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तरकश में पिछले माहों में प्रकाशित रचनाएँ

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***-*** ताजमहल - अजूबा चुनने का अजूबा! वैसे भी, ये दुनिया कम अजूबा नहीं है. ऊपर से लोगबाग और भी ज्यादा अजूबाई करने लग जाते हैं. अब देखिए ना...



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ताजमहल - अजूबा चुनने का अजूबा!

वैसे भी, ये दुनिया कम अजूबा नहीं है. ऊपर से लोगबाग और भी ज्यादा अजूबाई करने लग जाते हैं. अब देखिए ना, इस अजूबी दुनिया में अजूबा चुनने का अजूबा चल रहा है. और हमारे देसी भाईलोग ताजमहल को अजूबा के रूप में चुनने और चुनवाने को पिले पड़ रहे हैं. गोया ताजमहल, ताजमहल न हुआ इंडियन आइडल का बेसुरा, अजूबा किस्म का गायक जैसा अजूबा हो गया जिसे एसएमएस और ईमेल और ऑनलाइन वोटिंग के द्वारा चुना जाना है जिसे उतने ही वैसे ही अजूबे वोट मिलते हैं - क्षेत्रीयता और जातीयता से मिश्रित - आमतौर पर उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में उसके गायकीय गुणों का कोई लेना देना नहीं होता!


अख़बार रंगे हुए हैं. दीवारें पोस्टरों से अटी पड़ी हैं. जुलूस निकल रहे हैं. ताजमहल को अजूबा के रूप में चुनने के लिए वोट करो. वोट करो भई वोट करो. और, विरोधाभास देखिए, आज ही एक बड़ा अजूबा हुआ है - मायावती पर ताजकॉरीडोर प्रकरण पर साक्ष्य के अभाव में मुकदमे की अनुमति नहीं मिलने वाली खबर से ज्यादा बड़ी सुर्खी ताजमहल को अजूबा चुनने के अपील ने आज के अखबारों में बटोरी है.


अजूबा चुनने के लिए वोटिंग ऑनलाइन हो रही है, एसएमएस के जरिए हो रही है. यानी अधुनातन, हाईटेक अजूबों के द्वारा ताज जैसे ऐतिहासिक, प्राचीन अजूबों का चुनाव हो रहा है. यह भी एक विशाल किस्म का अजूबा ही है. अजूबी, फ़ितूरी दिमागों से उपजा अजूबा. अब भले ही हिन्दुस्तान और चीन की आबादी बाकी की तमाम दुनिया की आबादी पर भारी पड़ती हो, परंतु मोबाइलों और कम्प्यूटरों की पैठ आम जन तक कम होने के कारण ऐसे अजूबे वोट तो यहाँ से पड़ेंगे ही नहीं. वोट तो उन्हीं अजूबे देशों से पड़ेंगे जो पहले ही हाईटेक होकर आधुनिक-अजूबा हो चुके हैं.


ऑनलाइन वोटिंग और एसएमएस के खेल भी निराले, अजूबे हैं. ऑनलाइट वोटिंग के लिए फ़लां साइट पर जाकर पंजीकरण कर वोट करो - और उसका यूजर बेस बढ़ाओ. एसएमएस के जरिए फ़लां नंबर पर एसएमएस करो और इस तरह अदृश्य रूप से उस नेटवर्क के खाते में लाखों रुपये जमा कराओ. वाह! ऑपरेटरों ने क्या नया नायाब अजूबा फ़ॉर्मूला निकाला है. परिणाम चाहे जो हों, अजूबा चाहे जो हो, इन ऑपरेटरों ने तो अजूबा कर ही दिया है.


