क्या आप अभी भी फ़ेसबुक पर हैं? पांच-छः साल पहले लोग गर्व से कहते थे – आ’यम ऑन फ़ेसबुक. आर यू ऑन फ़ेसबुक? और यदि कोई नहीं होता था फ़ेसबुक में...
क्या आप अभी भी फ़ेसबुक पर हैं?
पांच-छः साल पहले लोग गर्व से कहते थे – आ’यम ऑन फ़ेसबुक. आर यू ऑन फ़ेसबुक?
और यदि कोई नहीं होता था फ़ेसबुक में तो, वो अपने आप को तकनीकी रूप से बेहद पिछड़ा, अति पिछड़ा, अति अति पिछड़ा आदि आदि न जाने क्या क्या समझने लगता था.
और, अब मुंह छुपाने का समय आ गया है.
लोग कह रहे हैं – आर यू स्टिल ऑन फ़ेसबुक?
फ़ेसबुक का मेरा परीक्षण (हाँ, यह एक तरह से अभी भी परीक्षण खाता ही है, क्योंकि मैं इसमें सक्रिय कभी भी नहीं रहा) खाता स्व. ओरकुट (RIP) के जमाने से है. और इसकी पॉलिसी मुझे कभी भी रास नहीं आई. पहले पहल तो यह कि कहीँ भी, किसी भी उपकरण में फ़ेसबुक के सार्वजनिक पृष्ठों को भी पढ़ने देखने के लिए आपको एक अदद खाता बनाना पड़ेगा और लॉगिन करना होगा.
फ़ेसबुक पर जो सामग्री लिखी जाती है उसका सर्च इत्यादि से ढूंढ पाना मुश्किल होता है. फ़ेसबुक ने बेहद शातिराना तरीके से सर्च इंजन बनाया है जो कि अपने उपयोगकर्ताओं से पैसे ऐंठ कर अथवा विज्ञापनदाताओं से पैसे वसूल कर उनके मनमाफ़िक सामग्री को सदैव आगे प्रदर्शित करता रहता है. और यही बात अप उसके गले की हड्डी बनती जा रही है.
शायद इसी तरह की घटिया, मगर शातिराना पॉलिसी के कारण, और संभवतः बेहद सरल इंटरफ़ेस और मजमा जमाने (लड़ी दार टिप्पणी करने की बेहतरीन सुविधा) की सुविधा के कारण फ़ेसबुक उत्तरोत्तर लोगों में फैलता भी गया. परंतु घड़ियाल के मुंह में खून लग गया था. उसने अपने उपयोगकर्ताओं के डेटा उचित अनुचित तरीके से उपयोग में लेने भी प्रारंभ कर दिए. नतीजा सामने है.
आर यू स्टिल ऑन फ़ेसबुक?
इफ़ यस, दैन गो बैक टू ब्लॉग, यू फ़ूल!
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २०००वीं बुलेटिन अपने ही अलग अंदाज़ में ... तो पढ़ना न भूलें ...
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, संगीत और तनाव मुक्ति - 2000वीं ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !