*****************************************. मुझे नहीं दरकार वज़न की... अनूप की ग़ज़ल (http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/08/blog-post.ht...
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अनूप की ग़ज़ल (http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/08/blog-post.html) वाकई खूबसूरत है. परंतु उन्हें दर्द है कि उनकी ग़ज़ल में उन्हें वज़न दिखाई नहीं दे रही, बहर बाहर जा रहा है, काफ़िया तंग हो रहा है ...
बहरहाल, अनूप को तथा अपने सभी चिट्ठाकार दोस्तों को एक बार फिर से दरख्वास्त करता हूँ कि महत्वपूर्ण बात यह है कि आप लिखें. वज़न तो लिखते-लिखते अपने आप आएगा. अगर आप लिखेंगे ही नहीं तो वज़न किधर से आएगा. मेरी बात में वज़न नहीं दिखाई दिया? चलो, कोई बात नहीं, मशहूर शायर, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता – रघुपति सहाय ‘फ़िराक गोरखपुरी’ की बात मानेंगे? तो ठीक है. उनकी पुस्तक ‘उर्दू कविता’ (आईएसबीएन 81-7055-553-1) से उद्धृत कुछ अंश पढ़िए:
ऊपर के उद्धरण से साफ जाहिर है कि रचनाधर्मिता किसी नियम कायदे कानून और पसंद नापसंद को सिरे से खारिज करती है. कुछ स्थापित ग़ज़लकारों (जाहिर है, शेली जैसों) ने मेरी व्यंग्य ग़ज़लों को ग़ज़ल मानने से इंकार कर दिया. ठीक है, मैंने उन्हें व्यंज़ल नाम दे दिया. लोगों को व्यंज़ल पढ़ने में आनंद आता है, मुझे लिखने में. और, लेखक-कवि लिखता किसलिए है? पाठकों के लिए, किसी कवि-आलोचक के लिए नहीं.
और, मैं तो कहता हूँ कि ईस्वामी की लिखने की शैली (http://hindini.com/hindini/?p=62 ) भी नायाब है. आप उनके लिखे हर वाक्य पर हँस सकते हैं – दिल खोल कर हँस सकते हैं. बताइए, वे हिन्दी के किस व्याकरण और विन्यास, और यहाँ तक कि किस शब्द को फॉलो करते हैं? रचनाधर्मिता यही है, और यही चीज एक रचनाकार को आगे, एक अलग पथ पर लेकर जाती है.
तो, लिखते चलिए, लिखते चलिए- वज़न की चिंता किए बगैर...
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आदमी अमरत्व से बस, एक कदम पीछे…
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अब अगर आपके टूटे फ़ूटे, बुढ़ा गए अंग – मसलन हृदय और हाथ पाँव इस तरीके से स्वचालित रिपेयर होकर नए बनने लगें, तो यकीन मानिए, यह तो लगभग ऐसा ही है, जैसे आदमी ने अमरत्व को प्राप्त कर लिया. और, अब तो सचमुच लगता है कि वह अपने संपूर्ण अमरत्व से सिर्फ, और सिर्फ एक कदम पीछे है. कल्पना करें कि आदमी को अमरत्व प्राप्त हो जाए, तो ऐसी स्थिति में होगा क्या?
जब आदमी अमर हो जाएगा, तो दो-तीन सौ साल जीने के बाद वह जीवन से भयंकर रूप से बोर हो जाएगा, पूरी तरह से ऊब जाएगा. फिर वह मरने के तौर तरीके ईजाद करेगा. मरने के एक से एक बेहतरीन तरीके. एक से एक नायाब तरीके. फिर वह सहर्ष घोषणा करेगा कि अमुक दिन, अमुक समय, अमुक-अमुक नायाब, खर्चीले तरीके से मरने जा रहा है. उसके मरने के दिन समारोह होंगे, नाच गाना होगा और सारा कार्यक्रम भव्यता से सम्पन्न होगा. जो आदमी जितना ज्यादा सम्पन्न होगा, वह उतना ही शानदार तरीके से मरेगा.
जब, अमर आदमी के अंग स्वचालित तरीके से रिपेयर हो जाया करेंगे और नए उग आया करेंगे तो फिर उसे किस बात का डर होगा? वह हर किसी से पंगा लेता फिरेगा और बात-बात में हर किसी का हाथ पाँव काट डालेगा. सड़कों पर हर कोई, बेतरतीब, एक दूसरे को कुचलता काटता चलेगा. और, अगर किसी को अपना कोई अंग पसंद न आएगा हो तो वह उसे काट डालेगा ताकि कुछ नया-सा, अच्छा अंग उग आए.
चूँकि मरने वालों की संख्या में अत्यंत कमी हो जाएगी, और लोग-बाग़ सोच-समझकर ही मरा करेंगे, अतः पृथ्वी पर जगह की कमी हो जाएगी. लिहाजा, क़ानून बन जाएगा कि किसी फैमिली में कोई बच्चा तब तक पैदा नहीं होगा जब तक कि उस फैमिली का कोई सदस्य स्वेच्छा से मर नहीं जाता. पृथ्वी पर एक मरेगा, स्थान खाली करेगा तभी उस स्थान पर दूसरा आ पाएगा. जो इस काम के लिए मरेगा, उसका नाम शहीदों में लिखा जाएगा और उसके लिए स्मारक बनाए जाएंगे. एवज् में जो बच्चा पैदा होगा, वह सबकी आंखों का तारा तो होगा ही, लोग उसे अपने पास रखने के लिए, उसे देखने के लिए, उसे प्यार करने के लिए, उसे पालने के लिए एक दिन, एक घंटे, या दस मिनट के लिए किराए पर जिसकी जैसी हस्ती हो, लिया करेंगे. कोई मरेगा तो, या किसी के यहाँ बच्चा होगा तो ये खबरें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खबरें हुआ करेंगी. स्थानीय स्तर पर तो समारोह के लिए अवकाश भी हुआ करेगा. और कौन जाने, ये समारोह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने लगें.
आदमी जब अमर हो जाएगा तो फिर उसे कल की चिंता क्यों हो? वह आने वाले कल की चिंता करना पूरी तरह छोड़ देगा. वह वर्तमान में जिएगा, हर रोज जिएगा, पूरी तरह जिएगा. साल-दर-साल, सैकड़ों साल. कोई पाँच सौ साल की उम्र का आदमी सौ साला उम्र के व्यक्ति से बहस में कहा करेगा – ज्यादा बकबक मत कर, तेरी जितनी उमर है, उससे पाँच गुना मेरा अनुभव है. बहुत रद्दी स्थिति आ जाने पर होगा यह कि कोई सरकार या कोई देश का सम्राट यह नियम बना देगा कि कोई भी आदमी सात सौ साल से ज्यादा नहीं जी सकेगा. कभी कोई, अपेक्षाकृत जवानों की सरकार, अध्यादेश ही निकाल देगी कि अमुक दिन से पाँच सौ साल से ज्यादा उम्र के तमाम मनुष्यों को जिंदा रहने पर पाबंदी लगाई जाती है, लिहाजा वे अपने-अपने हिसाब से मरने का कार्यक्रम तय कर लें, अन्यथा उस दिन के बाद उन्हें कहीं से भी ढूंढ कर तत्काल मार दिया जाएगा.
उफ़... जीवन के गुणा भाग कितने जटिल हो जाएंगे तब!
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ग़ज़ल
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सड़ाएगा सड़ता झाग जो है
डसेगा गले का नाग जो है
उगलेंगी तो बेशक जलाएंगी
इस पापी पेट में आग जो है
कहीं ऊंच तो है कहीं नीच
जीवन का गुणा भाग जो है
खताएँ सारी मुआफ़ तुम्हारी
आख़िर चाँद में दाग जो है
महफ़िल में दुत्कारा गया
गाया बेमौसम फ़ाग जो है
पूछ परख खूब है रवि की
हंस के भेस में काग जो है
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हिन्दी में ढूंढिए तेज़ी से...

गूगल डेस्कटॉप खोज पर पहली नजर यहाँ (http://hindini.com/hindini/?p=23) पड़ी थी. इस खोज का नया बीटा 2 संस्करण आपके डेस्कटॉप पर बैठकर ही ‘तैरती पट्टी’ या ‘कार्य पट्टी के भीतर ही’ या ‘बाजू पट्टी’ के रूप में आपकी सेवा में हाजिर हो चुका है. हिन्दी (यूनिकोड) में ढूंढने के लिए इससे बेहतर औज़ार अभी, हाल-फिलहाल तो और कोई मेरी नजर में नहीं है. ऊपर से, इसकी खोज डायनामिक है. जैसे जैसे आप अक्षरों को टाइप करते जाते हैं, खोज परिणाम उपयुक्त रूप में बदलते जाते हैं. दर्जनों प्लगइन्स के जरिए इसकी फंक्शनलिटी को और भी बढ़ाया जा सकता है. उदाहरण के लिए, मेरे 80 जीबी एमपी3 संगीत संग्रह के हजारों फ़ाइलों में से किसी एक गीत को मात्र एक दो की-वर्ड के जरिए ढूंढ लेना पलक झपकाने जैसा आसान और तीव्र हो गया है. ‘कहानी’ शब्द युक्त किसी फ़ाइल को ढूंढने का इससे बेहतरीन तरीका और क्या हो सकता है! यह इंटरनेट से भी इसी तीव्र गति से ढूंढ लाता है. और, जैसा कि गूगल का धर्म है, यह औज़ार सभी के मुफ़्त इस्तेमाल के लिए जारी किया गया है.
सचमुच, जीवन सरल हो गया है!
धन्यवाद गूगल!
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व्यंज़ल
गुस्सा देखा नहीं कभी उसका
दुःख किया नहीं कभी उसका
वैसे तो था बहुत याराना पर
खयाल आया नहीं कभी उसका
व्यर्थ में न जोड़ो रिश्ता मैंने
नाम लिया नहीं कभी उसका
इबादतें तो कीं सुबह शाम पर
दर्शन मिला नहीं कभी उसका
पत्थर में ये बात तो है रवि
मिटे निशां नहीं कभी उसका
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सानिया को फतवा

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कुछ मौलवियों को खुशी है कि सानिया उनके कौम का नाम रोशन कर रही है. पर साथ ही कुछ को दुःख भी है कि सानिया ढंग के कपड़े पहन कर टेनिस नहीं खेलती है. इनका बस चले तो सानिया को भी बुर्का पहन कर टेनिस खेलने को मजबूर कर दें.
बात साफ है. ऐसे लोग सानिया के खेल को नहीं देखते. उसके कपड़े देखते हैं कि उसने कितने कम कपड़े पहने. अश्लीलता देखने वाले की आँख में होती है. नहीं तो हर बच्चा अपनी मां को अश्लील समझता!
अल्लाह इन्हें सद् बुद्धि दे!
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बिक रहा है ईश्वर...

भारत के कुछ क्षेत्रों में, और, खासकर महाराष्ट्र में- वह भी खास मुम्बई में, गणेशोत्सव का दस दिवसीय त्यौहार बड़े ही उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है. उत्सवों की परंपरा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है. परंतु आधुनिक युग में उत्सवों पर बाजार वाद हावी हो गया है.
किसी भगवान के लिए, किसी ईश्वर के लिए इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता है कि उसे बाज़ारों में बेचा जाए? गणेश चतुर्थी के अवसर पर कुछ दिनों से शहर के बाजारों में गणेश जी की प्रतिमाओं को बेचने के लिए दुकानें सज गई हैं और रेहड़ी-ठेलों में लोग गणेशी जी की मूर्तियाँ बेच रहे हैं. बड़ी मूर्ति कुछ हजार रुपए में बिक रही है तो छोटी मूर्ति कुछ रुपयों में. आप चाहें तो बारीकी से और कृपणता से मोल भाव भी कर सकते हैं कि क्या साला मिट्टी की मूर्ति के हजार रूपए मांग रहा है? पाँच सौ रूपए में दे. अगर आपके पास ज्यादा रूपया है तो आप ज्यादा मंहगा गणेश जी की मूर्ति खरीद सकते हैं. और भगवान की दया से आप अगर अमीरी को ठेंगा दिखाते हैं तो फिर कोई सस्ती सी मूर्ति ही खरीद लाइए. बाजार में हर भाव की, हर जेब के लिए मूर्ति मौजूद है. ऊपर से, बाजार वाद के कारण मूर्तियाँ टकसालों में सिक्कों की तरह ढाली जा रही हैं. सांचे में ढाल कर बनाई गई प्लास्टर ऑफ पेरिस की रंग रोगन की गई मूर्तियों को सस्ते में बेचा जा रहा है. इससे विक्रेताओं को मेहनत कम लग रही है और उन्हें नफ़ा ज्यादा हो रहा है. ग्राहक भी खुश है कि उसे गणेश जी की बड़ी मूर्ति पानी के भाव में मिल गई. परंतु जब इनका विसर्जन किया जाता है, तो तालाब और नदी में प्लास्टर ऑफ पेरिस भीषण पर्यावरणीय खतरा पैदा करते हैं. बमुश्किल आज से पंद्रह-बीस साल पहले ऐसी स्थिति तो नहीं थी. उत्साह उतना ही रहता था, परंतु उत्सव में विकृतियाँ कम थीं. अब विकृतियाँ इतनी हो गई हैं कि सुप्रीम कोर्ट को भी यह फरमान देना पड़ रहा है कि चाहे गणेशोत्सव हो या कोई अन्य आयोजन, लाउड स्पीकर रात दस बजे के बाद बन्द रहेंगे. वैसे भी गणेशोत्सव के नाम पर कांटा लगा नुमा गीतों से गली चौराहे गूंजते रहते हैं.
हे मानव! तूने तो ईश्वर को भी बेच दिया!
