ग्लोबलाइज़ेशन और इंटरनेशनलाइज़ेशन के चक्कर में भाषाएँ गड्ड मड्ड होती जा रही हैं. खासकर भारत में! और, सबसे ज्यादा गड्ड मड्ड अंग्रेज़ी-हिंदी...
ग्लोबलाइज़ेशन और इंटरनेशनलाइज़ेशन के चक्कर में भाषाएँ गड्ड मड्ड होती जा रही हैं. खासकर भारत में!
और, सबसे ज्यादा गड्ड मड्ड अंग्रेज़ी-हिंदी हो रही है.
कहीं हिंग्लिश (हिंदी में इंग्लिश ) दिखता है, कहीं रोहिंदी (माने रोमन हिंदी). शुद्ध हिंदी तो आजकल दिखती ही नहीं.
नीचे चित्र में जो भाषा नजर आ रही है, वह एक बहुत पड़े ब्रांड के नई कार के आज के विज्ञापन की हिंदी भाषी अखबारों की है. वैसे, इस विज्ञापन को हिंदी में जारी कर हिंदी भाषियों पर एक तरह से एहसान किया गया है, इसकी शायद जरूरत ही नहीं थी. ये डॉयलाग शायद ठीक रहता - एक अहसान करना कि कोई अहसान न करना.
पर, शायद इससे भला ही हो गया है. इस एहसान में एक नई भाषा खोज ली गई है.
देवलिश - देवनागरी-इंग्लिश.
नमूना आपने शायद पहले ही देख लिया हो -
यह नई भाषा तो वाकई लाजवाब है. दमदार है. ट्रूली इंटरनेशल अपील है. मास एडॉप्टिबिलिटी की पूरी संभावना है. सरल सहज तो इतनी है कि अनपढ़ भी इसे सहजता से स्वीकार लें. ऐसी सुंदर सहज सरल भाषा आखिर बीसवी सदी में ही तो खोजी जा सकती थी, वो भी भारत भूमि पर.
शायद अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में भी आज इसी तरह की खोज हुई हो - तमिल मलयाली तेलुगु मित्र बताएँ!
नई भाषा देवलिश (या, आप कोई नया अन्य नाम देना चाहें?) के उत्तरोत्तर विकास, प्रचार प्रसार और खूब फलने-फूलने के लिए शुभकामनाएँ!
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