साहित्य जगत् के कास्टिंग काउच

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जब मैंने कोई पाव दर्जन से अधिक पांडुलिपियाँ लिख मारीं तो लगा कि इन्हें पूरी दुनिया के पाठकों तक पहुँचाने का अप्रतिम कार्य तो कर ही देना चाहि...

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जब मैंने कोई पाव दर्जन से अधिक पांडुलिपियाँ लिख मारीं तो लगा कि इन्हें पूरी दुनिया के पाठकों तक पहुँचाने का अप्रतिम कार्य तो कर ही देना चाहिए. यूँ तो आजकल तमाम सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफ़ॉर्म हैं जहाँ आप जैसे ही साहित्यिक-गैर-साहित्यिक किस्म की उल्टी करते हैं, मित्र-अमित्र लोग पोंछने फैलाने में लग जाते हैं, मगर उसमें वो मजा नहीं है जो प्रिंट की दुनिया में है. पांडुलिपि है, तो उसे हार्ड या साफ्ट बाउंड या पेपर-बैक किताब के रूप में तो आना ही चाहिए. यही उसका अंतिम, असल निर्वाण है. ईबुक-फ़ीबुक या किंडल-शिंडल मोबी आदि तो नए जमाने के चोंचले हैं, और चोंचले ज्यादा चलते नहीं. खासकर हिंदी पट्टी में. हिंदी पट्टी में तो कंप्यूटर कीबोर्ड से खटकाकर लिखा गया माल भी वैसे नहीं चलता है, खालिस रोशनाई वाले पार्कर या शेफर्स पेन से, एक्ज़ीक्यूटिव बांड में लिखा गया माल ही असल होता है. ये बात दीगर है कि पाठक या प्रकाशक इसे कूड़ा करार दे दे.

बहरहाल, बात मेरी पांडुलिपियों के प्रकाशन की हो रही थी. एक दिन मैं अपनी प्राणों से प्यारी इन पांडुलिपियों को बगल में दबाए एक प्रकाशक के दफ़्तर में गया. प्रकाशक बड़ा प्रयोगवादी किस्म का था और आनन फानन में किताबें छापता था, खासकर नए, नवोन्मेषी, अजनबी, अप्रकाशित किस्म के लेखकों की किताबों को. इस क्षेत्र में उसका खासा नाम भी था. मैं भी कौन सा स्थापित था – मैं भी नया था, मेरी पांडुलिपियाँ नवोन्मेषी थीं, कुल जमा अब तक अप्रकाशित ही बना रहा था मैं.

प्रकाशक का दफ़्तर बड़ा फां-फूं किस्म का था. एक तरफ सुपर किंग साइज एक्ज़ीक्यूटिव टेबल और कुर्सियाँ लगी हुई थीं. उसके सामने की तरफ सुपर लंबा-चौड़ा काउच था जिसमें कई लोग समा सकते थे, उस पर प्रकाशक विराजमान था और इतालवी रोस्टेड चेस्टनट खा रहा था. मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा, प्रकाशक की आँखों से मेरी आँखें मिलीं तो उनकी आँखों में मुझे जाने क्यों हिकारत उभरती हुई दिखी. फिर उनकी निगाहें मेरी बगल में दबी पांडुलिपियों पर गईं, तो उनकी नजर में चमक सी उभरी और वो बंदा तत्काल उठ खड़ा हुआ मेरे स्वागत को. उसने बाहें फैलाकर मेरा इस तरह स्वागत किया जैसे कि वो मेरा सदियों से इंतजार कर रहा था.

- कहिए लेखक महोदय कैसे आना हुआ? प्रकाशक बोला. उसकी आशा भरी निगाहें मेरी पांडुलिपियों पर चिपकी हुई थीं.

उसने मुझे जबरन, धकेल कर काउच पर अपने बगल में बैठाया. मुझे लगा कि वो मेरी पांडुलिपियों का अपहरण कर लेगा और तुरंत किताब छाप डालेगा. आशंका – कुशंका के बीच पांडुलिपियों पर मेरी पकड़ और मजबूत हो गई.