जनता पुराने ऐतिहासिक धरोहरों में से पहले सात स्मारकों को अजूबा चुनती है - भले ही वे अजूबा न हों - पर जनता ने तो चुना है ना! मेरे मोहल्ले के धोबी और चायवाले ने भी दोनों ने क्रमशः पचास-पचास एसएमएस किए हैं. चायवाला तो जरा ज्यादा ही सेंटी हो गया है. उसने प्रण लिया है कि जो भी उसके सामने अजूबा के लिए एसएमएस के जरिए वोट करेगा उसे वह मुफ़्त चाय पिलाएगा. अजूबा चुनवाने वालों ने इस फर्जीवाड़े और रिश्वतखोरी करवाकर अजूबा चुनवाने को रोकने के लिए क्या उपाय किये हैं अब ये तो नहीं पता. इसके बावजूद भी अपना ताज बहुत पीछे चल रहा है. लगता है अपने ताज को अजूबों में चुनवाने के लिए किसी भी एक्स्ट्रीम तक जाने के लिए शहाबुद्दीनों और पप्पूयादवों जैसे बाहुबलियों और वोट छापने वालों की शरण लेनी ही होगी नहीं तो पराजय तो तय है! इतनी बड़ी आबादी वाले देश का ताज अजूबों में न चुना जाए - इससे बड़ा अजूबा और क्या हो सकता है भला?


तो, बताइए, ताज के लिए आपने वोट किया या नहीं? यदि आपने वोट किया है तो आपने सचमुच अजूबा काम किया है. यदि नहीं किया है, और न करने का विचार है तब तो सचमुच आप मेरे जैसे बड़े भारी अजूबे हैं जो यह सोचते हैं कि ताज तो प्रेम-प्यार का सच्चा प्रतीक है - संसार के तमाम अजूबों में सर्वकालिक-सर्वश्रेष्ठ और जिसके लिए किसी चुनाव की या किसी संस्था के प्रमाणपत्र की कतई कहीं कोई आवश्यकता ही नहीं है!

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सरकारी योजनाएँ - क्रॉफ़्टेड फ़ॉर फॅन्टसीज़

एक विज्ञापन आजकल धूम मचा रहा है. यूं तो वह विज्ञापन है कच्छे का, परंतु वह लोगों के दिमागों में धूम मचा रहा है. फॅन्टसी पैदा कर रहा है लोगों के दिमागों में. पहने वालों के भी और न पहनने वालों के भी. और, उन कच्छों को धोने वालों के तो क्या कहने! आखिर – वे कच्छे बने ही हैं फॅन्टसीज़ के लिए.


अमूमन सरकारी योजनाएँ भी ऐसी ही होती हैं. क्रॉफ़्टेड फ़ॉर फ़ॅन्टसीज़. दन्न से कोई नायाब, टॉइंग, सरकारी योजना आती है. लगता है कि इन्कलाब हो जाएगा, क्रान्ति हो जाएगी, कायापलट हो जाएगा. जनता और सरकार फ़ॅन्टसी में जीने लगती है. हफ़्ता दस दिन गुजरता है और जब स्वप्न भंग होता है तो हकीकत वहीं की वहीं नजर आती है. न कोई परिवर्तन, न कोई काया पलट और न कोई क्रांति.


कोई तीसेक साल पहले इंदिराजी की कांग्रेस सरकार ने एक योजना बनाई थी – गरीबी हटाओ. हर तरफ नारा चलता था – गरीबी हटाओ-गरीबी हटाओ. क्या योजना थी. एकदम परफ़ेक्ट. ए हंड्रेड एण्ड वन परसेंट क्रॉफ़्टेड फ़ॉर फ़ॅन्टसीज़. इस योजना के कारण जनता आज भी उसी फॅन्टसी में जी रही है – अपनी ग़रीबी दूर करने की फ़ॅन्टसी. अलबत्ता इन तमाम वर्षों में सरकार की उसकी खुद की फ़ॅन्टसी इस योजना को लेकर कई बार डूब उतरा चुकी है.


पिछली भाजपा-नीत सरकार को इंडिया-शाइनिंग की फ़ॅन्टसी हो गई थी. गोल्डन ट्राएंगल और प्रधानमंत्री सड़क योजना बनाकर उसे यह भ्रम हो गया कि संसद पर दूसरी मर्तबा पहुँचने की उसकी राह अत्यंत आसान हो गई है. सरकार को यह भ्रम हो गया कि जनता की फ़ॅन्टसी सरकारी फ़ॅन्टसी से अलग थोड़े ही है. प्रारंभ में लगा कि जनता सरकारी फ़ॅन्टसी में फंस चुकी है. पर फिर, शीघ्र ही - संभवतः उसके भूखे पेट, मच्छरी रातों और खटमली खाटों ने जनता की फ़ॅन्टसी को जल्दी ही तोड़ दिया.


