आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 283 कटोरा धोना एक भिक्षु ने जोसु ...
आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी
283
कटोरा धोना
एक भिक्षु ने जोसु से कहा -"मैने अभी -अभी मठ में प्रवेश किया है। कृपया मुझे शिक्षा दीजिए।'
जोसू ने पूछा - "क्या तुमने चावल खा लिया?'
भिक्षु ने उत्तर दिया - "हाँ'
तब जोसू ने कहा - "तो तुम्हारे लिए अच्छा यह होगा कि तुम सबसे पहले अपना कटोरा धो।'
तब जाकर भिक्षु की आँखें खुलीं।
"जो बहुत स्पष्ट है, उसे देखना कठिन है।'
एक बेवकूफ हाथ में लालटेन लिए आग को ढूंढ रहा था।
यदि उसे आग के बारे में पता होता,
तो वह काफी पहले ही चावल पका चुका होता।
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284
उत्कंठा
एक घमंडी शिष्य अन्य लोगों को सत्य की शिक्षा प्रदान करना चाहता था। उसने अपने गुरू से मंशा जाहिर की।
गुरू ने कहा - प्रतीक्षा करो।
उसके बाद हर वर्ष वह शिष्य अपने गुरू से आज्ञा लेने पहुँच जाता और उसके गुरू एक ही उत्तर देते - "थोड़ी प्रतीक्षा करो।'
एक दिन उसने अपने गुरू से कहा - "आखिर मैं कब शिक्षा प्रदान योग्य हो पाऊँगा?'
गुरू ने उत्तर दिया -"जब तुम्हारे मन से दूसरों को उपदेश देने की उत्कंठा समाप्त हो जाए। '
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36
जैसा पद वैसी भाषा
एक बार एक राजा अपने मंत्री व अंगरक्षक के साथ शिकार पर गया. और जैसा कि कहानियों में होता है, तीनों घने जंगल में अलग हो गए और रास्ता भटक गए.
रास्ते की तलाश में राजा को एक जन्मांध साधु मिला जो साधना में रत था. राजा ने साधु को प्रणाम किया और बड़े ही आदर से पूछा – ऋषिराज, यदि आपकी साधना में विघ्न न हो तो कृपया मुझे यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता बता सकेंगे?
साधु ने रास्ता बता दिया.
कुछ देर के बाद मंत्री भी भटकता हुआ वहाँ आ पहुँचा. उसने साधु से रास्ता पूछा – साधु महाराज, इधर से बाहर निकलने का रास्ता किधर से है?
साधु ने रास्ता बताया और यह भी कहा कि राजा अभी थोड़ी देर पहले ही रास्ता पूछकर गए हैं.
अंत में भटकता हुआ अंगरक्षक भी वहाँ साधु के पास पहुँचा और भाला ठकठकाते हुए साधु से रास्ता पूछा – ओए साधु, इधर घटिया जंगल से निकलने का रास्ता तो जरा बता!
साधु ने कहा – सिपाही, तुम्हारे राजा और मंत्री भी रास्ता भटक कर इधर आए थे और अभी ही बाईं ओर के रास्ते गए हैं.
साधु का शिष्य अंदर कुटिया में यह सब सुन रहा था. उससे रहा न गया. वह बाहर आया और पूछा – बाबा, आप तो जन्मांध हैं, फिर आपने इन तीनों को ठीक ठीक कैसे पहचान लिया?
साधु ने कहा – व्यक्ति की भाषा उसका दर्पण होता है – वे अपनी वाणी से अपने व्यक्तित्व का बखान खुद ही कर रहे थे!
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37
एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है?
राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए और हथकड़ियों समेत युद्ध में जीते हुए पड़ोसी राज्य के राजा के सम्मुख पेश किए गए. पड़ोसी देश का राजा अपनी जीत से प्रसन्न था और उसने हर्षवर्धन के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा – हर्षवर्धन, यदि तुम हमारे एक प्रश्न का जवाब हमें लाकर दे दोगे तो हम तुम्हें तुम्हारा राज्य वापस लौटा देंगे, अन्यथा उम्र कैद के लिए तैयार रहें. हमारा प्रश्न है – एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है? इसके लिए तुम्हारे पास एक महीने का समय है.