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ग़ज़ल
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कितना बड़ा हो गया है आदमी
ईश्वर को बेच खाया है आदमी
खुदा ने बनाया आदमी बस एक
देवों में फर्क बो दिया है आदमी
ईश्वर, अल्लाह और ईशू के नाम
खूब कत्लेआम किया है आदमी
पहचानता नहीं अपनी ही सूरत
बड़ा बेईमान हो गया है आदमी
पूछता है ईश्वर से रवि कि क्या
गलती से वो बन गया है आदमी
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पहली नौकरी - पहला प्यार
सन् बयासी में जब इंजीनियरी की पढ़ाई करके निकले तो, और नौजवानों की तरह मेरे मन में भी बड़ा देश सेवा का बड़ा उत्साह था. वैसे भी उस दौर में अगर किसी को कहा जाता था कि वह इंजीनियर है तो उसे सामने वाले की एक दूसरी निगाह अवश्य प्राप्त होती थी. तब सिर्फ शासकीय इंजीनियरिंग कालेज ही होते थे. अब तो कुकुरमुत्तों की तरह उग आए प्रायवेट इंजीनियरिंग कालेजों के कारण आजकल लोग कहने लगे हैं कि भीड़ में कोई पत्थर उठाकर फेंको तो वह किसी न किसी इंजीनियर को पड़ेगा ही. पिछले साल ही मध्यप्रदेश के कई इंजीनियरिंग कालेजों की प्रथम वर्ष की पूरी सीटें नहीं भर पाईं. उस जमाने में नौकरियाँ इफ़रात होती थीं, और आपके पास तमाम विकल्प होते थे. कैंपस इंटरव्यू में तब अच्छे विद्यार्थी को अच्छी नौकरी की तलाश होती थी, और जिस संस्था को कुछ लोग बेकार समझते थे, अच्छे विद्यार्थी उसका इंटरव्यू ही नहीं देते थे.
मेरे पास भी कई विकल्प थे. एनटीपीसी कोरबा में अभी काम प्रारंभ ही हुआ था और कैंपस में चयन हो गया था. सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) में भी चयन हो गया था और इस बीच म.प्र.विद्युत मंडल (इनका कैंपस चयन में कभी भी विश्वास नहीं रहा!) की प्रवेश परीक्षा दे चुका था.
उस दौर में चूंकि नौकरी के कई-कई विकल्प सामने मौज़ूद होते थे, अत: हर कोई अपने हिसाब से बढ़िया विकल्प को पसंद करता था. पर, तब ये भी सच था कि तब इन्फोसिस और विप्रो जैसी आईटी कंपनियों का वजूद नहीं था और आपको सरकारी पे-स्केल, जिस पर सिर्फ दो वक्त की रोटी ही ढंग से खाई जा सकती थी, उतनी ही पगार पर काम करना पड़ता था, और इसका कोई विकल्प नहीं था. यह भी विकल्प नहीं था कि आज इन्फ़ोसिस से निगोशिएट किया और कल टीसीएस से. उस वक्त तो एक ही संस्था की नौकरी में जीवन निकालना होता था. खैर, एनटीपीसी कोरबा चूँकि नया-नया था, दर्री के जंगल में उसका निर्माण कार्य हो रहा था, और सबकुछ अस्तव्यस्त सा चल रहा था अत: दर्री में घूम-भटक कर मैं वापस चला आया. भिलाई स्टील प्लांट भी छोड़ दिया चूँकि प्लांट का जीवन और वहां के कोक ओवन के धुएँ मुझे रास नहीं आए थे, और, उस जमाने के वेतन तथा सुविधाओं में विद्युत मण्डल ज्यादा अच्छा प्रतीत होता था. फिर विद्युत इंजीनियर होने के नाते हम ऐसा समझते थे कि विद्युत मण्डल तो हमारा पैरेंट डिपार्टमेंट होगा और हम इस बहाने गांवों में भी सेवा देकर सच्ची देश सेवा कर सकेंगे. इस बीच, विद्युत मण्डल के चयन परिणाम के इंतजार में खैरागढ़ के तकनीकी स्कूल में छ: महीने तक हाई स्कूल के बच्चों को पढ़ाया. एक तरह से वह मेरी पहली नौकरी थी. हालांकि वह नौकरी दिहाड़ी पर थी, यानी कि मुझे प्रति पीरियड पढ़ाने के दस रुपए प्राप्त होते थे. जी, हाँ, दस रुपए. और मेरे साथी गैर तकनीकी को गणित पढ़ाने के पाँच रुपए. महीने भर पढ़ाने के उपरांत हर महीने लगभग सात-आठ सौ रुपए बन जाते थे. उस समय के हिसाब से यह रकम भारी भरकम ही होती थी. उस समय अगर किसी को हजार रुपए भी मिलते थे तो वह गर्व से लोगों को बताता फिरता था कि उसे महीने की पग़ार फ़ोर फ़िगर में मिलती है!
हाई स्कूल के बच्चे थोड़े शरारती, परंतु प्यारे थे. बच्चों को प्राय: शिक्षकों से शिकवा शिकायतें रहती ही हैं. रसायन विज्ञान के एक शिक्षक थे. बच्चों का कहना था कि उनके मुँह से सल्फर-डाई-ऑक्साइड की गंध आती रहती है. दरअसल उन्हें पायरिया था और वे इससे अनभिज्ञ विद्यार्थियों को प्रेम से अपने पास बुलाकर रसायन विज्ञान के फ़ॉर्मूले और समीकरण बताते थे.
चूँकि मैं वहाँ टाइम पास कर रहा था, अत: खाने पीने घूमने और मौज मस्ती के अलावा ज्यादा कुछ करता नहीं था. सुबह पाँच बजे उठ कर हम सामने प्लेग्राउंड में कसरत करते थे, और अपनी बाहों की मछलियों के लिए विशेष मंकी क्राउलिंग की वर्जिश करते थे. फिर एकाध घंटा बैडमिंटन खेलते थे. कभी-कभी पास ही इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के कोर्ट में जाकर टेबल टेनिस भी खेलते थे, पर प्रायः टेनिस खेलने के लिए नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय में अध्ययनरत सुंदर देवियों के साक्षात् दर्शनार्थ. आठ बजे नाश्ते के बाद, जो हम स्कूल के मेस में ही करते थे साढ़े दस बजे कक्षाओं में चले जाते थे तो दोपहर के एक घंटा भोजन अंतराल के अलावा फिर शाम पाँच बजे तक कक्षाओं में भयंकर व्यस्त रहते, चूंकि प्रति पीरियड दस रूपए जो कमाने होते थे. हम फिर ऐसी अतिरिक्त कक्षाओं की तलाश में रहते जहाँ कोई लेक्चरर छुट्टी पर गया हो.
वहाँ मेरी दोस्ती तुरंत ही अवनीश साहू से हो गई थी जो गणित का लेक्चरर था, और मेरे जैसे ही दिहाड़ी पर काम कर टाइम पास कर रहा था. वह बहुत ही स्मार्ट और हैंडसम था, और अगर वह बॉलीवुड में होता तो उस जमाने के धर्मेंद्र से लेकर देवानंद और आज के सलमान-हृतिक सबकी छुट्टी कर सकता था. उसके चेहरे और शरीर का रंग ही ऐसा था जैसे कि गुलाबी रूज़ अभी अभी लगाया गया हो. वह शरीर से सुंदर तो था ही, विचार भी उसके उतने ही प्यारे थे. उसका धनी परिवार ठेठ गांव का था और खेती बाड़ी पर निर्भर था. दाल-भात पर ढेर सारा घी, जो वह अपने गांव से लाता था, डाल कर, चबर चबर कर अजीब आवाजें निकाल कर खाना उसे खूब पसंद था. विद्यार्थियों की नज़र में वह पढ़ाता बहुत बुरा था. विद्यार्थी मेरे पीरियड में, जो प्राय: गणित के बाद होता था, अकसर गणित के वे सवाल फिर से हल करवाने को कहते थे जो पिछले पीरियड में उनके सिर के ऊपर से गुज़र चुका होता था. दरअसल उन सवालों को मैं अभियाँत्रिकीय मोड़ देकर प्रायोगिक आधार पर समझाता था, जिससे वे उसे तुरंत समझ जाते थे.
इस बीच मेरी प्रसिद्धि, कि मैं गणित बढ़िया पढ़ाता हूँ, अंग्रेजी के लेक्चरार के पास भी पहुँच गई. उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उसकी बच्ची को गणित पढ़ा दूँ. वह गणित में जरा सी कमजोर है और चूंकि मैं बेहतरीन तरीके से पढ़ाता हूँ, अत: उस पर जरा सा उपकार कर दूँ. मैंने हामी भर दी. कुछ दूसरे लेक्चररों ने इनडायरेक्ट समझाया भी पर मैंने ध्यान नहीं दिया और सोचा कि चलो कुछ दिन की तो बात है, देखते हैं. फिर अंग्रेजी के वे प्राध्यापक महोदय निहायत ही गांधीवादी, सादगी पसंद व्यक्ति थे, और मुझे अच्छे लगते थे. उस होस्टल, जिसमें मैं रहता था, से पास पाँच मिनट की पैदल दूरी पर ही उनका घर था. मैं उसकी बच्ची को गणित पढ़ाने क्या गया, मैं अपना ही गणित भूलने लगा था.
जारी... अगले ब्लॉग में. (पर तभी जब आप चाहें...)
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मुझे उम्मीद नहीं थी कि इस घटिया एकालाप को आप सभी इतना पसंद करेंगे. धन्यवाद. अब आगे की कहानी के लिए यादों के भँवर जाल में जाकर सूत्रों को पिरोना होगा. वैसे भी इसे पोस्ट कर मैं अंतर्ध्यान सा हो गया था – (मैं अपने पीसी कुंजी पट से दूर हो गया था) अतः कृपया धैर्य बनाए रखें, और अकारण इंतजार करवाने के लिए मुझे क्षमा करें. सोमवार को आगे की कहानी आपको यहीं पढ़ने को मिलेगी, यह वादा है.
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योर ऑनर!
माननीय न्यायालय के आदेश के तहत रात्रि 10 बजे के बाद से किसी भी तरह के आयोजनों में (गणेशोत्सव में भी) लाउडस्पीकरों का प्रयोग वर्जित किया गया है. अब आम जनता – बार-बार, लगातार, सारी रात्रि – ‘कांटा लगा’ जैसे फूहड़ गीतों से बचकर शांति की नींद सो सकती है. बहुत-बहुत शुक्रिया.
मेरी एक गुहार और सुनेंगे तो बड़ी कृपा होगी. जलाशयों में, नदियों में और समुद्र में प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी, जहरीले रंगों से पुती श्री गणेश भगवान की विशालकाय, हजारों प्रतिमाओं के विसर्जन के कारण पर्यावरण खतरा पैदा तो हो ही रहा है, जलाशयों, नदियों का रूप विकृत होता जा रहा है. ऐसे ही कुछ समाचारों के कतरन जो जेहन में अवसाद पैदा करते हैं, आपके अवलोकनार्थ नीचे दिए जा रहे हैं. माननीय न्यायालय से गुज़ारिश है कि किसी भी जलाशय में इस तरह की प्रतिमाओं के विसर्जन पर क़ानूनन पाबंदी लगा दी जाए. प्रतीकात्मक विसर्जन के लिए छः इंच से छोटी मूर्ति जो सिर्फ मिट्टी से बनी हो, उस पर कोई रंग-रोगन न लगा हो – की इजाजत दी जा सकती है. वैसे भी, आयोजक अपनी झूठी प्रतिष्ठा और झूठी शान के लिए विशालकाय गणेश की मूर्तियाँ बिठाते हैं. ऐसी मूर्तियों को स-सम्मान रीसायकल-रीयूज़ किया जाए.
आशा है, मानव कल्याण के लिए इस संबंध में माननीय न्यायालय अवश्य ही कुछ कदम उठाएगा. वरना, लोग तो धर्मांध हो चुके हैं और उन्हें सही-गलत का भान नहीं हो पा रहा है.

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राम! राम!! राम !!! हम ये क्या कर रहे हैं?
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पहली रायः जगत-जोड़ता-जाल पर हिन्दी जाल जगत की संख्या हजार का आंकड़ा भी नहीं छू सकी है, तो इसका एकमात्र कारण – हिन्दी के लिए कोई मानक फ़ॉन्ट का नहीं होना है. यूनिकोड से पहले, हर व्यक्ति ने, जिसने भी इंटरनेट पर हिन्दी में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही, वह अपना नया फ़ॉन्ट और नया कुंजीपट लेकर आया. इसमें सरकार के साथ-साथ हिन्दी के आईटी-प्लानरों-डेवलपरों की भी भारी गलती है. इस गलती को सरकार कुछ सुधारने जा रही है – तमिल में तमिल इनस्क्रिप्ट कुंजीपट तथा यूनिकोड तमिल किसी भी नए कंप्यूटर के साथ बेचा जाना अनिवार्य कर दिया गया है. तमिल इनस्क्रिप्ट कुंजी पट को मानक माना गया है, बाकी सारे कुंजी-पटों को अवैध घोषित कर दिया गया है. हिन्दी में भी यही करना होगा. ऊपर से, अभी भी लोग विंडोज़ 95/98 से बाहर निकल नहीं पाए हैं. दरअसल, इसके पीछे हिन्दी भाषियों की पीसी खरीदने की/उन्हें अद्यतन करने की क्षमता भी है. मैं भी अपने पाषाण-कालीन लॅपटॉप- 33 मेगाहर्त्ज, 8 एम.बी. रैम युक्त – से विंडोज़ 95 में आई लीप पर प्रायः अभी भी हिन्दी में लिखता हूँ, फिर उसे यूनिकोड में परिवर्तित करता हूँ. अपने यहाँ, पुरानी, नॉन-कम्पेटिबल मशीन को फेंकने का तो रिवाज ही नहीं है. लोग जैसे तैसे काम चलाते ही रहते हैं. मगर, एक बार सभी यूनिकोड अपना लें, तो देखते-देखते ही हिन्दी के जाल स्थलों की लाइन लग जाएगी. और, यह होना ही है- अभी नहीं, तो शायद चार-पाँच साल बाद...
दूसरी रायः जालघर पर हिन्दी जालघरों की संख्या तो बढ़नी ही है. रफ़्तार में तेजी तब आएगी जब बड़े प्लेयर जैसे कि याहू और गूगल (हिन्दी में गूगल तो है ही) हिन्दी कॉन्टेंट तैयार करने लगेंगे.
तीसरी राय: हिन्दी जालघर का विकास स्वतःस्फूर्त ही होगा. किसी तरह का नियंत्रण इसका किसी प्रकार भला नहीं कर सकेगा. व्यक्तिगत रूप से हम सभी को इतना तो करना ही होगा कि हिन्दी में कान्टेंट तैयार कर जालघरों को समृद्ध बनाया जाए, ताकि लोग हिन्दी जालघरों पर आएँ. और जब वे हिन्दी जालघरों की सैर करें तो उन्हें अपने काम की, सभी तरह की सामग्री यहाँ मिल सके. क्योंकि, जब तक उन्हें हिन्दी में सामग्रियाँ नहीं मिलेंगी, इक्का दुक्का, ऑर्नामेंटल रूप में प्रतिष्ठित हिन्दी पृष्ठों को वह यदा कदा ही देखेगा और अंग्रेजी पर अपनी निर्भरता खत्म नहीं करेगा. ‘रचनाकार’, ‘अनुगूंज-सुभाषित’, ‘निरंतर’ जैसे कई व्यक्तिगत-सामूहिक प्रयास करने होंगे तभी जालघर पर हिन्दी समृद्ध हो सकेगी. वैसे- यह समृद्धि अंततः आएगी तो, पर इसमें विविध तकनीकी कारणों से समय तो लगेगा.