सरकार को कुछ समय से अर्जुनिया फ़ॅन्टसी हो गई है. वो अल्पसंख्यक-पिछड़ावर्ग के जरिए गुणा भाग कर चुनावी गणित के फलस्वरूप उत्पन्न हुई फ़ॅन्टसी में जी रही है. और जनता को भी इस फ़ॅन्टसी में फांस रही है. यह गुणा-भाग भले ही सरकार अपनी परफ़ेक्ट फ़ॅन्टसी के लिए परफ़ेक्ट तरीके से क्रॉफ़्ट कर ले, मगर जनता समझदार है - चतुर सुजान है. उसने राजस्थान में आग लगाकर अपनी इस फ़ॅन्टसी को भस्म करने की शुरूआत कर दी है.


बिजली की फ़ॅन्टसी ने सरकार व जनता को बहुत झटके दिए. बिजली उपलब्ध रहकर जितने झटके मिलते हैं उससे ज्यादा झटके तो अब बिजली न रहने पर मिलते हैं. ज्यादा अरसा नहीं बीता है जब सरकार ने किसानों को, ग़रीबों को मुफ़्त बिजली बांटना शुरू किया था. सरकार की यह योजना आई तो लगा कि क्रांति हो जाएगी. जनता का कायापलट हो जाएगा. सब ओर खुशहाली छा जाएगी. सरकार की फ़ॅन्टसी थी कि जनता उसे उसकी इस कृपा के चलते अगले दस-बीस चुनावों में तो जितवाती ही रहेगी. जनता की फ़ॅन्टसी थी कि बिजली उसके सूने, अंधियारे घर में प्रकाश ही प्रकाश भर देगी. परंतु यह फ़ॅन्टसी दोनों ही तरफ जल्दी ही उतर गई. बिजली की घोर कमी हो गई. बिजली विभाग दीवालिये हो गए. सरकार दे रही है न मुफ़्त बिजली. अब बिजली है नहीं तो कहाँ से दें. जितनी है - जो है वो ले लो. अब जनता पावर कट और लोड शेडिंग को उसके इस जीवन में ख़त्म हो जाने की फ़ॅन्टसी में जी रही है और कई दफ़ा अदल बदल चुकी सरकार कोई दूसरी तरकीब की तलाश में है जो वह वोट बटोरने के लिए जनता को परोस सके. तमिलनाडु में तो हर घर में रंगीन टीवी की फ़ॅन्टसी बढ़िया परिणाम सहित बुनी जा चुकी है. अब ये जुदा बात है कि घर में खाना कितना रंगीन है, और ये भी कि उन घरों में बिजली अपनी रंगीनियाँ बिखेरती भी है या नहीं. और, ये फ़ॅन्टसी अगले चुनाव तक बची रह पाती है भी या नहीं – डीएमके के स्वयं के घर में तो उनकी फ़ॅन्टसी ध्वस्त हो ही चुकी है.


उदाहरण के लिए एक और सरकारी योजना है. यह भी परफ़ेक्ट, क्रॉफ़्टेड फ़ॉर फ़ॅन्टसीज़ है. छः वर्ष की उम्र तक के बच्चों व गर्भवती महिलाओं को मुफ़्त पौष्टिक आहार देने के लिए सरकारी योजना बनाई गई है. योजना की प्रगति काग़जों पर चलती है और सरकार फ़ॅन्टसी में जीती है कि जनता हृष्ट-पुष्ट हो रही है. भ्रष्ट सरकारी नुमाइंदे कमाई के एक और जरिए के बल पर विदेश यात्रा की फ़ॅन्टसी में जीने लगते हैं और जनता मुरमुरे खाकर हलवा-पूरी खाने की फ़ॅन्टसी में जीने के लिए अभिशप्त बनी रहती है.