हर्षवर्धन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. वे जगह जगह जाकर विदुषियों, विद्वानों और तमाम घरेलू स्त्रियों से लेकर नृत्यांगनाओं, वेश्याओं, दासियों और रानियों, साध्वी सब से मिले और जानना चाहा कि एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है. किसी ने सोना, किसी ने चाँदी, किसी ने हीरे जवाहरात, किसी ने प्रेम-प्यार, किसी ने बेटा-पति-पिता और परिवार तो किसी ने राजपाट और सन्यास तक की बातें कीं. मगर हर्षवर्धन को सन्तोष न हुआ.
महीना बीतने को आया और हर्षवर्धन को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. किसी ने सुझाया कि दूर देश में एक जादूगरनी रहती है, उसके पास हर चीज का जवाब होता है. शायद उसके पास इस प्रश्न का भी जवाब हो. हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धराज के साथ जादूगरनी के पास गए और अपना प्रश्न दोहराया.
जादूगरनी ने हर्षवर्धन के मित्र की ओर देखते हुए कहा – मैं आपको सही उत्तर बताऊंगी परंतु इसके एवज में आपके मित्र को मुझसे शादी करनी होगी.
जादूगरनी बुढ़िया तो थी ही, बेहद बदसूरत थी. उसके बदबूदार पोपले मुंह से एक सड़ा दाँत झलका जब उसने अपनी कुटिल मुस्कुराहट हर्षवर्धन की ओर फेंकी.
हर्षवर्धन ने अपने मित्र को परेशानी में नहीं डालने की खातिर मना कर दिया. सिद्धराज ने एक बात नहीं सुनी और अपने मित्र के जीवन की खातिर जादूगरनी से विवाह को तैयार हो गया.
तब जादूगरनी ने उत्तर बताया – स्त्रियाँ, स्वयं निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं.
यह उत्तर हर्षवर्धन को कुछ जमा. पड़ोसी राज्य के राजा ने भी इसे स्वीकार कर लिया और उसने हर्षवर्धन को उसका राज्य लौटा दिया.
इधर जादूगरनी से सिद्धराज का विवाह हो गया. जादूगरनी ने मधुरात्रि को अपने पति से कहा – चूंकि तुम्हारा हृदय पवित्र है और अपने मित्र के लिए तुमने कुरबानी दी है अतः मैं चौबीस घंटों में बारह घंटे तो रूपसी के रूप में रहूंगी और बाकी के बारह घंटे अपने सही रूप में. बताओ तुम्हें क्या पसंद है?
सिद्धराज ने कहा – प्रिये, यह निर्णय तुम्हें ही करना है. मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया है, और तुम्हारा हर रूप मुझे पसंद है.
जादूगरनी यह सुनते ही रूपसी बन गई. उसने कहा – चूंकि तुमने निर्णय मुझ पर छोड़ दिया है तो मैं अब हमेशा इसी रूप में रहूंगी. दरअसल मेरा असली रूप ही यही है. बदसूरत बुढ़िया का रूप तो मैंने अपने आसपास से दुनिया के कुटिल लोगों को दूर करने के लिए धरा हुआ था!
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(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)
सच है, बहुत ऐसे हैं जो लालटेन की रोशनी में आग ढूढ़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआडम्बरहीन एक सच्चा गुरू…
जवाब देंहटाएंEzinemart.com- is web site se mujhay pratiyogita darpan k kuch page prite karne hai koi tarika ho to batao pahle khud try kar k dekhna .......aap mere question ka ans yes ya no me jaroor de ..........i wait your ans.........thx
जवाब देंहटाएंNice Blog
जवाब देंहटाएंvery nice blog
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