राजेन्द्र यादव ने हंस, जुलाई २००४ के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े से, चुटकियाँ लेते हुए, हिंदी साहित्य संसार के प्रायः सभी नए-पुराने ...
राजेन्द्र यादव ने हंस, जुलाई २००४ के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े से, चुटकियाँ लेते हुए, हिंदी साहित्य संसार के प्रायः सभी नए-पुराने समकालीन लेखकों/कवियों के बारे में टिप्पणियाँ की है कि किस प्रकार लोग अपनी छपास की पीड़ा को तमाम तरह के हथकंडों से कम करने की नाकाम कोशिशों में लगे रहते हैं. अगर यादव जी हंस के संपादन के इस तरह के अनुभवों को पहले प्रकाशित करते तो बहुतों का भला हो जाता और वे हंस की ओर अपने छपास की आस लगाए नहीं फ़िरते. बहरहाल, धन्यवाद राजेन्द्र यादव जी. वैसे भी हिंदी साहित्य अब राइटर्स मार्केट बन गया है. रीडर्स मार्केट भले ही कभी रहा हो, पर अब, लेखक हैं हज़ार तो पाठक हैं एकाध (स्वयं अपनी रचना का पाठ कर खुश होने वाले -- इनमें सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन भी रहे हैं, जो नदियों को कविता सुनाते थे)
ऐसी स्थिति में, छपास पीड़ा हरण के लिए इंटरनेट के व्यक्तिग़त पृष्ठ और ब्लॉग से बढ़कर भला और क्या हो सकता है? यहाँ पर आकर आप मुफ़्त में अपनी बकवास आराम के साथ, मज़े में, दिन प्रति दिन , साल दर साल लिख कर छाप सकते हैं, और यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि आपके लिखे गए पन्ने किसी एक रूपए के ग़र्म भजिए के पुड़िए में बांधा नहीं जाएगा और भजिया खाकर ऊंगली पोंछकर कूड़ेदान (यहाँ भारत में कोई कूड़ेदान का उपयोग करता है क्या? और करता भी है, तो कितने कूड़ेदान हैं? हमारे लिए तो सड़कें, प्लेटफॉर्म इत्यादि कूड़ेदान के बेहतरीन सब्स्टीट्यूट हैं) में फ़ेंका नहीं जाएगा.
मैं भी छपास की अपनी थोड़ी सी पीड़ा हरण करने का प्रयास निम्न ग़ज़ल के साथ करता हूँ. मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
***
ग़ज़ल
***
सब सुनाने में लगे हैं अपनी अपनी ग़ज़ल
क्यों कोई सुनता नहीं मेरी अपनी ग़ज़ल
रंग रंग़ीली दुनिया में कोई ये बताए हमें
रंग सियाह में क्यों पुती है अपनी ग़ज़ल
छिल जाएंगी उँगलियाँ और फूट जाएंगे माथे
इस बेदर्द दुनिया में मत कह अपनी ग़ज़ल
मज़ाहिया नज़्मों का ये दौर नया है यारो
कोई पूछता नहीं आँसुओं भरी अपनी ग़ज़ल
जो मालूम है लोग ठठ्ठा करेंगे ही हर हाल
मूर्ख रवि फ़िर भी कहता है अपनी ग़ज़ल
*+*+*+
ऐसी स्थिति में, छपास पीड़ा हरण के लिए इंटरनेट के व्यक्तिग़त पृष्ठ और ब्लॉग से बढ़कर भला और क्या हो सकता है? यहाँ पर आकर आप मुफ़्त में अपनी बकवास आराम के साथ, मज़े में, दिन प्रति दिन , साल दर साल लिख कर छाप सकते हैं, और यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि आपके लिखे गए पन्ने किसी एक रूपए के ग़र्म भजिए के पुड़िए में बांधा नहीं जाएगा और भजिया खाकर ऊंगली पोंछकर कूड़ेदान (यहाँ भारत में कोई कूड़ेदान का उपयोग करता है क्या? और करता भी है, तो कितने कूड़ेदान हैं? हमारे लिए तो सड़कें, प्लेटफॉर्म इत्यादि कूड़ेदान के बेहतरीन सब्स्टीट्यूट हैं) में फ़ेंका नहीं जाएगा.
मैं भी छपास की अपनी थोड़ी सी पीड़ा हरण करने का प्रयास निम्न ग़ज़ल के साथ करता हूँ. मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
***
ग़ज़ल
***
सब सुनाने में लगे हैं अपनी अपनी ग़ज़ल
क्यों कोई सुनता नहीं मेरी अपनी ग़ज़ल
रंग रंग़ीली दुनिया में कोई ये बताए हमें
रंग सियाह में क्यों पुती है अपनी ग़ज़ल
छिल जाएंगी उँगलियाँ और फूट जाएंगे माथे
इस बेदर्द दुनिया में मत कह अपनी ग़ज़ल
मज़ाहिया नज़्मों का ये दौर नया है यारो
कोई पूछता नहीं आँसुओं भरी अपनी ग़ज़ल
जो मालूम है लोग ठठ्ठा करेंगे ही हर हाल
मूर्ख रवि फ़िर भी कहता है अपनी ग़ज़ल
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बेशुमार टी वी चैनलों की उपस्थिति कि वजह से एक और किस्म की पीड़ा के भुक्तभोगी भी आपने देखें होंगे। ये है "फुटास" की पीड़ा (अगर सही याद कर पा रहा हूँ तो मनोहर श्याम जोशी ने यह शब्द उछाला था), यानी छोटे पर्दे पर "फुटेज" खाने की चाह से उपजे कष्ट के शिकार। चेनलों को "बाईट" देने की प्रथा के चलन में आने के बाद से इससे छुटभैये से लेकर नामी गिरामी नेता, समाजसेवी, फिल्मकार, कलाकार सभी कभी न कभी ग्रसित होते रहे हैं।
हटाएंछपास जारी है सालों से…
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