अब किस फ़ॅन्टसी की बात करें और किसे छोड़ें. सरकारी फ़ॅन्टसी की दुनिया अनंत है - अंतहीन है. बिलकुल अमूल माचो की तरह.

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हम भारतीय हुनरमंद

हू हैड आल काइंड्स ऑव बेटर स्किल्स?


निःसंदेह हम भारतीयों के पास.


एक ठो पेपर में ई बताया गया है कि हम भारतीयों के पास बेहतर भाषाई हुनर होता है. ई का मजाक है भाई? हम क्या सिर्फ भाषाई हुनर में बेहतर हैं? अरे! नहीं! हम भारतीय तो हर काम में बेहतर-से-बेहतर हुनरमंद हैं - सिर्फ भाषाई नहीं बल्कि हर काम में. जदी आपको इन बातों में इत्तेफ़ाक नहीं है, तो आइए, हम आपको बताएं कि क्यों!


अब भाषाई हुनर का क्या है. वो तो बेहतर होना ही है - हर भारतीय में बेहतर होना ही है. कोई भी भारतीय पालक इंटीरियर गांवे में भी रहेगा अऊ दू आना ज्यादा कमा लेगा तो अपने बच्चे को पास के कान्वेंट में डाल देगा जहाँ तीन सौ रुपल्ली मासिक के पगार पर सप्लीमेंट्री में ले देकर पास हुई टीचर जी अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं. अब पालक भी करे तो का करे. सरकारी हिन्दी स्कूल की दुर्दशा उससे देखी नहीं जाती. पास के कान्वेंट में कम से कम उसके बच्चे को पढ़ते समय बैठने को ढंग का कमरा तो मिल जाता है. नहीं तो सरकारी स्कूल में न तो छत होती है न जमीन. और सरकारी स्कूल में पाँच कक्षा के लिए औसतन दो गुरूजी लोग पदस्थ होते हैं जिनमें से आधे तो आते नहीं, जो आते हैं वे मध्याह्न भोजन की व्यवस्था और जानकारी-सर्वे करने के काम में लगे होते हैं. कुल मिलाकर एक भारतीय बच्चा केजी वन से चालू हो जाता है अपना लैंग्वेज स्किल बढ़ाने के चक्कर में. वो ए फ़ॉर एप्पल भी पढ़ता है और गदहे का ग भी पढ़ता है. वन टू भी पढ़ता है और एक दो तीन भी पढ़ता है. ऊपर से, घर मोहल्ले में भारतीय बच्चा अपनी स्थानीय बोली बोलता है, जो स्कूल में नहीं चलता है. स्कूल में शुद्ध भाषा लिखना सीखता है जिसका इस्तेमाल वह बोलचाल में तो कभी भी किसी सूरत नहीं कर सकता, सिर्फ लिखने और पढ़ने में ही करता है - और लिखने में तो मजबूरी में करना पड़ता है नहीं तो लोगबाग उसकी भासा को शोचनीय और शौचनीय न जाने क्या क्या बना डालते हैं. और वइसे भी इस बेचारे भारतीय होनहार को भविष्य में अपना सिक्का जमाने के लिए उसके पास अंग्रेज़ी बोलने के सिवा कोई विकल्प कहीं नहीं होता. अब एक भारतीय का लैंग्वेज स्किल बेहतर नहीं होगा तो किसका होगा? किसी अँग्रेज़ का? का बात करते हो जी आप भी!


