यह एक विशुद्ध राजनीतिक पोस्ट है. मैं कोई पिछले बीस वर्षों से (याहू! जियोसिटीज़ के जमाने से,) सोशल मीडिया से निरंतर, सक्रियता से जुड़ा हूँ, औ...
यह एक विशुद्ध राजनीतिक पोस्ट है.
मैं कोई पिछले बीस वर्षों से (याहू! जियोसिटीज़ के जमाने से,) सोशल मीडिया से निरंतर, सक्रियता से जुड़ा हूँ, और यदा कदा राजनीतिक व्यंग्य को छोड़कर कभी भी – एक बार फिर – मैंने ‘कभी भी’ विशुद्ध राजनीतिक पोस्ट नहीं लिखी.
पर, आज लिख रहा हूँ - विशुद्ध राजनीतिक.
क्यों?
दरअसल, आने वाले कुछ दिनों के भीतर, मेरे शहर में लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होने वाले हैं और, जाहिर है, मुझे भी, मेरा कीमती मत देना है.
तो, सवाल ये है कि मैं अपना बेशकीमती मत किसे दूंगा?
भारतीय लोकतंत्र में मतदान की प्रक्रिया को गुप्त रखी गई है. मैं भी स्पष्टतः कतई नहीं बताने जा रहा कि अपना मत किसे दूंगा. पर हाँ, मैं यह तो निश्चित ही बता सकता हूँ कि मैं किसलिए और किन कारणों से अपना मतदान करूंगा और वे क्या वजहें हो सकती हैं जो मेरे मतदान को प्रभावित कर सकती हैं, किसी खास पार्टी की ओर झुका सकती हैं.
सन् 2008 में जब मैं रतलाम से भोपाल आया था, तब यह शहर मध्य प्रदेश की राजधानी होते हुए भी गंदा, ग़लीज, बदबू और सर्वत्र कचरों से भरा शहर था. सिटी ऑफ लेक के नाम से प्रसिद्ध इस शहर के तमाम ताल और तलैये गंदगी से बजबजाते भरे रहते थे और उनका अस्सी प्रतिशत हिस्सा जलकुंभियों से अटा पड़ा रहता था. यहाँ की झीलों से चौबीसों घंटे बदबू निकलती रहती थी. तब मैं छोटी झील के ठीक सामने एक अपार्टमेंट में किराए से रहता था और वहाँ से उठने वाली असहनीय बदबू से जल्द ही प्रकृति के पास रहने की सुखद कल्पना से मोहभंग हो गया था.
और, फिर कुछ वर्षों बाद आया - स्वच्छ भारत अभियान - जैसा नायाब विचार.
यह केवल विचार ही नहीं था, बल्कि प्रकटतः संकल्प और कार्य भी हुए. शीघ्र ही भोपाल बहुत ही स्वच्छ हो गया. सड़कें और गलियाँ साफ, ताल-तलैये से गंदगी गायब. इतना ही नहीं, भोपाल दो बार लगातार भारत के शीर्ष के दो स्वच्छ शहरों में शामिल रहा, और पिछली बार भले ही यह 17 वीं पायदान पर खिसका, मगर सर्वाधिक स्वच्छ राजधानी के रूप में अपना झंडा बुलंद किए रहा.
यह तो थी एक बात.
दूसरी बात – मुझे अपने बचपन की कुछ बातें टायलेट एक प्रेमकथा की तरह – कुछ फिल्मी किस्म की, शौच और शौचालयों संबंधी समस्याओं की, याद है, और यदि फ़िल्म के राइटर मुझसे सलाह लेते तो उसमें तड़का लग सकता था और फिल्म के दो-हफ़्ते और चलने की पूरी गारंटी थी.
बहरहाल, मुझे याद है कि बचपन में हम ऐसे मुहल्ले में रहते थे जहाँ शौचालय क्या सार्वजनिक शौचालय जैसा विचार दूर-दूर तक कहीं नहीं था. सारी जनता लोटा लेकर खेतों पर जाती थी, तो क्या शर्म और क्या हया. परंतु समस्या तब होती थी जब किसी वजह से दस्त लग जाते थे, तो घर से डेढ़ दो किलोमीटर दूर खेतों तक जाने में बड़ी मुश्किल होती थी. मुझे एकाधिक बार की घटना का स्मरण है कि लाख प्रयासों के बावजूद दस्त का प्रवाह रुका नहीं और मंजिल पर पहुँचने से पहले बीच रस्ते में ही निकल पड़ा था. और तब भले ही बाल्यावस्था के कारण शर्म नहीं आई हो, मगर यह बात बता कर मैं अभी शर्मा रहा हूँ और आप यह पढ़कर मुझ पर हँस सकते हैं.
बाद में, थोड़ी सुविधा सार्वजनिक शौचालय की हासिल हुई थी. वह भी घर से कोई डेढ़-दो किलोमीटर दूर था, ऊपर से वो इतना गंदा, बेकार और बदबूदार होता था कि वहाँ जाने के नाम पर रूह कांपती थी. मगर मजबूरी में जाना होता था. और, अगर सुबह या शाम के व्यस्त समय में कहीं गलती से चले गए तो घंटा-आधा-घंटा लाइन में लगे रहना, वह भी शौच के दबाव को झेलते हुए, किसी तरह उस पर काबू पाते हुए. इस भीषण आंतरिक लड़ाई की पीड़ा को हम सभी ने किसी न किसी वजह से कभी न कभी अनुभव किया ही होगा, पर जब यह नित्य की बात हो, तो बात समझी जा सकती है.