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एचबीसीएसई-टीआईएफ़आर मुम्बई में पिछले दिनों इंडिक डेवलपर मीट ( http://www.indlinux.org/wiki/index.php/IndicMeet2) का सफलता पूर्वक आयोजन किया गया. यूँ तो यह आयोजन सराय, एचबीसीएसई, सीडॅक तथा रेडहेट इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में हुआ, परंतु इसका बीज बोने से लेकर इसे सफल बनाने तक इंडलिनक्स के ‘वन-डीमॉलिशन-मैन’ जी. करुणाकर ( http://cartoonsoft.com/blog ) का ही सारा योगदान रहा. यहाँ तक कि प्रायोजकों से समय पर पैसा नहीं आने पर करुणाकर को बैंक की अपनी निजी चैकबुक भी फाड़नी पड़ गई. इंडिक कम्प्यूटिंग जगत करुणाकर का सदैव ऋणी रहेगा.

वैसे, यह आयोजन दो बातों के लिए हमेशा याद रखा जाएगा-
पहला- आमिष मुंशी के धुआंधार प्रस्तुतीकरण के बीच में ही आयोजन के कर्ताधर्ता - जी. करुणाकर का क्रैश हो जाना.

वैसे, बाद में करुणाकर ने यह स्वीकारा कि झपकी लगने में आमिष के प्रस्तुतीकरण का किसी प्रकार का योगदान नहीं था. दरअसल, वे हैकिंग सेसन के कई टीमों के बीच तारतम्य बिठाने व इस मीट को सही दिशा देने में इतने उलझे रहे कि वे पिछले कई दिनों-रातों तक सो नहीं पाए... और अंततः क्रैश हो गए... आमिष आप रिलेक्स फ़ील कर सकते हैं.
दूसरा- इंडिक डेवलपर मीट में जॉनी लीवर का पदार्पण.
विशेष आमंत्रित अतिथि जॉनी लीवर को कम्प्यूटर टर्मिनॉलॉज़ी के हिन्दी इंटरफेसेस दिखाए गए. देखते ही वे अपनी खास स्टाइल में बोले- “क्या बकवास अनुवाद है. बिलकुल फेल. क्या? बिलकुल – बोले तो - एकदम फेल. ये नई चलने का. इसी लिए तो कोई पब्लिक तुम्हारे हिन्दी कम्प्यूटर को घास नहीं डालता. हम जो बोलता है वैसा करो. फिर देखो पूरा पब्लिक कैसे हिन्दी कम्प्यूटर को गले से लगाने के लिए पिल पड़ेगा.”
फिर उन्होंने अपनी स्टाइल में कम्प्यूटरों के फ़िल्मी-रूप में अनुवाद करने की सलाह यूँ दी-
(टीपः पहली बात सत्य है, दूसरी असत्य बात का दिवास्वप्न - 16 सितम्बर 05 के मिडडे में प्रकाशित प्रीतम नचने के लेख – से, साभार, आया)
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जब मैं ट्यूशन देने के लिए उन लेक्चरर महोदय के घर पहले दिन पहुँचा तो पाया कि उनके सरकारी आवास के प्रवेश द्वार के पास दालान-नुमा स्थल पर एक टेबल और दो कुर्सियाँ लगी हुई हैं. मैं तत्काल समझ गया कि इसी स्थल पर विद्यादान करना होगा. चूंकि पहले ही बात हो चुकी थी, वे, उनकी पत्नी और दो पुत्रियों समेत सारा परिवार बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहा था,. मैं चाय-वाय नहीं पीता था और यह बात उन्हें मालूम थी लिहाजा भीतर बैठक में प्रारंभिक चाय-पान हेतु पूछने की औपचारिकता के उपरांत सीधे उस टेबल कुर्सी पर आसन जमाकर पढ़ाने का आग्रह किया गया, जिसे जाहिर है, मैंने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया.
उनकी बड़ी लड़की देखने में औसत थी, परंतु छोटी लड़की बहुत ही खूबसूरत थी. मुझे उस छोटी लड़की को पढ़ाना था, जो उस वक्त छठीं कक्षा में पढ़ रही थी. उसकी उम्र और कद काठी से यह प्रतीत होता था कि वह तो दसवीं-ग्यारहवीं की छात्रा तो होगी ही. बाद में पता चला था कि वह कुछ कक्षाओं में लगातार फेल होती रही थी.
जब हम पढ़ने-पढ़ाने के लिए बैठ गए तो मैंने देखा कि सारा परिवार सामने खुल रहे दरवाजे के पार आसन लगा कर बैठ गया है. मुझे थोड़ा सा अजीब लगा. उन्हें शायद ऐसा लग रहा होगा कि जैसे मैं गणित का पाठ पढ़ाने के बजाय उसे प्रेम का पाठ न पढ़ाने लगूँ, और इसलिए ऐसी पहरेदारी जरूरी समझ रहे थे. अपने विद्यार्थी के ज्ञान का स्तर जाँचने के लिए मैंने छठी कक्षा के गणित के कुछ सवाल उससे पूछे. उसने या तो कुछ जवाब ही नहीं दिये, या फिर जो जवाब दिये वे कुछ अटपटे थे और सही नहीं थे. मुझे लगा कि शायद वह घबरा रही है और इसी वजह से इन आसान से सवालों के भी जवाब नहीं दे पा रही है. मैंने सोचा कि एकाध दिन में वह सामान्य-सहज हो जाएगी. मैंने छठी कक्षा के हिसाब से गणित के कुछ प्रारंभिक सूत्र और सवाल उसको हल कर बताए और इस प्रकार उस दिन का समय गुजर गया.
दूसरे दिन स्कूल में कुछ लेक्चरों ने गूढ़ निगाहों से देखते हुए मुझसे पूछा कि पढ़ाने का सिलसिला कैसा रहा? मुझे लगा कि वे कुछ बताना-बोलना चाहते हैं, मगर किसी वज़ह से ऐसा नहीं कर पा रहे. मैंने भी कुरेदना उचित नहीं समझा. वैसे भी वे सब के सब अपनी उम्र के 40-50 वें वर्ष में थे और उनके सामने तो हम बच्चों और अन्य छात्रों जैसे ही थे, ऊपर से दिहाड़ी पर थे इसलिए वो भी हमसे दूरी बनाए रखते थे. उस स्कूल का प्राचार्य महाभ्रष्ट था. स्कूल के हर बजट और हर खर्च में से वह अपना हिस्सा वसूलता था. जब मुझे मेरी पहली तनख्वाह मिली थी तो उसने मुझसे पैसे मांगे थे कि तुम्हें अधिक और अवास्तविक पीरियड दिलाकर अगले माह और ज्यादा तनख्वाह दिला दूंगा. मैं शायद भाग्यशाली रहा कि भारत में पनप रहे भ्रष्टाचार का सामना मेरी पहली ही तनख्वाह, मेरी पहली ही नौकरी से हो गया था.
दूसरे दिन जब मैं ट्यूशन पढ़ाने गया तो मैंने सोचा कि आज उस बालिका को थोड़ा सा तो आश्वस्त होना चाहिए. उस दिन मैंने कुछ और आसान से सवाल किए. उसकी घबराहट में कोई कमी नहीं आई थी. इसीलिए वह तीसरे और चौथे दर्जे के सवालों को भी हल नहीं कर पा रही थी. जैसे तैसे मैंने वह दिन निकाला. एकाध बार मेरी आवाज़ भी थोड़ी तेज हो गई तो लेक्चरर महोदय ने नम्रता से याद दिलाया कि मैं स्कूल में क्लास नहीं ले रहा हूँ, और ट्यूशन पढ़ा रहा हूँ, जहाँ विद्यार्थी बाजू में ही बैठा है.
तीसरे दिन तो मेरी इच्छा ही नहीं हो रही थी कि मैं उसे ट्यूशन पढ़ाने जाऊँ. जैसे तैसे मन मारकर पहुँचा. आज मैंने उसे गुणा भाग के सवाल पहले तो खूब अच्छी तरह से समझाए. फिर उसे एकाध सवाल हल करने को कहा. उसकी समझ में कुछ आ नहीं रहा था और वह कोई भी सवाल हल करने में आज भी असमर्थ थी. मैंने उसे कुछ पहाड़े करने को दिए. जो दूसरी कक्षा के विद्यार्थी करते हैं. वह उन्हें भी उल्टे सीधे कर रही थी. उसे पढ़ने में कठिनाइयाँ तो थी हीं, उसका लिखा हुआ भी प्रायः उल्टा सीधा और किसी की समझ से बाहर ही होता था. उसे पढ़ाते समझाते मैं भी अपना गणित भूल गया था और दो गुणा तीन बराबर सात करने लग गया था.
चौथे दिन तो मैंने तौबा ही कर ली. जाने कैसे उसने पांचवी की परीक्षा पास की होगी – मुझे आश्चर्य ही हुआ था. मैंने उस लेक्चरर महोदय से माफ़ी ही मांग ली, कि भई मुझसे तो यह नहीं होगा. वो लेक्चरर महोदय निराश तो नहीं दिखे, मगर उन्हें मेरी काबिलियत पर जो यकीन था, वह मुझे उनकी आँखों में, यकीनन ढहता दिखाई दिया. वह तो मुझे बहुत बाद में समझ में आया था कि वो बेचारी तो डिस्लेक्सिया नामक अनुवांशिक बीमारी से पीड़ित थी जिसमें व्यक्ति पढ़ने में कठिनाइयाँ अनुभव करता है. ऊपर से, उनके अभिभावकों को यह गुमान ही नहीं था कि वह ऐसी किसी बीमारी से पीड़ित भी है! वे तो उसे हमेशा कोसते रहते थे कि कैसी गधी लड़की है – ठीक से पढ़ भी नहीं सकती! ईश्वर ने उसके साथ कैसा मज़ाक किया था. वह ऐसी जन्मजात दिमागी बीमारी का शिकार थी, जिसमें उसका कोई कसूर नहीं था. वह तो ईश्वर ही उसका सबसे बड़ा गुनहगार था जिसने उस प्यारी-सी, सुंदर-सी लड़की को ऐसी बीमारी दे दी थी.
इधर, मुझ पर चढ़ा प्यार का खूबसूरत बुखार दिन-प्रतिदिन नई ऊँचाईयाँ छू रहा था. नित नई कसौटियों और परीक्षाओं से गुज़रता हुआ. दरअसल, उस स्कूल में पढ़ाने के लिए मैं गया था तो इसके पीछे एक खूबसूरत कारण यह भी था. प्यार के मनोरम अहसास को करीब से भुगतने की ख्वाहिशें लिए ही तो मैं वहाँ गया था...
जारी... अगले किसी ब्लॉग-पोस्ट में. (क्या आप अभी भी आगे की बकवास पढ़ना चाहेंगे???)
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प्रस्तुत है एक प्रयोगवादी ग़ज़ल :
ग़ज़ल
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दलीलों का दौर बन्द न हुआ
इश्क में ऐसे फैसला न हुआ
पतंगे के रास्ते में थी शमा
कैसे उसका कुसूर न हुआ
ये क्यों नहीं सोचता आदमी
जो आज था कल को न हुआ
बैठे हाथ धरे और ये मलाल
ये न हुआ वो भी न हुआ
जले को कटे का दर्द नहीं
किसी सूरत ये तर्क न हुआ
दूसरों का हो तो कैसे रवि
वो तो कभी खुद का न हुआ
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हिन्दी लिनक्स का एक और महत्वपूर्ण कदम
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उबुन्तु ( http://www.ubuntu.com ) – मानव के लिए लिनक्स – संस्करण 5.04 - के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में विश्व की विभिन्न समर्थित भाषाओं के साथ ही हिन्दी का नाम भी जुड़ गया है. अब उबुन्तु इंस्टाल तथा लाइव सीडी में पूर्ण हिन्दी समर्थन के साथ उपलब्ध है. इसमें गनोम 2.10 का हिन्दी संस्करण शामिल किया गया है. तारीफ की बात यह कि सारा संस्करण मुफ़्त इस्तेमाल तथा मुफ़्त वितरण के लिए है. आप इनके सीडी के आइएसओ मुफ़्त में डाउनलोड कर सकते हैं या मुफ़्त सीडी के लिए आदेश कर सकते हैं – यहाँ ( http://shipit.ubuntu.com ) से.
इसके लाइव सीडी को अपने कम्प्यूटर के सीडी ड्राइव में डाल कर सीधे ही सीडी से बूट करें, और आरंभिक भाषा चयन स्क्रीन में से हिन्दी चुनें. बस, हिन्दी वातावरण में काम करें. न कोई इंस्टाल का झंझट न पार्टीशन-जगह इत्यादि की समस्या. जब हिन्दी से मन भर जाए, लॉग-ऑफ करें, अंग्रेजी (या दूसरी कोई समर्थित भाषा, यदि आप जानते हैं) में लॉग-इन करें. और अंततः जब उबुन्तु से जी भर जाए, तो शटडाउन करें, सीडी बाहर निकालें, और अपने हार्डडिस्क के पुराने ओ-एस से बूट करें.
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प्यार की कशिश किसी व्यक्ति के मन में पहले पहल कब पैदा होती है?
शायद तब, जब वह किशोरावस्था को लांध कर युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखता है. उसके शरीर में हार्मोनल परिवर्तन की वजह से, अब तक की दुनिया जरा अलग, रंगीन और बदली-बदली सी दिखाई देती है. जबकि वह तो खुद ही बदल रहा होता है... पूरी तरह से...
मैं जिस स्कूल में पढ़ा, वह नगर पालिका द्वारा संचालित स्कूल था, उस स्कूल का नाम था राजा सर्वेश्वर दास नगर पालिका स्कूल. उसे लोग मुनिसपल स्कूल के नाम से ज्यादा जानते थे. शुरू में वह सिर्फ बालकों का स्कूल था. लड़कियों का अलग स्कूल था- परकोटे से घिरा हुआ – जेल की तरह. मुनिसपल स्कूल के एक रिवॉल्यूशनरी प्रिंसिपल ने तमाम विवादों से जूझते हुए, दो रिवॉल्यूशनरी लड़कियों को कक्षा आठ में एडमीशन दे दिया. तब मैं भी कक्षा आठ में पढ़ता था. मेरा सेक्शन सी था और लड़कियाँ सेक्शन ए में थीं. फिर तो ग्यारहवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते लड़कियों की संख्या बढ़कर सौ के करीब हो गयी. इस बीच किशोरावस्था के कुछ प्रेम प्रसंगों के सच्चे झूठे किस्से भी यदा कदा सुनाई देने लग गए थे, जिसमें ज्यादातर झूठे और झूठी शान बघारने के नाम पर होते थे. कभी किसी लड़के से कोई लड़की कभी कोई कॉपी डरते-डरते मांग लेती थी तो इसका बुखार उस लड़के को महीनों तक चढ़ा रहता था और वह उसे ही अपनी प्रेम कहानी का आरंभ मान लेता था.