एक ठो अऊ स्किल होता है - सड़क पर वाहन चलाने का. भीड़ भरी, गड्ढों अउर उससे ज्यादा स्पीड ब्रेकर युक्त सड़कों में जहाँ साइकल-मोटरसाइकल-ऑटो-टेम्पो-कार-बस के साथ साथ गाय-गरू से लेकर बकरी कुकुर तक सब साझा रूप से चलते हैं, वहां भारतीयों के वाहन चालन स्किल को देखना काबिले गौर होता है. सड़कों की भीड़ में से, जाम में से, गाय-गरू में से कैसे बच बचा कर निकलना है और टाइम पर अपने मुकाम पर पहुँचना है यह किसी भारतीय के बस की ही बात है. बिल क्लिंटन बैंगलोर आए थे तो उन्हें खास भारतीय अंदाज में बगैर किसी परीक्षण के इंटरनेटवा के जरिए वाहन चालन लाइसेंस बनाकर दे दिया गया था. भारत की सड़कों पर वाहन चलाने के लिए किसी परीक्षण की तो जरूरते नहीं है. मुआ भारतीय नित्य परीक्षणों - नित्य नए नए परीक्षणों से और कभी वाहनों से निकलते केरोसीन के धुएं से तो कभी घरेलू गैस की बदबू से जूझता जो रहता है और अपना वाहन चालन हुनर भांजता रहता है. अब वो होगा कि नहीं तमाम विश्व का बेहतरीन, हुनर मंद वाहन चालक?


भारतीयों के पाचन स्किल के बारे में क्या खयाल है? सुनीता नारायण पेप्सी और कोकाकोला के पीछे भिड़ गईं तो हल्ला हो गया कि उसमें पेस्टीसाइड है. अऊ तमाम जनता पीने के पानी में उही पेस्टीसाइड पी रहा और पचाए जा रहा तो कौनो हल्ला नहीं. सिंथेटिक दूध और नकली घी खा खाकर भारतीय दिनों दिन मजबूते होते जा रहा है तो उसे कोई देखता नहीं. ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन दे देकर जबरिया निकाले जा रहे दूध को पी पीकर भारतीय का पाचन स्किल उच्चतम स्केल पर पहुँच गया है इसे कऊन देखेगा? अऊ भ्रष्टाचार के रुपिया पइसा खा के डकरने वाली बात तो अलग ही है. हर बार सर्वे में भारतीयों का नाम अव्वल ही आता है- ये बात फिर से बताने की जरूरते नहीं है. कुल मिलाकर, सुनो, हम बता रहे हैं ना - भारतीयों का पाचन स्किल उच्चतम स्तर पर है भाई!


दया धरम के मामले में भी हम भारतीय बड़े ही हुनर मंद हैं. कोई किसी धरम का फोटू बना देगा तो उसका पुतला जला देंगे दंगा फसाद कर देंगे. कोई किसी धरम का बाना पहन लेकर मसखरी करेगा तो उस पर हँसने और उस पर मजे लेने के बजाए तलवारें निकाल लेंगे. ‘भारतीय' तो एक आदमी का नाम है, परंतु उसके पास बीसियों धरम है. किसको माने और किसको नकारे. कौन अच्छा है और कौन बुरा? क्या मानूं क्या नहीं? इसी चक्कर में वह उलझता रहता है और अपने दया धरम को जब देखो तब चमकाते-दमकाते रहता है. तब होगा कि नहीं वो इस मामले में ग़ज़ब का हुनर मंद?


वइसे तो भइया, हम भारतीयों के हुनर की औरो हजारों लाखों बातें हैं. इब का बताएं अऊ का नहीं इसी में उलझ गिए हैं. आप भी तो भारतीय हो - आपको ज्यादा क्या बताना? थोड़ा लिखा ज्यादा समझना. आपे खुदै समझदार हो - हुनर मंद हो.

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जनता चतुर सुजान

जनता के बारे में कहा जाता है कि जनता भोली होती है. जनता इमोशनल होती है. जनता को बहलाया फुसलाया जा सकता है, प्रलोभनों से बरगलाया जा सकता है. जनता को खरीदा बेचा जा सकता है. जनता को जाति-धर्म-वर्ग-वर्ण में बांटा जा सकता है. और, एक्स्ट्रीम केसेज़ में, जनता को मारा कूटा भी जा सकता है.

यूपी चुनावों के संदर्भ में अब तक ये बातें भले ही सत्य हों, पर इस दफ़ा वहां की जनता ने समीकरण पलट दिए. जनता जनता न रही वो चतुर सुजान हो गई.

राहुल के रोड शो में खूब जनता आई. रोड के रोड भर दिए, और हर जगह चक्काजाम कर दिए. गड्ढे भरी, धूलभरी, अधबनी सड़कों का एक और रेप रोड शो के माध्यम से हो गया. पर चुनाव के नतीजों से सिद्ध हो गया - जनता चतुर सुजान.

