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एक और यात्रा संस्मरण

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  बहुत से लोग यात्रा संस्मरण लिखते हैं. बीहड़ जंगलों में जाते हैं और वहाँ के संस्मरण लिख मारते हैं. कई पश्चिमी, विकसित देशों की यात्रा करत...

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बहुत से लोग यात्रा संस्मरण लिखते हैं. बीहड़ जंगलों में जाते हैं और वहाँ के संस्मरण लिख मारते हैं. कई पश्चिमी, विकसित देशों की यात्रा करते हैं और अमेरिका, पेरिस और स्विटजरलैंड जैसे खूबसूरत देशों के उतने ही खूबसूरत, मगर आधे-अधूरे यात्रा संस्मरण लिखते हैं. आधे-अधूरे का अर्थ वे लोग भली प्रकार जानते हैं जिन्होंने ऐसे देशों के अपने यात्रा संस्मरण लिख मारे हैं. इधर, भारत के बहुत से लोग मलेशिया, सिंगापुर और बैंकाक की यात्राएं करने लगे हैं, मगर उनमें से अधिकांश अपने यात्रा संस्मरण नहीं लिखते. अब भई बहुत सी यात्राएं केवल स्वयं के संस्मरण के लिए भी तो होती हैं, सार्वजनिक लिखने बताने के लिए नहीं, और उनके सार्वजनिक होने पर स्वयं व आसपास के जीव-जगत में तूफान उठ खड़ा होने का डर बना रहता है.

बहुत दिनों से मैं भी एक अदद यात्रा संस्मरण लिखने के चक्कर में था. परंतु मेरे साथ बडी विकट समस्या थी. कोई यात्रा हो ही नहीं रही थी. अरसे से मैंने कोई यात्रा ही नहीं की थी. विश्वस्तरीय तो दूर की बात है, स्थानीय, मोहल्ला स्तरीय सम्मेलनों में भी एक अरसे से अतिथि के रूप में मुझे बुलाया नहीं गया तो मेरी यात्रा भी एक अरसे से नहीं हुई. मगर, जब फैशन में हो तभी भेड़चाल में चलना चाहिए. टाइट जींस के जमाने में बेलबॉटम पहनेंगे तो आप सब को बिना चुटकुले सुनाए हँसाने का प्रयास ही करेंगे. तो, अब जबकि यात्रा संस्मरण लिखने का टाइम है, मैं फ़ोकटिया, अव्यंग्य किस्म का व्यंग्य या घोर अपठनीय, अमौलिक किस्म की कहानी लिखकर अपने लेटेस्ट लैपटैब के कीबोर्ड को घिसना नहीं चाहता, कि जिससे लोगों का मुझपर हँसने का एक और मौका मिल जाए.

जहाँ चाह वहाँ राह. अचानक मुझे याद आया कि कल ही तो मैं सब्जी खरीदने, अपने घर से न्यूमार्केट (कृपया ध्यान दें, न्यूयॉर्क नहीं, न्यूमार्केट मेरे शहर का स्थानीय बाजार है, जिसका केवल नाम आधुनिक और रोमन टाइप है) तक की यात्रा पर गया था. वह अनुभव भी गजब का था – किसी भी घनघोर, बीहड़ जंगल की यात्रा से ज्यादा रोमांचक और किसी भी पश्चिमी देश की यात्रा से अधिक दिलचस्प! और ऐसा कि अंदर-बाहर का सारा अनुभव, सारा संस्मरण निचोड़ कर यहीं रख दूं!

तो, लीजिए पेश है न्यूमार्केट तक की गई मेरी एक रोमांचक, दिलचस्प यात्रा का संस्मरण –

जब मैं भरपूर तैयारी कर, सब्जी खरीदने, बाजार की ओर निकलने को उद्यत हुआ तो पत्नी ने टोका – एक थैला तो साथ में रख लो. मैंने उस नसीहत को हिकारत से नजरअंदाज कर दिया क्योंकि यदि मेरे जैसे लोग थैला साथ रख कर खरीदारी करेंगे तो बेचारी भारतीय गाएं तो भूखी मर जाएंगी. उन्हें पॉलीथीन की थैलियाँ खाने को कहाँ मिलेंगी? कौन उन्हें पॉलीथीन की थैलियाँ खरीदकर खिलाएगा? और, रंगबिरंगी पॉलीथीन की थैलियों में सब्जियाँ खरीदकर लाने का आनंद भी तो अलग है.