इस बीच कुछ साहसी किस्म के लोग बाकायदा प्रेम पत्र भी लिख लेते थे. जो ज्यादा साहसी- से थे वे अपने दोस्त मंडली में अपने प्रेम-पत्र दिखाते थे, जिसे वे कभी न तो दे पाते थे, न उन्हें मिले होते थे. एक बहुत ही दुस्साहसी किस्म के छात्र ने प्रेम पत्र तो लिखा, परंतु उसे अपनी सहपाठी छात्रा को स्वयं दे पाने का साहस नहीं जुटा पाया. लिहाज़ा उसने बड़ा ही आजमाया हुआ-सा तरीका अख्तियार किया. उसने डाक विभाग पर अपने प्रेम पत्र को पहुंचाने का जिम्मा सौंपा और उसे लिफ़ाफ़े में रख कर पोस्ट कर दिया. पता उसने लड़की के घर का देने के बजाए स्कूल का ही दिया. शायद उसे डर था कि घर में वह पत्र गलत हाथों में पड़ सकता है. उसका वह पत्र डाकिए ने उस छात्रा को देने के बजाए स्कूल के डाक में ही दे दिया और, जाहिर है वह प्रिंसिपल के हाथ लग गया.
प्रिंसिपल ने पहले तो उस छात्रा को तलब किया. मगर मामला तो तरफा था. छात्रा के अनजान बनने पर उस छात्र को बुलाया गया जिसने बाकायदा अपना नाम, कक्षा व वर्ग लिख मारा था. जैसे ही उसने अपना मजनूं-पना कुबूल किया, उसकी तबीयत से धुनाई की गई. एक नहीं दो-तीन शिक्षकों ने उसे जमकर मारा. वह बेचारा जिंदगी में प्रेम करना भूल गया होगा. और, नहीं तो, जब भी वह किसी से प्रेम करता होगा, उसे वह मार जरूर याद आती होगी. उसकी मार के किस्से सुन कर अधिकांश छात्रों ने भी अपने-अपने प्रेम-प्रसंगों से अपने को दूर कर लिया. सच है, प्रेम के रास्ते कांटे और मार पीट भरे होते हैं.
ऐसा ही एक किस्सा और हुआ. किसी ने ऐसी ही दुस्साहसता के साथ अपनी किसी सहपाठिनी पर अपने प्रेम का इजहार कर दिया. उस सहपाठिनी को यह दुस्साहस या तो पसंद नहीं आया या फिर वह सहपाठी. उसने अपने सफेद कैनवस के जूते उतारे और जड़ दिए दो-चार सबके सामने. वह बेचारा हफ़्तों तक शर्म के मारे स्कूल नहीं आया और बाद में तो उसने स्कूल ही बदल लिया. कैनवस के सफेद जूते उसे जाने अनजाने अभी भी याद तो आते ही होंगे.
ऐसा नहीं था कि छात्र-छात्राओं के बीच प्रेम प्रसंगों की शुरुआत वहां, उस वक्त नहीं हुई हो. ग्यारहवीं कक्षा में मेरा बैंच मेट बहुत ही वाचाल किस्म का था और एक धनी-नेता-व्यवसायी का पुत्र था. वह ट्यूशन पर भी जाता था. उस जमाने में ट्यूशन करना माने गधे बच्चों को पास करवाने का साधन माना जाता था. ट्यूशन में एक सहपाठी छात्रा भी जाती थी. उनका प्रेम प्रसंग वहीं अंकुरित हो गया जो कई साल तक प्लेटोनिक-प्रेम के रूप में चलता रहा. क्योंकि मेरा शहर राजनांदगांव एक अत्यंत छोटा-सा कस्बा था और वहाँ का हर दूसरा आदमी एक दूसरे को जानता था. कहीं कोई पार्क जैसी जगह भी नहीं थी जहाँ प्रेमी-प्रेमिका साथ साथ घूम सकें. अंततः सामाजिक बाध्यता के चलते यह प्रेम प्रसंग भी असफल हो गया था – दोनों को अपनी शादियाँ अपने पालकों की मरजी से अलग-अलग जगह करनी पड़ी थीं.
मेरे मन में भी प्यार के बीज उसी दौरान ही पड़े. प्रेम में दुस्साहसी लोगों का ऐसा गंभीर हश्र देखकर भी क्या मैंने भी साहस भरा ऐसा कोई कदम उठाया था? ….
(..जारी)
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पहली खबर- इंटरनेट पर सबसे ज्यादा ढूंढा जाने वाला शब्द...
क्या वह शब्द सेक्स है? जी नहीं. पिछले दशक में (सन् 1995 से लेकर अब तक) इंटरनेट पर लायकोस (तब गूगल के पैर नहीं जमे थे) की सूची के अनुसार सबसे ज्यादा ढूंढा जाने वाला शब्द रहा – पामेला एंडरसन! कोई ताज्जुब नहीं. अगले दस बरस की सूची में ब्रिटनी स्पीयर्स ही होंगी, ऐसा, मेरा कयास है :)
समाचार यहाँ देखें-
http://news.com.com/Pamela+Anderson+tops+a+decade+of+Web+search/2100-1026_3-5877009.html?part=rss&tag=5877009&subj=news
दूसरी खबर – इंटरनेट के युग में, उंगलियों के इशारों पर माउस के द्वारा तमाम आवश्यक जानकारियों को तत्क्षण ढूंढ निकाल-निकाल कर हम होशियार हो रहे हैं या निरे बुद्धू बनते जा रहे हैं? मुझे तो लगता है कि मामला बुद्धू वाला ही है, क्योंकि अब तो मैं कोई भी जानकारी, चाहे किसी शब्द का अर्थ भी देखना हो तो मैं अपने दिमाग पर जोर देने के बजाए माउस क्लिक पर जोर देने लगा हूँ...
पूरा, तथ्यपरक समाचार यहाँ पढ़िए और अपने आप का एनॉलिसिस कीजिए कि इंटरनेट का इस्तेमाल कर आप आखिर किस दिशा में जा रहे हैं...
http://news.com.com/Are+we+getting+smarter+or+dumber/2008-1008_3-5875404.html?part=rss&tag=5875404&subj=news
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इस कार्टून को नहीं चाहिए कोई शब्द…

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मुझे तमिल पढ़नी नहीं आती, मगर तमिल पत्रिका में छपे इस कार्टून को समझने के लिए किसी तरह के शब्दों की दरकार मुझे नहीं हुई.
ऊपर से, इसके प्रमुख कैरेक्टरों को बदला भी जा सकता है – उदाहरण के लिए जयललिता और करूणानिधि की जगह क्रमशः मायावती और मुलायम सिंह, और कहानी वही रहेगी- एकदम दुरुस्त!
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हो सकता है कि आपके घर में इस बात पर कोहराम मचता हो कि टीवी पर किस समय कौन-सा प्रोग्राम लगाया जाए. कारण, भाई जी को एमटीवी-फैशन टीवी देखना होता है तो बहन जी सांता बारबरा - क्योंकि सास भी... जैसे कार्यक्रमों की दीवानी होती हैं. बच्चे केबीसी-2, अंताक्षरी और डांस-डांस की कोई कड़ी छोड़ना नहीं चाहते. आपको हर आधे घंटे पर समाचार अपडेट्स देखना अत्यंत जरूरी लगता है. ऊपर से क्रिकेट का मियादी बुखार तो रहता ही है.
घर में टीवी एक, देखने वाले कई. हर एक की अपनी पसंद. एक ही समय में कई-कई चैनलों में आने वाले कई-कई पसंदीदा कार्यक्रम. संभव है कि प्रायः किसी एक समय एक चैनल पर अंताक्षरी का फाइनल राउंड चल रहा हो और दूसरे पर एमटीवी का फाइनल काउंट डाउन. किसी और चैनल पर क्रिकेट का फाइनल मैच दिखाया जा रहा हो, तो किसी अन्य चैनल पर वार्षिक व्यंजन प्रतियोगिता का परिणाम दिखाया जा रहा हो. फिर घर में हर एक को दूसरे का पसंदीदा कार्यक्रम निहायत ही घटिया, उबाऊ, निरर्थक और इसी प्रकार न जाने क्या क्या लगता है. लिहाजा वे अपने पसंदीदा कार्यक्रम को ही देखने और दूसरों को दिखाने की जुगाड़ में लगे हुए रहते हैं. जाहिर है, ऐसी परिस्थितियों में आपके घरों में यदा कदा महासमर भी तो होता ही होगा.
परन्तु कुछ लोग मेरी तरह के भी होते होंगे, जिन्हें टीवी के हर कार्यक्रम में आनंद आता है. अंताक्षरी भी अच्छी लगती है और रसोई शो भी. फिल्मी क्विज में भी मजा आता है और डाक्यूमेंट्री में भी. डेली सीरियल में तो दैनिक अख़बार की तरह का एडिक्शन है. फिल्म बेस्ड कार्यक्रम और फिल्मों की तो बात ही क्या है! क्रिकेट, कार रेसिंग, बॉक्सिंग के थ्रिल का मजा टीवी के अलावा कहीं नहीं है. अब ऐसी स्थिति में दिमाग के भीतर महासमर होता रहता है कि कौन-सा प्रोग्राम देखें और कौन सा छोड़ें – क्योंकि सभी साले प्राइम टाइम में ही, पता नहीं क्यों दिखाते हैं.
जब एक चैनल पर किसी पसंदीदा डेली सीरियल का महत्वपूर्ण एपिसोड चल रहा होता है, उसी समय, फॉर्मूला वन कार रेसिंग का फ़ाइनल राउंड किसी दूसरे चैनल पर दिखाया जा रहा होता है. दोनों ही कार्यक्रम अपने को बहुत पसंद हैं. पर दोनों कार्यक्रमों को एक साथ तो नहीं देख सकते. बहुत हुआ तो नई तकनीक वाली पिप (पिक्चर इन पिक्चर) टीवी या डबल विजन टीवी लाई जा सकती है, परंतु आवाज तो किसी एक चैनल की ही सुननी पड़ेगी. फिर यह भी तो होता है कि किसी तीसरे-चौथे चैनल पर किसी सूरत न छोड़ने लायक पसंदीदा कार्यक्रम चल रहा हो.
कभी ऐसा भी होता है कि किसी चैनल पर अमिताभ बच्चन और रानी मुख़र्जी की फ़िल्म ब्लैक को देखते रह गए या क्रिकेट मैच में फंस कर रह गए तो पता चलता है कि पाँच-सात पसंदीदा कार्यक्रम विभिन्न चैनलों में आए, आकर चले भी गए और हम हाथ मलते रह गए.
प्राइम टाइम का तो और भी रोना है. प्रतिदिन प्राइम टाइम पर विभिन्न चैनलों में एक से एक अच्छे कार्यक्रम दिखाए जाते हैं. जाहिर है, किसी भी चैनल का प्राइम टाइम का कोई भी कार्यक्रम किसी के लिए भी छोड़ा जाने लायक नहीं रहता. सभी कार्यक्रमों को देखना टीवी चैनलों-प्रोड्यूसरों के लिए तो जरूरी है ही – दर्शकों के लिए भी आवश्यक हैं. पर एक साथ इतने सारे अच्छे कार्यक्रमों को कोई कैसे देख सकता है. इसका कोई हल तत्काल निकाला जाना चाहिए.
किसी ने इस समस्या का हल ऐसे सुझाया – दो-चार टीवी सेट ले आओ और वीसीआर / वीसीडी या कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क में इन्हें रेकॉर्ड कर लो. फिर मजे में अपने प्रोग्राम बाद में, फुरसत में देखो. इससे आपका पसंदीदा कोई प्रोग्राम छूटेगा नहीं. पर, तब भाई, आखिर दिन में चौबीस ही तो घंटे होते हैं ना! मेरे जैसे सभी चैनलों के सभी कार्यक्रमों के दीवानों के लिए तो यह आइडिया भी फेल है! ऊपर से, हर महीने-दो-महीने में एक नया चैनल और चला आता है – ढेर सारे नए, मजेदार कार्यक्रमों को लेकर.
जाहिर है, क्या देखें-क्या न देखें का झगड़ा तो बढ़ता ही रहेगा. आपके घर में भी और मेरे मन में भी.
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मुझे नहीं दरकार वज़न की...
अनूप की ग़ज़ल (http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/08/blog-post.html) वाकई खूबसूरत है. परंतु उन्हें दर्द है कि उनकी ग़ज़ल में उन्हें वज़न दिखाई नहीं दे रही, बहर बाहर जा रहा है, काफ़िया तंग हो रहा है ...
बहरहाल, अनूप को तथा अपने सभी चिट्ठाकार दोस्तों को एक बार फिर से दरख्वास्त करता हूँ कि महत्वपूर्ण बात यह है कि आप लिखें. वज़न तो लिखते-लिखते अपने आप आएगा. अगर आप लिखेंगे ही नहीं तो वज़न किधर से आएगा. मेरी बात में वज़न नहीं दिखाई दिया? चलो, कोई बात नहीं, मशहूर शायर, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता – रघुपति सहाय ‘फ़िराक गोरखपुरी’ की बात मानेंगे? तो ठीक है. उनकी पुस्तक ‘उर्दू कविता’ (आईएसबीएन 81-7055-553-1) से उद्धृत कुछ अंश पढ़िए:
“रोना गाना सबको आता है... छोटा बच्चा भी पालने में लेटा हुआ कुछ गाने की कोशिश करता है. संसार और जीवन को शब्द और संगीत में घुला देने की वृत्ति या प्रेरणा सर्वव्यापी है; और यहीं से कविता शुरू हो जाती है... अच्छे शेर, अच्छी पंक्ति की परख कभी-कभी बड़े-बड़ों को नहीं होती. यही तमाशा संसार के साहित्यिकों में नजर आता है. वर्ड्स्वर्थ की कविता शेली और विलियम ब्लेक को पसंद नहीं थी. शेली ने वर्ड्स्वर्थ की कविता पढ़कर उन्हें नैतिक हिजड़ा कहा; और ब्लेक ने कहा कि वर्ड्स्वर्थ का संसार घास-पात का संसार है. स्विनबर्न की कविताओं से चिढ़कर लॉर्ड मौरले ने उन्हें सूअर का बच्चा कहा था. हम केवल अंदाजा लगा सकते हैं कि कबीर, सूर, तुलसी और बिहारी एक दूसरे की कविता को कैसा समझते! वाल्मीकि और तुलसीदास एक दूसरे की रामायण को कैसा समझते! .... आजकल के एक श्रेष्ठ हिन्दी कवि ने रीतिकाल के कवियों को सँपेरा कह दिया. और वह लोग उच्चकोटि की आधुनिक कवितो को क्या कहते? …. कवि एक दूसरे की कविता को कैसा समझते हैं और जन-साधारण में भी एक को पसन्द करने वाले दूसरों को कितना पसन्द करते हैं, यह एक रोचक प्रश्न है...”
