दुःखी, क्रोधित, बेजार, परेशान दिखाई देते रहकर आखिर आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं? बात भले ही बहुतों के गले न उतरे, मगर ये तो सिद्ध हो ही गया...

दुःखी, क्रोधित, बेजार, परेशान दिखाई देते रहकर आखिर आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
बात भले ही बहुतों के गले न उतरे, मगर ये तो सिद्ध हो ही गया है. खुशियाँ यूँ ही आपके पास चली नहीं आतीं. खुशियाँ पाने के लिए आपको अपने बाल सफेद करने होते हैं. और यदि आप मेरी तरह के हुए, तो, अच्छे खासे बाल खोने भी पड़ते हैं.
वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का तो काम ही यही है. चंद सेंपल ले लिया, उस पर जमकर अध्ययन कर डाला, निरीक्षण पत्रक बनाया, और दन्न से निष्कर्ष निकाल लिया. इसी बिना पर अब वे कहते हैं कि उम्र के साथ साथ आदमी ज्यादा खुश होता जाता है – यानी वो ज्यादा खुश होता है बनिस्वत अपने पहले के उम्र के.
तो क्या हमारे जैसे लोगों को, जो अपने जीवन के अर्ध शती की ओर तेजी से दौड़ लगा रहे हैं, इस निष्कर्ष को पढ़ कर ज्यादा खुश होना चाहिए कि भइए, अब हम भी ज्यादा खुश रहने लगे हैं. पर, फिर साठ-सत्तर वाले नहीं कहेंगे - मूर्खों, ज्यादा खुश मत हो, यह अधिकार हमारा है. अभी तो हम ज्यादा खुश हो रहे हैं. तुम्हें उस स्तर तक पहुँचने में दस-पंद्रह बसंत और पार करने होंगे.
और, युवा? क्या वे यह सोच सोच कर दुःखी न हो रहे होंगे कि वो चाहे कितना भी प्रयास कर लें, दुनिया की तमाम जहमतें उठा लें, आकाश से श्याम विवर तोड़ लाएँ, प्रसन्नता उनके खाते में तो नहीं ही आनी है – वो तो बड़े बूढ़ों की अमानत है? और बूढ़े ये सोच कर खुश हों कि तुम जवान छोरे, चाहे जितना प्रयास कर लो, हमारे जैसे खुश तो तुम %$#@ कभी भी नहीं हो सकते. थोड़ा ठंड रखो, जरा इंतजार करो, तनिक बुढ़ापा लाओ, और फिर देखो खुशियाँ खुद ब खुद आपके पास चुटकी में यूँ कैसे चली आती हैं.
मैं हमेशा से ही ज्यादा से ज्यादा खुश होना चाहता रहा हूं, पर बूढ़ा कभी नहीं. आज पहली बार इस शोध नतीजे ने मेरे मन के भीतर एक नई आस जगाई है. मैं जल्दी से जल्दी बूढ़ा, और ज्यादा बूढ़ा हो जाना चाहता हूं. ताकि मैं ज्यादा, और ज्यादा खुश रह सकूं.
क्या आप भी खुश नहीं होना चाहते? ज्यादा खुश?
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व्यंज़ल
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कहते हैं खुशी में इक उम्र का हाथ है
मेरे दुखों में न जाने किस का हाथ है
अजब किस्सा है मेरी इन झुर्रियों का
वक्त से पहले पड़ीं तो वक्त का हाथ है
मैंने कभी समझा नहीं गुनहगार उसे
जमाना भले समझे उसी का हाथ है
पता चला है कि मेरे शहर के दंगों में
यारी दोस्ती व रिश्तेदारी का हाथ है
कैसे स्वीकारे रवि अपनी बदहाली में
उसका अपना कितना खुद का हाथ है
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(समाचार कतरन - साभार टाइम्स ऑफ इंडिया)
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