सोनिया की चुनावी सभाओं में तमाम जनता धूप में तपती बैठी रही. सूखे गले और बहते पसीने के साथ बैठी रही. भीड़ इतनी कि हर तरफ सिर ही सिर. मुलायम सरकार के ढहती क़ानून व्यवस्था के प्रश्न पर तमाम जनता ने सहमति में सिर हिलाया और इस सरकार को उखाड़ फेंकने और कांग्रेस को वोट देने की अपील पर खूब देर तक ताली बजाया. और जब चुनाव परिणाम आया तो साबित हो गया - जनता चतुर सुजान.

मुलायमी हथकंडे भी कुछ कम अमर नहीं रहे थे. बिग-बी के सिनेमाई चमत्कार युक्त ब्रांड एम्बेसेडरी से लेकर सामाजिक प्रलोभनों और एम-वाई समीकरणों सभी का जम कर इस्तेमाल किया गया. जनता मूरख के रूप में चली आती रही भीड़ की भीड़ बढ़ाती रही. और जब वोट देने का नंबर आया तो बता दिया - जनता चतुर सुजान.

बीजेपी राममंदिर का राग अलापती रही, हिन्दू हिन्दू जपती रही. जनता साथ में अखण्ड पाठ पढ़ती रही. अटल की सभा में सर्वाधिक जनता जुटी और हिन्दू हिन्दू जपी. और जब वोट देने निकली तो अपना रामनामी चोला कहीं फेंक आई और हाथी पर चढ़कर लौट आई. किसी ने पहचाना तक नहीं कि है जनता चतुर सुजान.

माया मस्त हैं. उम्मीद से ज्यादा जनता ने नवाज़ा. चाहा था चार मिला आठ. जिसे पहले गरियाए, जूतियाए, अंततः उसे गले से लिपटाए - जनता ने बता दिया - जनता चतुर सुजान.

अखबारों ने, टीवी ने, पत्रिकाओं ने जनता से पूछा - किसे वोट दे आए? जनता मुसकुराती रही. जनता सिर हिलाती रही. जनता मुँह बिसूरती रही. पत्रकारों ने माउथ गेस्चर से, बॉडी लैंग्वेज से और न जाने किन किन प्रतीकों से एक्जिट पोल के नतीजे निकाले. परिणाम उलटे आए. और भोली जनता ने भी बता दिया, कि - है वो चतुर सुजान.

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व्यंज़ल

****

हो गई जनता चतुर सुजान

है किसी को इसका संज्ञान


मेरी बातों के हैं मेरे आधार

आप मानते रहें मेरा अज्ञान


कोई नहीं पूछता कि क्यों

छोड़े मैंने प्रार्थना और अजान


धर्म के गलियारे में अंततः

खोल ली है मैंने भी दुकान


गिरा था मैं, ये सोच के रवि

गिराव के बाद ही है उठान


***-***

न्यायिक अश्लीलता और नया राष्ट्रगीत

भाई ई समय बड़ा बलवान होत है. अउर नहीं तो क्या? अउर समय के हिसाब से अपनी पसंद भी बदल जाती है. अब ये ही देख लो - कुछ ही समय पहले हम सभी न्यायिक सक्रियता पर बड़ा खुश होते थे. न्यायाधीशों के और न्यायालयों के प्रशंसा के पुल के पुल बाँध देते थे. और आज स्थिति ये है कि न्यायिक अतिसक्रियता को हम सभी न्यायिक अश्लीलता, न्यायिक तालिबानिता और न्यायिक अनौचित्यता बताने में तुले पड़े हैं. आज हर आदमी हर ओर से न्यायालयों और न्यायाधीशों को गरिया रहा है. सरकार भी गरिया रही है और जनता भी. नेता भी और अनेता भी.