ऊपर के उद्धरण से साफ जाहिर है कि रचनाधर्मिता किसी नियम कायदे कानून और पसंद नापसंद को सिरे से खारिज करती है. कुछ स्थापित ग़ज़लकारों (जाहिर है, शेली जैसों) ने मेरी व्यंग्य ग़ज़लों को ग़ज़ल मानने से इंकार कर दिया. ठीक है, मैंने उन्हें व्यंज़ल नाम दे दिया. लोगों को व्यंज़ल पढ़ने में आनंद आता है, मुझे लिखने में. और, लेखक-कवि लिखता किसलिए है? पाठकों के लिए, किसी कवि-आलोचक के लिए नहीं.
और, मैं तो कहता हूँ कि ईस्वामी की लिखने की शैली (http://hindini.com/hindini/?p=62 ) भी नायाब है. आप उनके लिखे हर वाक्य पर हँस सकते हैं – दिल खोल कर हँस सकते हैं. बताइए, वे हिन्दी के किस व्याकरण और विन्यास, और यहाँ तक कि किस शब्द को फॉलो करते हैं? रचनाधर्मिता यही है, और यही चीज एक रचनाकार को आगे, एक अलग पथ पर लेकर जाती है.
तो, लिखते चलिए, लिखते चलिए- वज़न की चिंता किए बगैर...
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व्यंग्यः अगर आदमी अमर हो जाए...
आदमी अमरत्व से बस, एक कदम पीछे…
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अब अगर आपके टूटे फ़ूटे, बुढ़ा गए अंग – मसलन हृदय और हाथ पाँव इस तरीके से स्वचालित रिपेयर होकर नए बनने लगें, तो यकीन मानिए, यह तो लगभग ऐसा ही है, जैसे आदमी ने अमरत्व को प्राप्त कर लिया. और, अब तो सचमुच लगता है कि वह अपने संपूर्ण अमरत्व से सिर्फ, और सिर्फ एक कदम पीछे है. कल्पना करें कि आदमी को अमरत्व प्राप्त हो जाए, तो ऐसी स्थिति में होगा क्या?
जब आदमी अमर हो जाएगा, तो दो-तीन सौ साल जीने के बाद वह जीवन से भयंकर रूप से बोर हो जाएगा, पूरी तरह से ऊब जाएगा. फिर वह मरने के तौर तरीके ईजाद करेगा. मरने के एक से एक बेहतरीन तरीके. एक से एक नायाब तरीके. फिर वह सहर्ष घोषणा करेगा कि अमुक दिन, अमुक समय, अमुक-अमुक नायाब, खर्चीले तरीके से मरने जा रहा है. उसके मरने के दिन समारोह होंगे, नाच गाना होगा और सारा कार्यक्रम भव्यता से सम्पन्न होगा. जो आदमी जितना ज्यादा सम्पन्न होगा, वह उतना ही शानदार तरीके से मरेगा.
जब, अमर आदमी के अंग स्वचालित तरीके से रिपेयर हो जाया करेंगे और नए उग आया करेंगे तो फिर उसे किस बात का डर होगा? वह हर किसी से पंगा लेता फिरेगा और बात-बात में हर किसी का हाथ पाँव काट डालेगा. सड़कों पर हर कोई, बेतरतीब, एक दूसरे को कुचलता काटता चलेगा. और, अगर किसी को अपना कोई अंग पसंद न आएगा हो तो वह उसे काट डालेगा ताकि कुछ नया-सा, अच्छा अंग उग आए.
चूँकि मरने वालों की संख्या में अत्यंत कमी हो जाएगी, और लोग-बाग़ सोच-समझकर ही मरा करेंगे, अतः पृथ्वी पर जगह की कमी हो जाएगी. लिहाजा, क़ानून बन जाएगा कि किसी फैमिली में कोई बच्चा तब तक पैदा नहीं होगा जब तक कि उस फैमिली का कोई सदस्य स्वेच्छा से मर नहीं जाता. पृथ्वी पर एक मरेगा, स्थान खाली करेगा तभी उस स्थान पर दूसरा आ पाएगा. जो इस काम के लिए मरेगा, उसका नाम शहीदों में लिखा जाएगा और उसके लिए स्मारक बनाए जाएंगे. एवज् में जो बच्चा पैदा होगा, वह सबकी आंखों का तारा तो होगा ही, लोग उसे अपने पास रखने के लिए, उसे देखने के लिए, उसे प्यार करने के लिए, उसे पालने के लिए एक दिन, एक घंटे, या दस मिनट के लिए किराए पर जिसकी जैसी हस्ती हो, लिया करेंगे. कोई मरेगा तो, या किसी के यहाँ बच्चा होगा तो ये खबरें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खबरें हुआ करेंगी. स्थानीय स्तर पर तो समारोह के लिए अवकाश भी हुआ करेगा. और कौन जाने, ये समारोह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने लगें.
आदमी जब अमर हो जाएगा तो फिर उसे कल की चिंता क्यों हो? वह आने वाले कल की चिंता करना पूरी तरह छोड़ देगा. वह वर्तमान में जिएगा, हर रोज जिएगा, पूरी तरह जिएगा. साल-दर-साल, सैकड़ों साल. कोई पाँच सौ साल की उम्र का आदमी सौ साला उम्र के व्यक्ति से बहस में कहा करेगा – ज्यादा बकबक मत कर, तेरी जितनी उमर है, उससे पाँच गुना मेरा अनुभव है. बहुत रद्दी स्थिति आ जाने पर होगा यह कि कोई सरकार या कोई देश का सम्राट यह नियम बना देगा कि कोई भी आदमी सात सौ साल से ज्यादा नहीं जी सकेगा. कभी कोई, अपेक्षाकृत जवानों की सरकार, अध्यादेश ही निकाल देगी कि अमुक दिन से पाँच सौ साल से ज्यादा उम्र के तमाम मनुष्यों को जिंदा रहने पर पाबंदी लगाई जाती है, लिहाजा वे अपने-अपने हिसाब से मरने का कार्यक्रम तय कर लें, अन्यथा उस दिन के बाद उन्हें कहीं से भी ढूंढ कर तत्काल मार दिया जाएगा.
उफ़... जीवन के गुणा भाग कितने जटिल हो जाएंगे तब!
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ग़ज़ल
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सड़ाएगा सड़ता झाग जो है
डसेगा गले का नाग जो है
उगलेंगी तो बेशक जलाएंगी
इस पापी पेट में आग जो है
कहीं ऊंच तो है कहीं नीच
जीवन का गुणा भाग जो है
खताएँ सारी मुआफ़ तुम्हारी
आख़िर चाँद में दाग जो है
महफ़िल में दुत्कारा गया
गाया बेमौसम फ़ाग जो है
पूछ परख खूब है रवि की
हंस के भेस में काग जो है
*-*-*
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गूगल डेस्कटॉप खोज पर पहली नजर यहाँ (http://hindini.com/hindini/?p=23) पड़ी थी. इस खोज का नया बीटा 2 संस्करण आपके डेस्कटॉप पर बैठकर ही ‘तैरती पट्टी’ या ‘कार्य पट्टी के भीतर ही’ या ‘बाजू पट्टी’ के रूप में आपकी सेवा में हाजिर हो चुका है. हिन्दी (यूनिकोड) में ढूंढने के लिए इससे बेहतर औज़ार अभी, हाल-फिलहाल तो और कोई मेरी नजर में नहीं है. ऊपर से, इसकी खोज डायनामिक है. जैसे जैसे आप अक्षरों को टाइप करते जाते हैं, खोज परिणाम उपयुक्त रूप में बदलते जाते हैं. दर्जनों प्लगइन्स के जरिए इसकी फंक्शनलिटी को और भी बढ़ाया जा सकता है. उदाहरण के लिए, मेरे 80 जीबी एमपी3 संगीत संग्रह के हजारों फ़ाइलों में से किसी एक गीत को मात्र एक दो की-वर्ड के जरिए ढूंढ लेना पलक झपकाने जैसा आसान और तीव्र हो गया है. ‘कहानी’ शब्द युक्त किसी फ़ाइल को ढूंढने का इससे बेहतरीन तरीका और क्या हो सकता है! यह इंटरनेट से भी इसी तीव्र गति से ढूंढ लाता है. और, जैसा कि गूगल का धर्म है, यह औज़ार सभी के मुफ़्त इस्तेमाल के लिए जारी किया गया है.
सचमुच, जीवन सरल हो गया है!
धन्यवाद गूगल!
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ऐसा तो हर सेंसिबल भारतीय महसूस करता है योर ऑनर...
व्यंज़ल
गुस्सा देखा नहीं कभी उसका
दुःख किया नहीं कभी उसका
वैसे तो था बहुत याराना पर
खयाल आया नहीं कभी उसका
व्यर्थ में न जोड़ो रिश्ता मैंने
नाम लिया नहीं कभी उसका
इबादतें तो कीं सुबह शाम पर
दर्शन मिला नहीं कभी उसका
पत्थर में ये बात तो है रवि
मिटे निशां नहीं कभी उसका
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सानिया मिर्ज़ा के लिए एक फ़तवा...
सानिया को फतवा
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कुछ मौलवियों को खुशी है कि सानिया उनके कौम का नाम रोशन कर रही है. पर साथ ही कुछ को दुःख भी है कि सानिया ढंग के कपड़े पहन कर टेनिस नहीं खेलती है. इनका बस चले तो सानिया को भी बुर्का पहन कर टेनिस खेलने को मजबूर कर दें.
बात साफ है. ऐसे लोग सानिया के खेल को नहीं देखते. उसके कपड़े देखते हैं कि उसने कितने कम कपड़े पहने. अश्लीलता देखने वाले की आँख में होती है. नहीं तो हर बच्चा अपनी मां को अश्लील समझता!
अल्लाह इन्हें सद् बुद्धि दे!
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ये ईश्वर के खरीदार हैं जरा इन्हें देखिए...
बिक रहा है ईश्वर...
भारत के कुछ क्षेत्रों में, और, खासकर महाराष्ट्र में- वह भी खास मुम्बई में, गणेशोत्सव का दस दिवसीय त्यौहार बड़े ही उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है. उत्सवों की परंपरा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है. परंतु आधुनिक युग में उत्सवों पर बाजार वाद हावी हो गया है.
किसी भगवान के लिए, किसी ईश्वर के लिए इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता है कि उसे बाज़ारों में बेचा जाए? गणेश चतुर्थी के अवसर पर कुछ दिनों से शहर के बाजारों में गणेश जी की प्रतिमाओं को बेचने के लिए दुकानें सज गई हैं और रेहड़ी-ठेलों में लोग गणेशी जी की मूर्तियाँ बेच रहे हैं. बड़ी मूर्ति कुछ हजार रुपए में बिक रही है तो छोटी मूर्ति कुछ रुपयों में. आप चाहें तो बारीकी से और कृपणता से मोल भाव भी कर सकते हैं कि क्या साला मिट्टी की मूर्ति के हजार रूपए मांग रहा है? पाँच सौ रूपए में दे. अगर आपके पास ज्यादा रूपया है तो आप ज्यादा मंहगा गणेश जी की मूर्ति खरीद सकते हैं. और भगवान की दया से आप अगर अमीरी को ठेंगा दिखाते हैं तो फिर कोई सस्ती सी मूर्ति ही खरीद लाइए. बाजार में हर भाव की, हर जेब के लिए मूर्ति मौजूद है. ऊपर से, बाजार वाद के कारण मूर्तियाँ टकसालों में सिक्कों की तरह ढाली जा रही हैं. सांचे में ढाल कर बनाई गई प्लास्टर ऑफ पेरिस की रंग रोगन की गई मूर्तियों को सस्ते में बेचा जा रहा है. इससे विक्रेताओं को मेहनत कम लग रही है और उन्हें नफ़ा ज्यादा हो रहा है. ग्राहक भी खुश है कि उसे गणेश जी की बड़ी मूर्ति पानी के भाव में मिल गई. परंतु जब इनका विसर्जन किया जाता है, तो तालाब और नदी में प्लास्टर ऑफ पेरिस भीषण पर्यावरणीय खतरा पैदा करते हैं. बमुश्किल आज से पंद्रह-बीस साल पहले ऐसी स्थिति तो नहीं थी. उत्साह उतना ही रहता था, परंतु उत्सव में विकृतियाँ कम थीं. अब विकृतियाँ इतनी हो गई हैं कि सुप्रीम कोर्ट को भी यह फरमान देना पड़ रहा है कि चाहे गणेशोत्सव हो या कोई अन्य आयोजन, लाउड स्पीकर रात दस बजे के बाद बन्द रहेंगे. वैसे भी गणेशोत्सव के नाम पर कांटा लगा नुमा गीतों से गली चौराहे गूंजते रहते हैं.
हे मानव! तूने तो ईश्वर को भी बेच दिया!