घर से निकल कर मैं वहाँ आ गया जिसे मुख्य सड़क कहा जाता है, जहाँ आधी सड़क पर वाहनों की बेतरतीब पार्किंग और बाकी आधे पर बेतरतीब वाहनों की रेलमपेल. सड़क पर सामने स्वच्छता अभियान का बड़ा सा नय़ा नकोर बिलबोर्ड लगा दिखा. स्वच्छ भारत सुंदर भारत. कुछ लोग आनन फानन में आसपास की बची खुची अगल बगल की दीवारों पर वही नारे पोतने में व्यस्त थे – स्वच्छ भारत सुंदर भारत. लगता है ठेकेदार का नया टेंडर पास हो गया था और रंगने-पोतने, बिलबोर्ड लगाने का वर्कऑर्डर जारी हो गया था. बिलबोर्ड के नीचे नगर निगम का कचरा पेटी शायद सदियों से, जैसे का तैसा रखा हुआ था – आधा खाली या आधा भरा – अपनी सुविधा और सोच से जो भी कह लें, और उसके इर्दगिर्द सारे शहर का कचरा फैला हुआ था. नारा लिखते-लिखते पेंटर को कुछ प्राकृतिक आवश्यकता महसूस हुई और उसने वहीं उस नए नारे पुते दीवार की ओट लेकर प्राकृतिक यूरिया से उस नए लिखे नारे को और स्वच्छ, और पवित्र करने का काम करने लगा. पत्नी के दिए हिदायत का सम्मान करते हुए मैंने भी अपने साथ लाए कचरे से भरे पॉलीथीन के थैले को वहीं कचरा पेटी के पास फेंका और आगे बढ़ चला.

मैं थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि अचानक मेरे मुंह-हाथों में कुछ पानी के छींटे पड़ने जैसा महसूस हुआ. दूर-दूर तक बादलों का नामोनिशान नहीं था, फिर यह बिन-बादल बरसात? बात कुछ हजम नहीं हुई. पर, मामला तुरंत ही समझ में आ गया. एक महाशय गुटका खाते हुए मोटरसायकल पर चले आ रहे थे और सड़कों पर थूक की बरसात करते चले जा रहे थे. आदमी गुटका खाएगा तो थूकेगा ही. ये सरकार बड़ी निकम्मी है. गुटका खाने वालों का इतना खयाल ही नहीं रखती कि हर दस कदम पर एक-एक थूकदान रखवा दे, नहीं तो क्या लोग सड़कों के बजाय अपनी जेबों में थूकें!

थोड़ा आगे चला तो आगे सड़क जाम मिला. हर आदमी आगे निकलने के होड़ में लगा हुआ था, और जाम को और बड़ा, महा जाम बनाने में अपना संपूर्ण योगदान दे रहा था. मेरे पीछे आने वाले ने प्रेशर हॉर्न का बटन इतना और ऐसा दबाया कि लगा जाम उस हॉर्न की ध्वनि के प्रभाव से स्वयं साफ हो जाएगा, मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं, और शायद हॉर्न बजाने वाले को भी हॉर्न के अप्रभावी होने का अहसास हो गया जो उसने हॉर्न बजाना बंद कर दिया. वैसे भी, उसकी तरह कई दूसरे, बल्कि सभी हॉर्न पे हॉर्न बजाए जा रहे थे. मगर, टेक्नॉलॉजी अभी शायद उतनी उन्नत नहीं हुई है कि हॉर्न दे मारने पर जाम स्वचालित हट जाए, या कोई जादुई रास्ता निकल जाए. भारत के लिए ऐसी किसी खोज की बहुत जरूरत है.