भले ही न्यायालयों में हजारों लाखों केस सुनवाई के लिए, फैसलों के लिए निलंबित पड़े हों, जनहित याचिकाओं और स्वतः संज्ञान लिए प्रकरणों के निपटारों में तीव्रता को जनता ने हाथों हाथ लिया था. जेसिका लाल प्रकरण पर जैसे ही लोगों ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था पर थूकना चालू किया, न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर लोगों का न सिर्फ मुँह बंद किया बल्कि त्वरित फ़ैसला देकर कुछ प्रशंसा के बोल भी अपने लिए जुटाए थे. पर अब अचानक ये क्या हो गया कि न्यायालय और न्यायाधीश खुद जनता के कटघरे में खड़े दीखते हैं.

शिल्पा-गेर प्रकरण थमा ही नहीं था कि मंदिरा बेदी के साड़ी पर छपे भारतीय झंडे का मामला सामने आ गया. यानी आप गर्व से भारतीय झंडे को अपने शरीर पर लपेट भी नहीं सकते. इससे भारतीय झंडा अपमानित हो जाता है, भारत अपमानित हो जाता है. अमरीकी जनता पामेला एंडरसन जैसी हसीनाओं को अमरीकी झंडे के स्टार और स्ट्राइप के बिकिनी पहने देख खुश होती है, गर्वित होती है अमरीका और अमरीकी झंडे का सम्मान होता है. परंतु भारतीय जनता मंदिरा की साड़ी में तिरंगा देख कलपने लगती है. भारत और भारतीयता को अपमानित होता देखती है. न्यायालय में केस लग जाता है.


इधर साड़ी विवाद आता है तो उधर हुसैन की संपत्ति जब्त करने का मामला आ जाता है. हुसैन अपनी कला बनाते कहीं और हैं, प्रदर्शित करते कहीं और हैं, मीडिया में आता कहीं और है, और हरिद्वार के न्यायालय में केस दर्ज होता है हिन्दू धर्म और देवी-देवताओं के अपमान का. राजेन्द्र यादव के शब्दों में - अगर हुसैन को नग्न देवी देवताओं को चित्रित करने का दंड मिलता है, तो हर शहर और हर गांव के पंडे पुजारियों और भक्तों को ये सज़ा मिलनी चाहिये जो सार्वजनिक रूप से शिवलिंग स्थापित करते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करते हैं.

कल को यकीनन चिट्ठाजगत् भी न्यायिक अश्लीलता के गिरफ़्त में आ जाएगा. इधर आप कुछ विवादित मुद्दों पर कुछ विवादित विचार लिख-छाप मारेंगे और उधर कोई उत्साही जनहित-याचिकाकर्ता भारतीय न्यायालय में कोई पीआईएल लगा देगा और कोई तालिबानी विचारधारा वाला न्यायाधीश आपकी गिरफ़्तारी का वारंट भेज देगा, आपको सज़ा दे देगा. भले ही आप टोरंटो में रह कर चिट्ठा लिख रहे हों, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. आप भारतीय पुलिस और भारतीय न्याय व्यवस्था के भगोड़े घोषित कर दिए जाएंगे और भारत की आपकी पैतृक संपत्ति, यदि कोई हो तो कुर्क कर ली जाएगी.

तब तक इस भय में जीते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है, इसीलिए आइए इंडिया का नया नेशनल एंथम गाकर इस भय को थोड़ा सा भगाने का प्रयत्न करें-

इन इंडिया,

एवरीवन केन पब्लिकली शिट एंड पिस,

बट यू केननॉट किस.

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. रवि जी, अच्छा चुनाव किया है. "तरकश में पिछले माहों में प्रकाशित रचनाएँ" शीर्षक इस हफ्ते सारथी के चिट्ठा अवलोकन मे लिंक सहित दिया जायगा -- अवलोकन के अंतर्गत

    जवाब दें हटाएं
  2. इन इंडिया,
    एवरीवन केन पब्लिकली शिट एंड पिस,
    बट यू केननॉट किस.

    धमाकेदार लिखा है. मैं तो हंसी के मारे अपनी कुर्सी से नीचे गिर पडा़

    जवाब दें हटाएं
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छींटे और बौछारें: तरकश में पिछले माहों में प्रकाशित रचनाएँ
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