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ग़ज़ल
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कितना बड़ा हो गया है आदमी
ईश्वर को बेच खाया है आदमी
खुदा ने बनाया आदमी बस एक
देवों में फर्क बो दिया है आदमी
ईश्वर, अल्लाह और ईशू के नाम
खूब कत्लेआम किया है आदमी
पहचानता नहीं अपनी ही सूरत
बड़ा बेईमान हो गया है आदमी
पूछता है ईश्वर से रवि कि क्या
गलती से वो बन गया है आदमी
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जीवन के कुछ छींटे-दार अनुभव
पहली नौकरी - पहला प्यार
सन् बयासी में जब इंजीनियरी की पढ़ाई करके निकले तो, और नौजवानों की तरह मेरे मन में भी बड़ा देश सेवा का बड़ा उत्साह था. वैसे भी उस दौर में अगर किसी को कहा जाता था कि वह इंजीनियर है तो उसे सामने वाले की एक दूसरी निगाह अवश्य प्राप्त होती थी. तब सिर्फ शासकीय इंजीनियरिंग कालेज ही होते थे. अब तो कुकुरमुत्तों की तरह उग आए प्रायवेट इंजीनियरिंग कालेजों के कारण आजकल लोग कहने लगे हैं कि भीड़ में कोई पत्थर उठाकर फेंको तो वह किसी न किसी इंजीनियर को पड़ेगा ही. पिछले साल ही मध्यप्रदेश के कई इंजीनियरिंग कालेजों की प्रथम वर्ष की पूरी सीटें नहीं भर पाईं. उस जमाने में नौकरियाँ इफ़रात होती थीं, और आपके पास तमाम विकल्प होते थे. कैंपस इंटरव्यू में तब अच्छे विद्यार्थी को अच्छी नौकरी की तलाश होती थी, और जिस संस्था को कुछ लोग बेकार समझते थे, अच्छे विद्यार्थी उसका इंटरव्यू ही नहीं देते थे.
मेरे पास भी कई विकल्प थे. एनटीपीसी कोरबा में अभी काम प्रारंभ ही हुआ था और कैंपस में चयन हो गया था. सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) में भी चयन हो गया था और इस बीच म.प्र.विद्युत मंडल (इनका कैंपस चयन में कभी भी विश्वास नहीं रहा!) की प्रवेश परीक्षा दे चुका था.
उस दौर में चूंकि नौकरी के कई-कई विकल्प सामने मौज़ूद होते थे, अत: हर कोई अपने हिसाब से बढ़िया विकल्प को पसंद करता था. पर, तब ये भी सच था कि तब इन्फोसिस और विप्रो जैसी आईटी कंपनियों का वजूद नहीं था और आपको सरकारी पे-स्केल, जिस पर सिर्फ दो वक्त की रोटी ही ढंग से खाई जा सकती थी, उतनी ही पगार पर काम करना पड़ता था, और इसका कोई विकल्प नहीं था. यह भी विकल्प नहीं था कि आज इन्फ़ोसिस से निगोशिएट किया और कल टीसीएस से. उस वक्त तो एक ही संस्था की नौकरी में जीवन निकालना होता था. खैर, एनटीपीसी कोरबा चूँकि नया-नया था, दर्री के जंगल में उसका निर्माण कार्य हो रहा था, और सबकुछ अस्तव्यस्त सा चल रहा था अत: दर्री में घूम-भटक कर मैं वापस चला आया. भिलाई स्टील प्लांट भी छोड़ दिया चूँकि प्लांट का जीवन और वहां के कोक ओवन के धुएँ मुझे रास नहीं आए थे, और, उस जमाने के वेतन तथा सुविधाओं में विद्युत मण्डल ज्यादा अच्छा प्रतीत होता था. फिर विद्युत इंजीनियर होने के नाते हम ऐसा समझते थे कि विद्युत मण्डल तो हमारा पैरेंट डिपार्टमेंट होगा और हम इस बहाने गांवों में भी सेवा देकर सच्ची देश सेवा कर सकेंगे. इस बीच, विद्युत मण्डल के चयन परिणाम के इंतजार में खैरागढ़ के तकनीकी स्कूल में छ: महीने तक हाई स्कूल के बच्चों को पढ़ाया. एक तरह से वह मेरी पहली नौकरी थी. हालांकि वह नौकरी दिहाड़ी पर थी, यानी कि मुझे प्रति पीरियड पढ़ाने के दस रुपए प्राप्त होते थे. जी, हाँ, दस रुपए. और मेरे साथी गैर तकनीकी को गणित पढ़ाने के पाँच रुपए. महीने भर पढ़ाने के उपरांत हर महीने लगभग सात-आठ सौ रुपए बन जाते थे. उस समय के हिसाब से यह रकम भारी भरकम ही होती थी. उस समय अगर किसी को हजार रुपए भी मिलते थे तो वह गर्व से लोगों को बताता फिरता था कि उसे महीने की पग़ार फ़ोर फ़िगर में मिलती है!
हाई स्कूल के बच्चे थोड़े शरारती, परंतु प्यारे थे. बच्चों को प्राय: शिक्षकों से शिकवा शिकायतें रहती ही हैं. रसायन विज्ञान के एक शिक्षक थे. बच्चों का कहना था कि उनके मुँह से सल्फर-डाई-ऑक्साइड की गंध आती रहती है. दरअसल उन्हें पायरिया था और वे इससे अनभिज्ञ विद्यार्थियों को प्रेम से अपने पास बुलाकर रसायन विज्ञान के फ़ॉर्मूले और समीकरण बताते थे.
चूँकि मैं वहाँ टाइम पास कर रहा था, अत: खाने पीने घूमने और मौज मस्ती के अलावा ज्यादा कुछ करता नहीं था. सुबह पाँच बजे उठ कर हम सामने प्लेग्राउंड में कसरत करते थे, और अपनी बाहों की मछलियों के लिए विशेष मंकी क्राउलिंग की वर्जिश करते थे. फिर एकाध घंटा बैडमिंटन खेलते थे. कभी-कभी पास ही इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के कोर्ट में जाकर टेबल टेनिस भी खेलते थे, पर प्रायः टेनिस खेलने के लिए नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय में अध्ययनरत सुंदर देवियों के साक्षात् दर्शनार्थ. आठ बजे नाश्ते के बाद, जो हम स्कूल के मेस में ही करते थे साढ़े दस बजे कक्षाओं में चले जाते थे तो दोपहर के एक घंटा भोजन अंतराल के अलावा फिर शाम पाँच बजे तक कक्षाओं में भयंकर व्यस्त रहते, चूंकि प्रति पीरियड दस रूपए जो कमाने होते थे. हम फिर ऐसी अतिरिक्त कक्षाओं की तलाश में रहते जहाँ कोई लेक्चरर छुट्टी पर गया हो.
वहाँ मेरी दोस्ती तुरंत ही अवनीश साहू से हो गई थी जो गणित का लेक्चरर था, और मेरे जैसे ही दिहाड़ी पर काम कर टाइम पास कर रहा था. वह बहुत ही स्मार्ट और हैंडसम था, और अगर वह बॉलीवुड में होता तो उस जमाने के धर्मेंद्र से लेकर देवानंद और आज के सलमान-हृतिक सबकी छुट्टी कर सकता था. उसके चेहरे और शरीर का रंग ही ऐसा था जैसे कि गुलाबी रूज़ अभी अभी लगाया गया हो. वह शरीर से सुंदर तो था ही, विचार भी उसके उतने ही प्यारे थे. उसका धनी परिवार ठेठ गांव का था और खेती बाड़ी पर निर्भर था. दाल-भात पर ढेर सारा घी, जो वह अपने गांव से लाता था, डाल कर, चबर चबर कर अजीब आवाजें निकाल कर खाना उसे खूब पसंद था. विद्यार्थियों की नज़र में वह पढ़ाता बहुत बुरा था. विद्यार्थी मेरे पीरियड में, जो प्राय: गणित के बाद होता था, अकसर गणित के वे सवाल फिर से हल करवाने को कहते थे जो पिछले पीरियड में उनके सिर के ऊपर से गुज़र चुका होता था. दरअसल उन सवालों को मैं अभियाँत्रिकीय मोड़ देकर प्रायोगिक आधार पर समझाता था, जिससे वे उसे तुरंत समझ जाते थे.
इस बीच मेरी प्रसिद्धि, कि मैं गणित बढ़िया पढ़ाता हूँ, अंग्रेजी के लेक्चरार के पास भी पहुँच गई. उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उसकी बच्ची को गणित पढ़ा दूँ. वह गणित में जरा सी कमजोर है और चूंकि मैं बेहतरीन तरीके से पढ़ाता हूँ, अत: उस पर जरा सा उपकार कर दूँ. मैंने हामी भर दी. कुछ दूसरे लेक्चररों ने इनडायरेक्ट समझाया भी पर मैंने ध्यान नहीं दिया और सोचा कि चलो कुछ दिन की तो बात है, देखते हैं. फिर अंग्रेजी के वे प्राध्यापक महोदय निहायत ही गांधीवादी, सादगी पसंद व्यक्ति थे, और मुझे अच्छे लगते थे. उस होस्टल, जिसमें मैं रहता था, से पास पाँच मिनट की पैदल दूरी पर ही उनका घर था. मैं उसकी बच्ची को गणित पढ़ाने क्या गया, मैं अपना ही गणित भूलने लगा था.
जारी... अगले ब्लॉग में. (पर तभी जब आप चाहें...)
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पहली नौकरी - पहला प्यार - किश्त 2
मुझे उम्मीद नहीं थी कि इस घटिया एकालाप को आप सभी इतना पसंद करेंगे. धन्यवाद. अब आगे की कहानी के लिए यादों के भँवर जाल में जाकर सूत्रों को पिरोना होगा. वैसे भी इसे पोस्ट कर मैं अंतर्ध्यान सा हो गया था – (मैं अपने पीसी कुंजी पट से दूर हो गया था) अतः कृपया धैर्य बनाए रखें, और अकारण इंतजार करवाने के लिए मुझे क्षमा करें. सोमवार को आगे की कहानी आपको यहीं पढ़ने को मिलेगी, यह वादा है.
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सर्वोच्च न्यायालय में एक गुहार!
योर ऑनर!
माननीय न्यायालय के आदेश के तहत रात्रि 10 बजे के बाद से किसी भी तरह के आयोजनों में (गणेशोत्सव में भी) लाउडस्पीकरों का प्रयोग वर्जित किया गया है. अब आम जनता – बार-बार, लगातार, सारी रात्रि – ‘कांटा लगा’ जैसे फूहड़ गीतों से बचकर शांति की नींद सो सकती है. बहुत-बहुत शुक्रिया.
मेरी एक गुहार और सुनेंगे तो बड़ी कृपा होगी. जलाशयों में, नदियों में और समुद्र में प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी, जहरीले रंगों से पुती श्री गणेश भगवान की विशालकाय, हजारों प्रतिमाओं के विसर्जन के कारण पर्यावरण खतरा पैदा तो हो ही रहा है, जलाशयों, नदियों का रूप विकृत होता जा रहा है. ऐसे ही कुछ समाचारों के कतरन जो जेहन में अवसाद पैदा करते हैं, आपके अवलोकनार्थ नीचे दिए जा रहे हैं. माननीय न्यायालय से गुज़ारिश है कि किसी भी जलाशय में इस तरह की प्रतिमाओं के विसर्जन पर क़ानूनन पाबंदी लगा दी जाए. प्रतीकात्मक विसर्जन के लिए छः इंच से छोटी मूर्ति जो सिर्फ मिट्टी से बनी हो, उस पर कोई रंग-रोगन न लगा हो – की इजाजत दी जा सकती है. वैसे भी, आयोजक अपनी झूठी प्रतिष्ठा और झूठी शान के लिए विशालकाय गणेश की मूर्तियाँ बिठाते हैं. ऐसी मूर्तियों को स-सम्मान रीसायकल-रीयूज़ किया जाए.
आशा है, मानव कल्याण के लिए इस संबंध में माननीय न्यायालय अवश्य ही कुछ कदम उठाएगा. वरना, लोग तो धर्मांध हो चुके हैं और उन्हें सही-गलत का भान नहीं हो पा रहा है.
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राम! राम!! राम !!! हम ये क्या कर रहे हैं?
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हिन्दी जाल जगत: आगे क्या?
पहली रायः जगत-जोड़ता-जाल पर हिन्दी जाल जगत की संख्या हजार का आंकड़ा भी नहीं छू सकी है, तो इसका एकमात्र कारण – हिन्दी के लिए कोई मानक फ़ॉन्ट का नहीं होना है. यूनिकोड से पहले, हर व्यक्ति ने, जिसने भी इंटरनेट पर हिन्दी में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही, वह अपना नया फ़ॉन्ट और नया कुंजीपट लेकर आया. इसमें सरकार के साथ-साथ हिन्दी के आईटी-प्लानरों-डेवलपरों की भी भारी गलती है. इस गलती को सरकार कुछ सुधारने जा रही है – तमिल में तमिल इनस्क्रिप्ट कुंजीपट तथा यूनिकोड तमिल किसी भी नए कंप्यूटर के साथ बेचा जाना अनिवार्य कर दिया गया है. तमिल इनस्क्रिप्ट कुंजी पट को मानक माना गया है, बाकी सारे कुंजी-पटों को अवैध घोषित कर दिया गया है. हिन्दी में भी यही करना होगा. ऊपर से, अभी भी लोग विंडोज़ 95/98 से बाहर निकल नहीं पाए हैं. दरअसल, इसके पीछे हिन्दी भाषियों की पीसी खरीदने की/उन्हें अद्यतन करने की क्षमता भी है. मैं भी अपने पाषाण-कालीन लॅपटॉप- 33 मेगाहर्त्ज, 8 एम.बी. रैम युक्त – से विंडोज़ 95 में आई लीप पर प्रायः अभी भी हिन्दी में लिखता हूँ, फिर उसे यूनिकोड में परिवर्तित करता हूँ. अपने यहाँ, पुरानी, नॉन-कम्पेटिबल मशीन को फेंकने का तो रिवाज ही नहीं है. लोग जैसे तैसे काम चलाते ही रहते हैं. मगर, एक बार सभी यूनिकोड अपना लें, तो देखते-देखते ही हिन्दी के जाल स्थलों की लाइन लग जाएगी. और, यह होना ही है- अभी नहीं, तो शायद चार-पाँच साल बाद...
दूसरी रायः जालघर पर हिन्दी जालघरों की संख्या तो बढ़नी ही है. रफ़्तार में तेजी तब आएगी जब बड़े प्लेयर जैसे कि याहू और गूगल (हिन्दी में गूगल तो है ही) हिन्दी कॉन्टेंट तैयार करने लगेंगे.
तीसरी राय: हिन्दी जालघर का विकास स्वतःस्फूर्त ही होगा. किसी तरह का नियंत्रण इसका किसी प्रकार भला नहीं कर सकेगा. व्यक्तिगत रूप से हम सभी को इतना तो करना ही होगा कि हिन्दी में कान्टेंट तैयार कर जालघरों को समृद्ध बनाया जाए, ताकि लोग हिन्दी जालघरों पर आएँ. और जब वे हिन्दी जालघरों की सैर करें तो उन्हें अपने काम की, सभी तरह की सामग्री यहाँ मिल सके. क्योंकि, जब तक उन्हें हिन्दी में सामग्रियाँ नहीं मिलेंगी, इक्का दुक्का, ऑर्नामेंटल रूप में प्रतिष्ठित हिन्दी पृष्ठों को वह यदा कदा ही देखेगा और अंग्रेजी पर अपनी निर्भरता खत्म नहीं करेगा. ‘रचनाकार’, ‘अनुगूंज-सुभाषित’, ‘निरंतर’ जैसे कई व्यक्तिगत-सामूहिक प्रयास करने होंगे तभी जालघर पर हिन्दी समृद्ध हो सकेगी. वैसे- यह समृद्धि अंततः आएगी तो, पर इसमें विविध तकनीकी कारणों से समय तो लगेगा.
