दैनिक भास्कर उज्जैन के आज (गुरूवार 20 दिसंबर 2007) के संस्करण में यूनुस खान (जी हाँ, अपने रेडियोवाणी वाले) की निम्न कविता प्रकाशित हुई है – ...
दैनिक भास्कर उज्जैन के आज (गुरूवार 20 दिसंबर 2007) के संस्करण में यूनुस खान (जी हाँ, अपने रेडियोवाणी वाले) की निम्न कविता प्रकाशित हुई है – (मुझे भास्कर की साइट पर रचना की कड़ी खोजने से भी नहीं मिली, हालांकि अब ये साइट यूनिकोड पर आने लगी है. अतः कविता की स्कैन की गई छवि के साथ ही कविता भी प्रस्तुत है:)
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छोटे शहर के संकोची बच्चे
हम छोटे शहर के बच्चे थे
अब बड़े शहर के मुंशी हैं
और जा रहे हैं और बड़े शहर के मजदूर बनने की तरफ.
हमने जवानी में कविताएँ लिखी थीं और
कलम चलाते रहने का वादा किया था खुद से.
जवानी की डायरी में अभी भी मौजूद हैं
वे गुलाबी कविताएँ.
पर कलम अब मेज पर पड़ी जंग खा रही है
और हम कीबोर्ड के गुलाम बन गए हैं.
मित्र हम दुनिया को बदलने के लिए निकले थे
और शायद दुनिया ने हमें ही बदल दिया
भीतर-बाहर से
अब हम नापतौल कर मुस्कराते हैं
अपनी पॉलिटिक्स को ठीक रखने की जद्दोजहद करते हैं...
झूठी तारीफ़ें करते हैं, वादे करते हैं कोरे और झूठे
और हर शाम सिर झटककर दिनभर बोले
झूठों को जस्टीफाई कर लेते हैं
हम छोटे शहर के बड़े दोस्त थे, जिंदगीभर वाले दोस्त.
लेकिन बड़ी दुनिया के चालाक बाजार ने
खरीद लिया हममें से कुछ को
और कुछ की बोली अब भी लगाई जा रही है
हम छोटे शहर के संकोची बच्चे
आज कितनी बेशर्मी से बेच रहे हैं खुद को.
-यूनुस खान
(ये कविता तो लगता है कि जैसे मेरे ऊपर ही लिखी गई है ... और, इसीलिए मैंने इसे यहाँ फिर से प्रकाशित किया है)
इसी पृष्ठ पर वेद प्रकाश की किताब पर लिखी मेरी समीक्षा भी संक्षिप्त रूप में छपी है. साथ ही ब्लॉग यायावरी स्तम्भ में रविकांत ओझा ने हाल ही में ब्लॉग जगत् में ब्लॉगर बनाम साहित्यकार पर हुई बहस का एक बेहतरीन अवलोकन पेश किया है. अवलोकन की स्कैन की गई छवि निम्न है:
अच्छा तो यूनुस जी आप रेडियोवाणी बुढापे में लिख रहे है क्योंकि जवानी में तो आप कविताएं लिखते थे।
हटाएंकविता पढ कर लगा कि देवनागरी लिपि कहीं खो न जाए जिस तरह हम हिन्दी के लिए चिंतित है अब लिपि के लिए हो जाएगें।
वैसे जानी-अनजानी बहुत सी बातों की ओर आपने इशारा कर दिया है।
लगे रहिए। हमारी दुआएं आपके साथ है।
अच्छा है जी. ब्लोगिंग की बहस तो आगे जायेगी बहुत. मैं तो चाहता हूँ की लोग और जोरों से बहस करें. बस एक निवेदन है की अपने वर्तमान ब्लॉग की पोस्ट को इस बहस से ना भरें वरना उनके पथों का क्या होगा. मैं तो वैसे भी इस सब फसाद से दूर रहता हूँ.
हटाएंयूनुस भाई के जवानी के दिनों को पढ़ कर अच्छा लगा. इंतजार है उनकी बुढापे के दिनों वाली ड्यारी के कुछ पन्नों का.
यूनुस जी की ये कविता तो जब उनके ब्लॉग पर आई तभी मुझे बहुत पसंद आई थी, पठकों की संख्या बढ़ी इस हेतु बधाई।
हटाएंयूनुस की कविता अच्छी है और साहित्य बनाम ब्लॉगरी की चर्चा बिना मूल के।
हटाएंयुनूस भाई को बधाई.
हटाएंबढ़िया कविता के लिए यूनुस भाई को बधाई। ओझा जी की चर्चा भी बढ़िया रही।
हटाएंखबर के दैनिक भास्कर के कागज़ी संस्करण से नेट संस्करण में जाते दो तीन दिन लग जाते हैं ऐसा मुझे बताया गया था।
यह ओझा जी वाला कॉलम इधर अपने संस्करण में नही आता अफसोस।
कविता में आज का यथार्थ अत्यन्त सुन्दरता के साथ प्रकट हुआ है। यह तो अधिकांश चिट्ठाकारों को अपना यथार्थ लगेगा। इस में युग की सचाई जो है। मुझे अपने जीवन का प्रतिबिम्ब भी इस में दिखाई दिया है। कवि को बहुत बधाइयां।
हटाएंमुझे आपके चिट्ठे से अभी अभी इस कविता के छपने की सूचना मिली । दरअसल इंदौर दैनिक भास्कर के संपादक राजेंद्र जी ने मुझसे इस कविता को छापने की इजाजत उसी दिन ले ली थी जिस दिन इसे ब्लॉग पर डाला गया था । रवि जी बहुत बहुत शुक्रिया ।
हटाएंयुनूस जी का यह रूप बहुत भाया.
हटाएंyunus ji ka vakai koi javab nahi hai.
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