उसकी पगड़ी की प्रशंसा करेगा और बहुत संभव है कि राजा उस सुंदर पगड़ी को अच्छे दामों में खरीद भी ले.
और, जैसा कि अंदेशा था, राजा ने नसरूद्दीन की पगड़ी की खूब तारीफ़ की. जवाब में नसरूद्दीन ने राजा को गर्व से बताया कि वो पगड़ी उसने हजार स्वर्ण अशर्फियों से खरीदी है.
राजा के वजीर ने राजा के कान में धीरे से कहा – कोई मूर्ख ही इतनी बेकार सी पगड़ी के लिए इतनी रकम देगा. मुल्ला हमें मूर्ख बना रहा है.
राजा को पगड़ी अच्छी लग रही थी, मगर फिर भी तसदीक के लिए मुल्ला से पूछा – तुमने इस पगड़ी के लिए इतना ज्यादा धन कैसे दे दिया. यह सुंदर तो है, मगर इतना भी कीमती नहीं.
इस पर नसरूद्दीन ने जवाब दिया – राजन्, मैंने इस पगड़ी को इतनी कीमत देकर इसलिए खरीदा कि तमाम विश्व में एक ही राजा इसकी कीमत पहचान सकता है और वो हैं आप. और इसीलिए इस पगड़ी को मैं आपकी नजर करता हूँ.
इस पर राजा प्रसन्न हो गया और उसने मुल्ला को दो हजार अशर्फियाँ ईनाम में देने का आदेश दिया.
बाद में अशर्फियाँ खनकाते हुए मुल्ला वजीर के पास पहुँचा और उसके कान में धीरे से कहा – तुम्हें पगड़ी की असली कीमत भले ही मालूम हो, मगर मुझे भी राजा की असली कमजोरी खूब पता है!
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125
दो कहानियाँ
(1)
सुमी की कक्षा वैसे तो ग्यारह बजे सुबह से शाम चार बजे तक लगती थी, परंतु वह रोज सुबह स्कूल देर से आती थी और उसकी टीचर उसे दंडस्वरूप आधा घंटा कक्षा के बाहर रखती थी. महीनों से यही क्रम चलता रहा.
एक दिन सुमी अपनी कक्षा में सही समय पर पहुँच गई. उसकी टीचर ने उससे पूछा कि आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया.
सुमी ने नम आंखों से बताया कि उसका छोटा भाई विकलांग, बीमार था. वह उसकी देखरेख तब तक करती थी जब तक कि उसकी मां काम पर से वापस नहीं आ जाती थी. मां के वापस आने के बाद ही वह स्कूल आ पाती थी. अब उसका भाई नहीं रहा. अब वो रोज समय पर स्कूल आ सकती है.
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(2)
एकलव्य में 21 प्रतिशत छात्रों को उनके फीस इत्यादि के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है. उन्हें जो भी वे भुगतान कर सकते हैं उसके लिए प्रेरित किया जाता है. पिछली फरवरी को एक परिवार मुझसे मिला और उन्होंने अपनी पूरी फीस भरने की इच्छा बताते हुए बताया – उनकी माँ को कैंसर था और उनके इलाज में बहुत खर्च हो गया था, इसीलिए वित्तीय स्थिति ठीक नहीं थी. परंतु अब परिस्थितियाँ ठीक हैं और इसलिए वे पूरी फीस भरना चाहते हैं.
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(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. कहानियाँ किसे पसंद नहीं हैं? कहानियाँ आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकती हैं. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)
जीवन में जीने से पुण्य मिल पायेगा..
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