तरह-तरह के वाहनों के उतने ही तरह के हॉर्न की रिद्मिक आवाजों से पूरा वातावरण संगीतमय हो रहा था और जनता ट्रांस में जाने को उद्यत थी. कुछ नौवजवानों ने अपने मोबाइक के साइलेंसर को उखाड़ फेंका था, जिससे वातावरण में शिवमणि के ड्रम बीट्स जैसा जादुई इफ़ेक्ट आ रहा था. मनोरंजन के लिए जनता को कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं. और, शायद जाम भी इसी वजह से था. कोई वहां से हिलने को तैयार ही नहीं था. उधर दूसरे कोने पर यातायात पुलिस बाकायदा चालान काटने में व्यस्त थी. उनके ऑफिस में हाल ही में कुछ ट्रांसफ़र पोस्टिंग हुए थे और वसूली के कई तरह के टॉरगेट – कुछ सेल्फ और कुछ ऊपर से आए - तय किए गए थे, जिसे पूरा करने में वे बेहद गंभीरता और ईमानदारी से व्यस्त थे.

पाँच मिनट के रास्ते को कोई पचास मिनट में तय कर अगले चौराहे पर पहुँचा तो पाया कि चौराहे पर लगे सिग्नल की आधी बत्तियाँ या तो टूटी हैं और या मालफंक्शन कर रही हैं. और बेपरवाह, बेफिक्र जनता, जो वैसे भी इन लाल-हरी बत्तियों की कोई परवाह नहीं करती, अपनी सहूलियत से एक दूसरे का ओवरटेक करती हुई चली जा रही थी. नजारा बेहद ही रोमांचक और सस्पेंस भरा था. इतना रोमांचक और सस्पेंस भरा कि मैट्रिक्स फिल्म का क्लाइमेक्स भी फेल हो जाए. चौराहे पर वाहनों की आवाजाही में इतना अविश्वसनीय पेंच था जितना कि टर्मिनेटर सीरीज की ताजातरीन फ़िल्म भी फेल खा जाए. दरअसल इस नई फिल्म टर्मिनेटर जेनेसिस के पिटने की एक वजह यह भी बताई जाती है. लोगों को टर्मिनेटर जेनेसिस के बजाए यूट्यूब पर इस चौराहे के यातायात के आधे घंटे के अपलोडेड क्लिप को देखने में ज्यादा आनंद, ज्यादा रोमांच आया और टर्मिनेटर यूं टर्मिनेट हो गया.

चहुँ ओर से आ रहे वाहनों के बीच में से निकलने के रोमांच और कहीं भी कोई भी कभी भी मुझे न ठोंक दे इस सस्पेंस को जीवंत अनुभव करते हुए मैं इस चौराहे से आगे बढ़ा तो दिखा कि रास्ते पर एक किनारे वाहनों की भीड़ खड़ी है. पास जाकर देखा तो पाया कि एक कोई बीस साल पुराने खटारा किस्म के वैन पर एक पोस्टर चिपका था – चलित वाहन प्रदूषण जाँच व प्रमाणन केंद्र. वहाँ ऑटो वाले, जिनके पेट्रोल चलित ऑटो से मिट्टी तेल की सुगंध आ रही थी और वे सभी घनघोर काला धुआँ छोड़ रहे थे, प्रदूषण जाँच प्रमाणन केंद्र चलाने वाले से बहस कर रहे था कि वो बिना किसी जांच पड़ताल के केवल सील ठप्पे लगाकर कागज का एक पुर्जा थमाने के बदले बीस रुपए किस बिना पर ले रहा था. मुझे अपने शहर के प्रदूषण में भले दिलचस्पी न हो, मगर इस बहस में दिलचस्पी पैदा हो रही थी और मैं भी मजमा लगाने वालों में शामिल हो गया था. मगर जल्द ही वहाँ खड़े ऑटो के निरंतर चलित इंजनों - जिसे अगली बार शायद चालू न हो के भय से चालू रखे गए थे – से निकलते धुएं से मुझे खांसी होने लगी और मैं मन मसोसता हुआ उस शानदार बहस, जिसके सामने टाइम्स नाऊ के अर्नब की बहसें भी पानी भरें, को छोड़ कर आगे बढ़ चला...

>>> क्रमशः अगली किश्तों में जारी*...

*केवल तभी, जब आप पाठक चाहें J

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. वाह । अनोखा और व्यंग्यात्मक यात्रा संस्मरण । ऐसा पहले कभी नही पढा बधाई

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