- जी, मैं अपनी कुछ पांडुलिपियाँ लाया हूँ, उन्हें प्रकाशित करवाना चाहता हूँ. अनौपचारिक होते हुए, मैंने अपने मतलब की बात सीधे कह ही डाली.

मुझे महसूस हुआ कि प्रकाशक के मन में खुशियों के लड्डू फूटे. प्रकटतः उसके चेहरे से लग रहा था कि एक और मुर्गा फंसा. मगर वह अपनी खुशियों को दबाते हुए बोला –

- जी, जरूर. हम इसीलिए तो बैठे हैं. हमारा काम ही यही है. आपकी सेवा करना. पर, पहले ये बताइए कि आप क्या लेना पसंद करेंगे? ठंडा या गर्म?

- जी, कुछ नहीं. खांटी लेखकों को न ठंडा पचता है, न गर्म. दरअसल, उन्हें इनकी आदत ही नहीं रहती. मैंने सकुचाते हुए कहा.

- चलिए, कोई बात नहीं. तो आप अपनी पांडुलिपियों की कितनी प्रति छपवाना चाहते हैं? प्रकाशक भारी उतावला हो रहा था, जो उसकी बातों से झलक रहा था.

- जी, मैं कुछ समझा नहीं.... मार्केट और उसकी डिमांड-सप्लाई के बारे में तो आपको बेहतर पता होगा. वैसे मेरी पांडुलिपियाँ मौलिक विषयों की अति-मौलिक किस्म की कविताओं की नई विधा की हैं, जिसमें भारतीय सामाजिक न्याय, समकालीन सामाजिक समस्याएँ आदि पर बल है....

- भई, हम तो रेल्वे टाइम टेबल भी आपके नाम से छाप देंगे. हमें आपकी पांडुलिपि, उसकी सामग्री, मौलिकता-फौलिकता, विधा-अविधा आदि से कोई लेना देना नहीं. आप बताएँ कि कितनी प्रतियाँ छपवानी है, ताकि कास्टिंग तय की जा सके. प्रकाशक अब सचमुच अधीर हो रहा था.

- कास्टिंग? मेरे मुंह से निकला. मैं अब हड़बड़ाया अकबकाया हुआ था.

- जी, हाँ, कास्टिंग. सीधा-सीधा गणित है. 100 पेज की पुस्तक की 250 प्रति छपवाएंगे तो आपको पचीस हजार देने होंगे और 500 छपवाएंगे तो पचास हजार.

- मगर, किताब की रायल्टी तो प्रकाशक देता है. आप तो लेखक से ही मांग रहे हैं...?

प्रकाशक दानवी हँसी हँसा. उसे लगा कि ये कौन भोला, मासूम, अज्ञानी किस्म का लेखक आ गया है आज का दिन खराब करने. उसने मुझे गुस्से से गेटआउट कहा. मगर मैं प्रकाशक के सामने काउच पर धंसा का धंसा रह गया था. पांडुलिपियाँ मेरे चारों ओर इर्द-गिर्द मंडरा रही थीं और रहम की भीख मांग रही थी. कास्टिंग इतनी ज्यादा भी तो नहीं थी, और साहित्य जगत् का दस्तूर भी तो यही था.

अगले महीने मेरी तीन किताबें एक साथ प्रकाशित हुईं. धूम धड़ाके से कई-कई विमोचन हुए. सोशल मीडिया पर हफ़्तों सनसनी बनी रही. जितनी तो किताबें नहीं छपीं, उससे कहीं ज्यादा किताबों के रीव्यू छपे. हर जगह, हर प्लेटफ़ॉर्म पर किताबों की प्रसंशापूर्ण समीक्षाएँ छपीं. एकबारगी तो मुझे भी लगने लगा था कि नोबुल न सही, इस बार का बुकर तो कहीं नहीं गया है!

सुना है बाजार में कुछ नए प्रकाशक आ गए हैं. मेरी अगली पाव दर्जन पांडुलिपियाँ भी तैयार हो चुकी हैं.  जल्द ही आपको खुशखबरी मिलेगी.

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छींटे और बौछारें: साहित्य जगत् के कास्टिंग काउच
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