# व्यंग्य की जुगलबंदी 119 नेतृत्व की क्षमता पूत के पांव पालने में ही दिखाई देते हैं, यह बात नेतृत्व की क्षमता में भी लागू होती है. वर्तमान म...
# व्यंग्य की जुगलबंदी 119
नेतृत्व की क्षमता
पूत के पांव पालने में ही दिखाई देते हैं, यह बात नेतृत्व की क्षमता में भी लागू होती है. वर्तमान में एक बड़ा, भारी भरकम नेता हमारा सहपाठी था, प्राथमिक कक्षा में. एक दिन उसने हमारे जैसे तीन चार सीधे साधे लोगों को पकड़ा और बोला चलो बे, चोरी करते हैं. जब दोपहर खाने की छुट्टी होगी, तो साथी विद्यार्थियों के, जिनके घरवाले अमीर थे और अपने अपने झोलों – हाँ, तब आधुनिक जमाने का थैफ़्ट-प्रूफ़ बैक-पैक नहीं होता था, केवल किसिम किसिम आकार प्रकार और रंगों के झोले होते थे – में उस जमाने की महंगी और नायाब चीजें रखकर लाते थे जिनमें चना चबेना जैसी चीजें भी होती थीं, और उस जमाने में भी वे बड़ी विलासिता की वस्तुएँ होती थीं.
ख़ैर, हमने उनके नेतृत्व में चार छः बस्तों की चोरी की, और बरामद सामान स्कूल के पीछे स्थित खेतों की मिट्टी में दबा दिया. ताकि जब मामला ठंडा हो जाएगा, तब माल दरयाफ़्त कर लेंगे और हम चार चोरों में आपस में बांट लेंगे. आधुनिक राजनीति इसी सिद्धांत पर निकली है लगता है. परंतु हुआ क्या? या तो हम चारों में से किसी ने गाना गा दिया या फिर कोई पांचवां रहा होगा, जिसे मिनिस्ट्रियल बर्थ नहीं मिली तो उसने पार्टी से बगावत कर दी. जो भी हो, भांडा फूट गया, और हम तीनों ने बिना किसी लाग लपेट के अपने नेता पर उंगली उठा दी – गुरूजी, इसके कहने पर ही हम साथ गए थे इसके और इसने जो हमें कहा हमने वही किया. आलाकमान की आधुनिक राजनीतिक परिकल्पना कितनी बेहतर है, यह सब जानते हैं, मगर इसकी जड़ें भी मनुष्य के भीतर उसके बचपन में ही पड़ जाती हैं और वो भी नेतृत्व – सक्षम नेतृत्व की बिना पर.
ऐसा नहीं है कि हमने नेतृत्व निभाने में कोई कोताही की हो और हर हमेशा नेतृत्व के पीछे हाथ बांध कर खड़े रहे हों. हर आदमी में यदा कदा नेतृत्व का फन कभी जोर मारकर उभरता है तो वो या तो सक्षम आलाकमान के द्वारा पूरी सक्षमता से कुचल-कुचला दिया जाता है, अथवा वो स्वयं अपनी मौत मर जाता है. आखिर दस लोगों के दल में दसों नेतृत्व तो होगा नहीं. एक होगा. बाकी नौ तो कुचले ही जाएंगे – ऐन कैन प्रकारेण. तो, स्कूल की ही बात बताता हूँ, एक बार हमारे कक्षा शिक्षक की कुर्सी टूट गई. टूटी कुर्सी पर शिक्षक बैठ कर हमें कैसे पढ़ाए भला. तो मैंने अपने साथ के तीन चेलों से कहा – चलो रे, शाला के आफिस में दर्जन भर नई कुर्सियाँ आई हैं, अपने गुरु जी के लिए एक ले आते हैं. कुर्सी तो ले आए, बताए किसी को नहीं, क्योंकि बताते तो कौन लाने देता. फिर कुर्सी की खोजबीन हुई. कोई अपनी कुर्सी यों ले जाने देता है क्या? आधुनिक राजनीतिक तंत्र में सारा लफड़ा और सारा झगड़ा कुर्सी का है. तो लफड़ा और झगड़ा होना ही था. ग़ायब कुर्सी के लिए खूब खोज मची. और वो जब जब्त हुई तो नेतृत्व को खड़ा कर दिया गया. जवाबदारी के लिए. और, जो सजा तब मिली, उसके बाद से हमारी नेतृत्व क्षमता पर सदा सर्वदा के लिए प्रश्न चिह्न तो लगा ही, नेतृत्व की धार सदा के लिए भोथरी भी हो गई.
नौकरी में भी सदा नेतृत्व का मुंह ताकते रहे. कोई डिसीजन लेना हो, कोई पर्चेसिंग करनी हो, किसी का ट्रांसफर या पोस्टिंग करना हो, सदा नेतृत्व की ओर देखा. बॉल सामने वाले की कोर्ट में रखी. मेमो में एक छोटा सा नोट मारा- नेतृत्व से इस संबंध में स्पष्ट निर्देश मांगा जाता है – और भेज दिया अगले के पास. अब स्वीकृति मिले या मामला राम-मंदिर की तरह सदियों से लटके रहे, हमें क्या! सुलटना तो नेतृत्व को है. बीच में जब बिजली कटौती होने लगी थी, तो जब कार्यालय में विरोध स्वरूप, हलाकान-परेशान जनता का घेराव होता था, जुलूस चला आता था, तब हम चतुराई से जुलूस का मुंह हम हमारे नेतृत्व प्रदाताओं यानी हमारे सीनियर अफ़सरों की तरह मोड़ देते थे. कुछ होशियार सीनियर अफ़सर प्रदेश के नेतृत्व की तरफ इशारा कर देते. कहते हैं कि इसी बिना पर प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व तक बदल गया. शीर्ष नेतृत्व का तो यूँ है कि अगर अच्छे दिन हैं, तो पैर आसमान पर, और बुरा समय है तो जमीनी कार्यकर्ता का जूता भी सिर पर! हाँ, भारत में कुछ सरनेम धारी, खानदानी व्यक्तियों पर यह लागू नहीं होता. आप पूछेंगे कि कौन? तो बताता चलूं कि डेढ़ समझदार को बहुत बड़ा इशारा भी बहुत नाकाफी होता है.
मेरे विचार में नेतृत्व करने के बजाए नेतृत्व के पीछे चलने, बल्कि उसके पीछे भागने में ज्यादा फ़ायदा, ज्यादा मजा है. कोई जवाबदेही नहीं, और मौसम का पूरा मज़ा. क्या कहते हैं आप?
कोई जवाबदेही नहीं, और मौसम का पूरा मज़ा. ...वैसे हम नेतृत्व का आनंद लेने के आदी हैं तो ...स्वभाव फरक हो गया है उम्दा आलेख.
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