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इंडिक डेवलपर मीट में जॉनी लीवर!
एचबीसीएसई-टीआईएफ़आर मुम्बई में पिछले दिनों इंडिक डेवलपर मीट ( http://www.indlinux.org/wiki/index.php/IndicMeet2) का सफलता पूर्वक आयोजन किया गया. यूँ तो यह आयोजन सराय, एचबीसीएसई, सीडॅक तथा रेडहेट इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में हुआ, परंतु इसका बीज बोने से लेकर इसे सफल बनाने तक इंडलिनक्स के ‘वन-डीमॉलिशन-मैन’ जी. करुणाकर ( http://cartoonsoft.com/blog ) का ही सारा योगदान रहा. यहाँ तक कि प्रायोजकों से समय पर पैसा नहीं आने पर करुणाकर को बैंक की अपनी निजी चैकबुक भी फाड़नी पड़ गई. इंडिक कम्प्यूटिंग जगत करुणाकर का सदैव ऋणी रहेगा.
वैसे, यह आयोजन दो बातों के लिए हमेशा याद रखा जाएगा-
पहला- आमिष मुंशी के धुआंधार प्रस्तुतीकरण के बीच में ही आयोजन के कर्ताधर्ता - जी. करुणाकर का क्रैश हो जाना.
वैसे, बाद में करुणाकर ने यह स्वीकारा कि झपकी लगने में आमिष के प्रस्तुतीकरण का किसी प्रकार का योगदान नहीं था. दरअसल, वे हैकिंग सेसन के कई टीमों के बीच तारतम्य बिठाने व इस मीट को सही दिशा देने में इतने उलझे रहे कि वे पिछले कई दिनों-रातों तक सो नहीं पाए... और अंततः क्रैश हो गए... आमिष आप रिलेक्स फ़ील कर सकते हैं.
दूसरा- इंडिक डेवलपर मीट में जॉनी लीवर का पदार्पण.
विशेष आमंत्रित अतिथि जॉनी लीवर को कम्प्यूटर टर्मिनॉलॉज़ी के हिन्दी इंटरफेसेस दिखाए गए. देखते ही वे अपनी खास स्टाइल में बोले- “क्या बकवास अनुवाद है. बिलकुल फेल. क्या? बिलकुल – बोले तो - एकदम फेल. ये नई चलने का. इसी लिए तो कोई पब्लिक तुम्हारे हिन्दी कम्प्यूटर को घास नहीं डालता. हम जो बोलता है वैसा करो. फिर देखो पूरा पब्लिक कैसे हिन्दी कम्प्यूटर को गले से लगाने के लिए पिल पड़ेगा.”
फिर उन्होंने अपनी स्टाइल में कम्प्यूटरों के फ़िल्मी-रूप में अनुवाद करने की सलाह यूँ दी-
पेंटियम एवं एएमडी – बड़े मियाँ छोटे मियाँ
कम्प्यूटर वायरस इनफ़ेक्शन – प्यार तो होना ही था
हार्डडिस्क- सीडीरॉम डिस्क – घरवाली-बाहरवाली
एफ़1 – गाइड
एस्केप – नौ दो ग्यारह
कंट्रोल+ऑल्ट+डिलीट – आखिरी रास्ता
कंट्रोल+सी/कंट्रोल+वी – डुप्लीकेट
अनडू – आ अब लौट चलें
यूज़र पासवर्ड – गुप्त
बैकअप – जागते रहो
यूपीएस – जनता हवलदार
सर्वर – सरकार
प्रॉक्सी सर्वर – पड़ोसन
सिक्यूरिटी – नाकाबंदी
स्टोरेज – तहख़ाना
हार्डवेयर-सॉफ़्टवेयर – एक दूजे के लिए
डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम – बुड्ढा मिल गया
डम्ब टर्मिनल – अनाड़ी
पीसी क्रैश – शराबी
(टीपः पहली बात सत्य है, दूसरी असत्य बात का दिवास्वप्न - 16 सितम्बर 05 के मिडडे में प्रकाशित प्रीतम नचने के लेख – से, साभार, आया)
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पहली नौकरी - पहला प्यार -2
जब मैं ट्यूशन देने के लिए उन लेक्चरर महोदय के घर पहले दिन पहुँचा तो पाया कि उनके सरकारी आवास के प्रवेश द्वार के पास दालान-नुमा स्थल पर एक टेबल और दो कुर्सियाँ लगी हुई हैं. मैं तत्काल समझ गया कि इसी स्थल पर विद्यादान करना होगा. चूंकि पहले ही बात हो चुकी थी, वे, उनकी पत्नी और दो पुत्रियों समेत सारा परिवार बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहा था,. मैं चाय-वाय नहीं पीता था और यह बात उन्हें मालूम थी लिहाजा भीतर बैठक में प्रारंभिक चाय-पान हेतु पूछने की औपचारिकता के उपरांत सीधे उस टेबल कुर्सी पर आसन जमाकर पढ़ाने का आग्रह किया गया, जिसे जाहिर है, मैंने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया.
उनकी बड़ी लड़की देखने में औसत थी, परंतु छोटी लड़की बहुत ही खूबसूरत थी. मुझे उस छोटी लड़की को पढ़ाना था, जो उस वक्त छठीं कक्षा में पढ़ रही थी. उसकी उम्र और कद काठी से यह प्रतीत होता था कि वह तो दसवीं-ग्यारहवीं की छात्रा तो होगी ही. बाद में पता चला था कि वह कुछ कक्षाओं में लगातार फेल होती रही थी.
जब हम पढ़ने-पढ़ाने के लिए बैठ गए तो मैंने देखा कि सारा परिवार सामने खुल रहे दरवाजे के पार आसन लगा कर बैठ गया है. मुझे थोड़ा सा अजीब लगा. उन्हें शायद ऐसा लग रहा होगा कि जैसे मैं गणित का पाठ पढ़ाने के बजाय उसे प्रेम का पाठ न पढ़ाने लगूँ, और इसलिए ऐसी पहरेदारी जरूरी समझ रहे थे. अपने विद्यार्थी के ज्ञान का स्तर जाँचने के लिए मैंने छठी कक्षा के गणित के कुछ सवाल उससे पूछे. उसने या तो कुछ जवाब ही नहीं दिये, या फिर जो जवाब दिये वे कुछ अटपटे थे और सही नहीं थे. मुझे लगा कि शायद वह घबरा रही है और इसी वजह से इन आसान से सवालों के भी जवाब नहीं दे पा रही है. मैंने सोचा कि एकाध दिन में वह सामान्य-सहज हो जाएगी. मैंने छठी कक्षा के हिसाब से गणित के कुछ प्रारंभिक सूत्र और सवाल उसको हल कर बताए और इस प्रकार उस दिन का समय गुजर गया.
दूसरे दिन स्कूल में कुछ लेक्चरों ने गूढ़ निगाहों से देखते हुए मुझसे पूछा कि पढ़ाने का सिलसिला कैसा रहा? मुझे लगा कि वे कुछ बताना-बोलना चाहते हैं, मगर किसी वज़ह से ऐसा नहीं कर पा रहे. मैंने भी कुरेदना उचित नहीं समझा. वैसे भी वे सब के सब अपनी उम्र के 40-50 वें वर्ष में थे और उनके सामने तो हम बच्चों और अन्य छात्रों जैसे ही थे, ऊपर से दिहाड़ी पर थे इसलिए वो भी हमसे दूरी बनाए रखते थे. उस स्कूल का प्राचार्य महाभ्रष्ट था. स्कूल के हर बजट और हर खर्च में से वह अपना हिस्सा वसूलता था. जब मुझे मेरी पहली तनख्वाह मिली थी तो उसने मुझसे पैसे मांगे थे कि तुम्हें अधिक और अवास्तविक पीरियड दिलाकर अगले माह और ज्यादा तनख्वाह दिला दूंगा. मैं शायद भाग्यशाली रहा कि भारत में पनप रहे भ्रष्टाचार का सामना मेरी पहली ही तनख्वाह, मेरी पहली ही नौकरी से हो गया था.
दूसरे दिन जब मैं ट्यूशन पढ़ाने गया तो मैंने सोचा कि आज उस बालिका को थोड़ा सा तो आश्वस्त होना चाहिए. उस दिन मैंने कुछ और आसान से सवाल किए. उसकी घबराहट में कोई कमी नहीं आई थी. इसीलिए वह तीसरे और चौथे दर्जे के सवालों को भी हल नहीं कर पा रही थी. जैसे तैसे मैंने वह दिन निकाला. एकाध बार मेरी आवाज़ भी थोड़ी तेज हो गई तो लेक्चरर महोदय ने नम्रता से याद दिलाया कि मैं स्कूल में क्लास नहीं ले रहा हूँ, और ट्यूशन पढ़ा रहा हूँ, जहाँ विद्यार्थी बाजू में ही बैठा है.
तीसरे दिन तो मेरी इच्छा ही नहीं हो रही थी कि मैं उसे ट्यूशन पढ़ाने जाऊँ. जैसे तैसे मन मारकर पहुँचा. आज मैंने उसे गुणा भाग के सवाल पहले तो खूब अच्छी तरह से समझाए. फिर उसे एकाध सवाल हल करने को कहा. उसकी समझ में कुछ आ नहीं रहा था और वह कोई भी सवाल हल करने में आज भी असमर्थ थी. मैंने उसे कुछ पहाड़े करने को दिए. जो दूसरी कक्षा के विद्यार्थी करते हैं. वह उन्हें भी उल्टे सीधे कर रही थी. उसे पढ़ने में कठिनाइयाँ तो थी हीं, उसका लिखा हुआ भी प्रायः उल्टा सीधा और किसी की समझ से बाहर ही होता था. उसे पढ़ाते समझाते मैं भी अपना गणित भूल गया था और दो गुणा तीन बराबर सात करने लग गया था.
चौथे दिन तो मैंने तौबा ही कर ली. जाने कैसे उसने पांचवी की परीक्षा पास की होगी – मुझे आश्चर्य ही हुआ था. मैंने उस लेक्चरर महोदय से माफ़ी ही मांग ली, कि भई मुझसे तो यह नहीं होगा. वो लेक्चरर महोदय निराश तो नहीं दिखे, मगर उन्हें मेरी काबिलियत पर जो यकीन था, वह मुझे उनकी आँखों में, यकीनन ढहता दिखाई दिया. वह तो मुझे बहुत बाद में समझ में आया था कि वो बेचारी तो डिस्लेक्सिया नामक अनुवांशिक बीमारी से पीड़ित थी जिसमें व्यक्ति पढ़ने में कठिनाइयाँ अनुभव करता है. ऊपर से, उनके अभिभावकों को यह गुमान ही नहीं था कि वह ऐसी किसी बीमारी से पीड़ित भी है! वे तो उसे हमेशा कोसते रहते थे कि कैसी गधी लड़की है – ठीक से पढ़ भी नहीं सकती! ईश्वर ने उसके साथ कैसा मज़ाक किया था. वह ऐसी जन्मजात दिमागी बीमारी का शिकार थी, जिसमें उसका कोई कसूर नहीं था. वह तो ईश्वर ही उसका सबसे बड़ा गुनहगार था जिसने उस प्यारी-सी, सुंदर-सी लड़की को ऐसी बीमारी दे दी थी.
इधर, मुझ पर चढ़ा प्यार का खूबसूरत बुखार दिन-प्रतिदिन नई ऊँचाईयाँ छू रहा था. नित नई कसौटियों और परीक्षाओं से गुज़रता हुआ. दरअसल, उस स्कूल में पढ़ाने के लिए मैं गया था तो इसके पीछे एक खूबसूरत कारण यह भी था. प्यार के मनोरम अहसास को करीब से भुगतने की ख्वाहिशें लिए ही तो मैं वहाँ गया था...
जारी... अगले किसी ब्लॉग-पोस्ट में. (क्या आप अभी भी आगे की बकवास पढ़ना चाहेंगे???)
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प्रयोग से कौन डरता है?
**-**
प्रस्तुत है एक प्रयोगवादी ग़ज़ल :
ग़ज़ल
**-**
दलीलों का दौर बन्द न हुआ
इश्क में ऐसे फैसला न हुआ
पतंगे के रास्ते में थी शमा
कैसे उसका कुसूर न हुआ
ये क्यों नहीं सोचता आदमी
जो आज था कल को न हुआ
बैठे हाथ धरे और ये मलाल
ये न हुआ वो भी न हुआ
जले को कटे का दर्द नहीं
किसी सूरत ये तर्क न हुआ
दूसरों का हो तो कैसे रवि
वो तो कभी खुद का न हुआ
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मानव जाति के लिए एक लिनक्स संस्करण...
हिन्दी लिनक्स का एक और महत्वपूर्ण कदम
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उबुन्तु ( http://www.ubuntu.com ) – मानव के लिए लिनक्स – संस्करण 5.04 - के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में विश्व की विभिन्न समर्थित भाषाओं के साथ ही हिन्दी का नाम भी जुड़ गया है. अब उबुन्तु इंस्टाल तथा लाइव सीडी में पूर्ण हिन्दी समर्थन के साथ उपलब्ध है. इसमें गनोम 2.10 का हिन्दी संस्करण शामिल किया गया है. तारीफ की बात यह कि सारा संस्करण मुफ़्त इस्तेमाल तथा मुफ़्त वितरण के लिए है. आप इनके सीडी के आइएसओ मुफ़्त में डाउनलोड कर सकते हैं या मुफ़्त सीडी के लिए आदेश कर सकते हैं – यहाँ ( http://shipit.ubuntu.com ) से.
इसके लाइव सीडी को अपने कम्प्यूटर के सीडी ड्राइव में डाल कर सीधे ही सीडी से बूट करें, और आरंभिक भाषा चयन स्क्रीन में से हिन्दी चुनें. बस, हिन्दी वातावरण में काम करें. न कोई इंस्टाल का झंझट न पार्टीशन-जगह इत्यादि की समस्या. जब हिन्दी से मन भर जाए, लॉग-ऑफ करें, अंग्रेजी (या दूसरी कोई समर्थित भाषा, यदि आप जानते हैं) में लॉग-इन करें. और अंततः जब उबुन्तु से जी भर जाए, तो शटडाउन करें, सीडी बाहर निकालें, और अपने हार्डडिस्क के पुराने ओ-एस से बूट करें.
उबुन्तु – (जो कि अफ्रीकी शब्द है) का अर्थ है- ‘मानवता औरों के लिए’
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पहली नौकरी पहला प्यार – 3
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प्यार की कशिश किसी व्यक्ति के मन में पहले पहल कब पैदा होती है?
शायद तब, जब वह किशोरावस्था को लांध कर युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखता है. उसके शरीर में हार्मोनल परिवर्तन की वजह से, अब तक की दुनिया जरा अलग, रंगीन और बदली-बदली सी दिखाई देती है. जबकि वह तो खुद ही बदल रहा होता है... पूरी तरह से...
मैं जिस स्कूल में पढ़ा, वह नगर पालिका द्वारा संचालित स्कूल था, उस स्कूल का नाम था राजा सर्वेश्वर दास नगर पालिका स्कूल. उसे लोग मुनिसपल स्कूल के नाम से ज्यादा जानते थे. शुरू में वह सिर्फ बालकों का स्कूल था. लड़कियों का अलग स्कूल था- परकोटे से घिरा हुआ – जेल की तरह. मुनिसपल स्कूल के एक रिवॉल्यूशनरी प्रिंसिपल ने तमाम विवादों से जूझते हुए, दो रिवॉल्यूशनरी लड़कियों को कक्षा आठ में एडमीशन दे दिया. तब मैं भी कक्षा आठ में पढ़ता था. मेरा सेक्शन सी था और लड़कियाँ सेक्शन ए में थीं. फिर तो ग्यारहवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते लड़कियों की संख्या बढ़कर सौ के करीब हो गयी. इस बीच किशोरावस्था के कुछ प्रेम प्रसंगों के सच्चे झूठे किस्से भी यदा कदा सुनाई देने लग गए थे, जिसमें ज्यादातर झूठे और झूठी शान बघारने के नाम पर होते थे. कभी किसी लड़के से कोई लड़की कभी कोई कॉपी डरते-डरते मांग लेती थी तो इसका बुखार उस लड़के को महीनों तक चढ़ा रहता था और वह उसे ही अपनी प्रेम कहानी का आरंभ मान लेता था.
इस बीच कुछ साहसी किस्म के लोग बाकायदा प्रेम पत्र भी लिख लेते थे. जो ज्यादा साहसी- से थे वे अपने दोस्त मंडली में अपने प्रेम-पत्र दिखाते थे, जिसे वे कभी न तो दे पाते थे, न उन्हें मिले होते थे. एक बहुत ही दुस्साहसी किस्म के छात्र ने प्रेम पत्र तो लिखा, परंतु उसे अपनी सहपाठी छात्रा को स्वयं दे पाने का साहस नहीं जुटा पाया. लिहाज़ा उसने बड़ा ही आजमाया हुआ-सा तरीका अख्तियार किया. उसने डाक विभाग पर अपने प्रेम पत्र को पहुंचाने का जिम्मा सौंपा और उसे लिफ़ाफ़े में रख कर पोस्ट कर दिया. पता उसने लड़की के घर का देने के बजाए स्कूल का ही दिया. शायद उसे डर था कि घर में वह पत्र गलत हाथों में पड़ सकता है. उसका वह पत्र डाकिए ने उस छात्रा को देने के बजाए स्कूल के डाक में ही दे दिया और, जाहिर है वह प्रिंसिपल के हाथ लग गया.
प्रिंसिपल ने पहले तो उस छात्रा को तलब किया. मगर मामला तो तरफा था. छात्रा के अनजान बनने पर उस छात्र को बुलाया गया जिसने बाकायदा अपना नाम, कक्षा व वर्ग लिख मारा था. जैसे ही उसने अपना मजनूं-पना कुबूल किया, उसकी तबीयत से धुनाई की गई. एक नहीं दो-तीन शिक्षकों ने उसे जमकर मारा. वह बेचारा जिंदगी में प्रेम करना भूल गया होगा. और, नहीं तो, जब भी वह किसी से प्रेम करता होगा, उसे वह मार जरूर याद आती होगी. उसकी मार के किस्से सुन कर अधिकांश छात्रों ने भी अपने-अपने प्रेम-प्रसंगों से अपने को दूर कर लिया. सच है, प्रेम के रास्ते कांटे और मार पीट भरे होते हैं.
ऐसा ही एक किस्सा और हुआ. किसी ने ऐसी ही दुस्साहसता के साथ अपनी किसी सहपाठिनी पर अपने प्रेम का इजहार कर दिया. उस सहपाठिनी को यह दुस्साहस या तो पसंद नहीं आया या फिर वह सहपाठी. उसने अपने सफेद कैनवस के जूते उतारे और जड़ दिए दो-चार सबके सामने. वह बेचारा हफ़्तों तक शर्म के मारे स्कूल नहीं आया और बाद में तो उसने स्कूल ही बदल लिया. कैनवस के सफेद जूते उसे जाने अनजाने अभी भी याद तो आते ही होंगे.
ऐसा नहीं था कि छात्र-छात्राओं के बीच प्रेम प्रसंगों की शुरुआत वहां, उस वक्त नहीं हुई हो. ग्यारहवीं कक्षा में मेरा बैंच मेट बहुत ही वाचाल किस्म का था और एक धनी-नेता-व्यवसायी का पुत्र था. वह ट्यूशन पर भी जाता था. उस जमाने में ट्यूशन करना माने गधे बच्चों को पास करवाने का साधन माना जाता था. ट्यूशन में एक सहपाठी छात्रा भी जाती थी. उनका प्रेम प्रसंग वहीं अंकुरित हो गया जो कई साल तक प्लेटोनिक-प्रेम के रूप में चलता रहा. क्योंकि मेरा शहर राजनांदगांव एक अत्यंत छोटा-सा कस्बा था और वहाँ का हर दूसरा आदमी एक दूसरे को जानता था. कहीं कोई पार्क जैसी जगह भी नहीं थी जहाँ प्रेमी-प्रेमिका साथ साथ घूम सकें. अंततः सामाजिक बाध्यता के चलते यह प्रेम प्रसंग भी असफल हो गया था – दोनों को अपनी शादियाँ अपने पालकों की मरजी से अलग-अलग जगह करनी पड़ी थीं.
मेरे मन में भी प्यार के बीज उसी दौरान ही पड़े. प्रेम में दुस्साहसी लोगों का ऐसा गंभीर हश्र देखकर भी क्या मैंने भी साहस भरा ऐसा कोई कदम उठाया था? ….
(..जारी)
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दो खबरें, शायद, जिनमें आपकी रूचि हो न हो...
पहली खबर- इंटरनेट पर सबसे ज्यादा ढूंढा जाने वाला शब्द...
क्या वह शब्द सेक्स है? जी नहीं. पिछले दशक में (सन् 1995 से लेकर अब तक) इंटरनेट पर लायकोस (तब गूगल के पैर नहीं जमे थे) की सूची के अनुसार सबसे ज्यादा ढूंढा जाने वाला शब्द रहा – पामेला एंडरसन! कोई ताज्जुब नहीं. अगले दस बरस की सूची में ब्रिटनी स्पीयर्स ही होंगी, ऐसा, मेरा कयास है :)
समाचार यहाँ देखें-
http://news.com.com/Pamela+Anderson+tops+a+decade+of+Web+search/2100-1026_3-5877009.html?part=rss&tag=5877009&subj=news
दूसरी खबर – इंटरनेट के युग में, उंगलियों के इशारों पर माउस के द्वारा तमाम आवश्यक जानकारियों को तत्क्षण ढूंढ निकाल-निकाल कर हम होशियार हो रहे हैं या निरे बुद्धू बनते जा रहे हैं? मुझे तो लगता है कि मामला बुद्धू वाला ही है, क्योंकि अब तो मैं कोई भी जानकारी, चाहे किसी शब्द का अर्थ भी देखना हो तो मैं अपने दिमाग पर जोर देने के बजाए माउस क्लिक पर जोर देने लगा हूँ...
पूरा, तथ्यपरक समाचार यहाँ पढ़िए और अपने आप का एनॉलिसिस कीजिए कि इंटरनेट का इस्तेमाल कर आप आखिर किस दिशा में जा रहे हैं...
http://news.com.com/Are+we+getting+smarter+or+dumber/2008-1008_3-5875404.html?part=rss&tag=5875404&subj=news
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इसे तमिल में पढ़ने की जरूरत नहीं...
इस कार्टून को नहीं चाहिए कोई शब्द…
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मुझे तमिल पढ़नी नहीं आती, मगर तमिल पत्रिका में छपे इस कार्टून को समझने के लिए किसी तरह के शब्दों की दरकार मुझे नहीं हुई.
ऊपर से, इसके प्रमुख कैरेक्टरों को बदला भी जा सकता है – उदाहरण के लिए जयललिता और करूणानिधि की जगह क्रमशः मायावती और मुलायम सिंह, और कहानी वही रहेगी- एकदम दुरुस्त!
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हास्य-व्यंग्य : झगड़ा चैनल का
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हो सकता है कि आपके घर में इस बात पर कोहराम मचता हो कि टीवी पर किस समय कौन-सा प्रोग्राम लगाया जाए. कारण, भाई जी को एमटीवी-फैशन टीवी देखना होता है तो बहन जी सांता बारबरा - क्योंकि सास भी... जैसे कार्यक्रमों की दीवानी होती हैं. बच्चे केबीसी-2, अंताक्षरी और डांस-डांस की कोई कड़ी छोड़ना नहीं चाहते. आपको हर आधे घंटे पर समाचार अपडेट्स देखना अत्यंत जरूरी लगता है. ऊपर से क्रिकेट का मियादी बुखार तो रहता ही है.
घर में टीवी एक, देखने वाले कई. हर एक की अपनी पसंद. एक ही समय में कई-कई चैनलों में आने वाले कई-कई पसंदीदा कार्यक्रम. संभव है कि प्रायः किसी एक समय एक चैनल पर अंताक्षरी का फाइनल राउंड चल रहा हो और दूसरे पर एमटीवी का फाइनल काउंट डाउन. किसी और चैनल पर क्रिकेट का फाइनल मैच दिखाया जा रहा हो, तो किसी अन्य चैनल पर वार्षिक व्यंजन प्रतियोगिता का परिणाम दिखाया जा रहा हो. फिर घर में हर एक को दूसरे का पसंदीदा कार्यक्रम निहायत ही घटिया, उबाऊ, निरर्थक और इसी प्रकार न जाने क्या क्या लगता है. लिहाजा वे अपने पसंदीदा कार्यक्रम को ही देखने और दूसरों को दिखाने की जुगाड़ में लगे हुए रहते हैं. जाहिर है, ऐसी परिस्थितियों में आपके घरों में यदा कदा महासमर भी तो होता ही होगा.
परन्तु कुछ लोग मेरी तरह के भी होते होंगे, जिन्हें टीवी के हर कार्यक्रम में आनंद आता है. अंताक्षरी भी अच्छी लगती है और रसोई शो भी. फिल्मी क्विज में भी मजा आता है और डाक्यूमेंट्री में भी. डेली सीरियल में तो दैनिक अख़बार की तरह का एडिक्शन है. फिल्म बेस्ड कार्यक्रम और फिल्मों की तो बात ही क्या है! क्रिकेट, कार रेसिंग, बॉक्सिंग के थ्रिल का मजा टीवी के अलावा कहीं नहीं है. अब ऐसी स्थिति में दिमाग के भीतर महासमर होता रहता है कि कौन-सा प्रोग्राम देखें और कौन सा छोड़ें – क्योंकि सभी साले प्राइम टाइम में ही, पता नहीं क्यों दिखाते हैं.
जब एक चैनल पर किसी पसंदीदा डेली सीरियल का महत्वपूर्ण एपिसोड चल रहा होता है, उसी समय, फॉर्मूला वन कार रेसिंग का फ़ाइनल राउंड किसी दूसरे चैनल पर दिखाया जा रहा होता है. दोनों ही कार्यक्रम अपने को बहुत पसंद हैं. पर दोनों कार्यक्रमों को एक साथ तो नहीं देख सकते. बहुत हुआ तो नई तकनीक वाली पिप (पिक्चर इन पिक्चर) टीवी या डबल विजन टीवी लाई जा सकती है, परंतु आवाज तो किसी एक चैनल की ही सुननी पड़ेगी. फिर यह भी तो होता है कि किसी तीसरे-चौथे चैनल पर किसी सूरत न छोड़ने लायक पसंदीदा कार्यक्रम चल रहा हो.
कभी ऐसा भी होता है कि किसी चैनल पर अमिताभ बच्चन और रानी मुख़र्जी की फ़िल्म ब्लैक को देखते रह गए या क्रिकेट मैच में फंस कर रह गए तो पता चलता है कि पाँच-सात पसंदीदा कार्यक्रम विभिन्न चैनलों में आए, आकर चले भी गए और हम हाथ मलते रह गए.
प्राइम टाइम का तो और भी रोना है. प्रतिदिन प्राइम टाइम पर विभिन्न चैनलों में एक से एक अच्छे कार्यक्रम दिखाए जाते हैं. जाहिर है, किसी भी चैनल का प्राइम टाइम का कोई भी कार्यक्रम किसी के लिए भी छोड़ा जाने लायक नहीं रहता. सभी कार्यक्रमों को देखना टीवी चैनलों-प्रोड्यूसरों के लिए तो जरूरी है ही – दर्शकों के लिए भी आवश्यक हैं. पर एक साथ इतने सारे अच्छे कार्यक्रमों को कोई कैसे देख सकता है. इसका कोई हल तत्काल निकाला जाना चाहिए.
किसी ने इस समस्या का हल ऐसे सुझाया – दो-चार टीवी सेट ले आओ और वीसीआर / वीसीडी या कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क में इन्हें रेकॉर्ड कर लो. फिर मजे में अपने प्रोग्राम बाद में, फुरसत में देखो. इससे आपका पसंदीदा कोई प्रोग्राम छूटेगा नहीं. पर, तब भाई, आखिर दिन में चौबीस ही तो घंटे होते हैं ना! मेरे जैसे सभी चैनलों के सभी कार्यक्रमों के दीवानों के लिए तो यह आइडिया भी फेल है! ऊपर से, हर महीने-दो-महीने में एक नया चैनल और चला आता है – ढेर सारे नए, मजेदार कार्यक्रमों को लेकर.
जाहिर है, क्या देखें-क्या न देखें का झगड़ा तो बढ़ता ही रहेगा. आपके घर में भी और मेरे मन में भी.
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