ऐसे में चहुँ ओर, निजी शौचालय निर्माण की परिकल्पना सचमुच राहत प्रदान करती है. जो लोग अपने मुंह में टायलेट – सॉरी, अपने घरों में टॉयलेट सीट लेकर पैदा हुए हैं, वो इन कष्टों के बारे में नहीं जानेंगे और सोशल मीडिया में टेबल राइटिंग कर ये सवाल दागेंगे कि कोई पांच काम बता दो! इस तरह की बात करने वाले या तो निरे मूर्ख हैं, या फिर, एजेंडावादी, शातिर, धूर्त.
तीसरी बात – छः दशक के अपने सार्वजनिक जीवन में मैंने अपने आसपास के इन्फ्रास्ट्रक्चर के कार्यों में सदैव देरी और भ्रष्टाचार को देखा और महसूस किया है. रतलाम में तो एक ओवरब्रिज को जो पूरा बन गया था, उसका राजनीतिक वजहों से उद्घाटन ही साल डेढ़ साल तक टलता रहा था. परियोजनाओं में जानबूझकर देरी की जाती थी और फिर अधूरी परियोजनाओं को फिर से महंगी दरों में टेंडर निकाल कर पूरा किया जाता था. मगर हालिया पिछले कुछ वर्षों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है और कम से कम मैं यह तो कह सकता हूँ कि मेरे निवास स्थल को जोड़ने वाले रास्ते के रेल्वे ओवर ब्रिज और फ्लाईओवर का काम स्वीकृत होते ही, युद्ध स्तर पर प्रारंभ हुआ और रेल्वे ओवर ब्रिज का एक हिस्सा समय से पूर्व चालू हो गया – बिना किसी राजनीतिक उद्घाटन की बाट जोहे, और बाकी पूरी परियोजना समय पर है.
और क्या चाहिए? मेरे लिए इतना बहुत है. यूं तो मैं दर्जनों ऐसे और कारण गिना सकता हूँ - जैसे कि भाई लोग “वैसे” कारण गिनाते फिरते हैं!
तो, पता चला कि मैं अपना बेशकीमती वोट किसे दे रहा हूँ?
यस, इट्स जस्ट ऑब्वियस.
स्वच्छ भारत जिंदाबाद!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्री परशुराम जयंती, अक्षय तृतीया, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर, विश्व अस्थमा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
हटाएंआपने भूसे के ढेर मैं कंकड़ जैसी उपलब्धि तो देख ली लेकिन पहाड़ जैसी समस्याओं को अनदेखा कर दिया, प्रधानमंत्री की उपलब्धि टाय्लेट और एक नारे "स्वच्छता अभियान" मैं है ? हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर लोगो की भीड़ द्वारा सरेआम हत्या, मोदी का सैनिको की चिताओं के नाम पर भी वोट माँगना, सारे के सारे न्यूज़ चेनलों का सिर्फ़ एक पक्ष का नाम जपना, सरकार द्वारा सभी स्वतंत्र संस्थाओं का दुरपयोग करना, राज्यपाल का एक निजी सेवक की तरह काम करना, काले धन और अनगिनत समस्याओं से निपटने के लिए नोटबंदी करना और उसका कोई परिणाम ना निकलना आदि मैं आपको कोई समस्या नज़र नही आती ? धन्य है आपकी और बाकी लोगो की धर्म और पार्टी भक्ति| कभी देश के लिए वोट करने की सोचो और देश के हालात बिना पक्षपात के जानने हो तो एक नज़र www.modi-HATAO-DESH-BACHAO.CO.IN पर डाल लेना | मुझे उमीद नही है की यह कमेंट छप्प जाएगा क्यूंकी आलोचना सुनना हर किसी के बूते की बात नही है चाहे प्रधानमंत्री हो या आम आदमी
हटाएंभूसे में कंकड़...
हटाएंकुतर्क कहीं नहीं पहुँचता. मैंने यहाँ मप्र में 60 वर्ष गुजारे हैं. राज्य को गर्त में जाते देखा है. विद्युत मंडल की नौकरी में विद्युत व्यवस्था को राजनीति की भेंट चढ़ते देखा है जिसमें सरप्लस बिजली और रेवेन्यू थी 89-90 में वो इतनी कम हो गई कि बिजली अंडर फ्रिक्वेंसी में कब आएगी और कब जाएगी यह नहीं पता होता था और जनता हम जैसे अधिकारियों/कर्मचारियों का मुंह काला कर घुमाती थी . सड़कें ग़ायब हो गई थीं और केवल गड्ढे नजर आते थे. 40 किमी राजमार्ग छः घंटे में तय कर पाते थे. और भी भयावह किस्से हैं...
शुक्र है कि अधिकांश जनता मूर्ख, एजेंडाबाज नहीं है.
अच्छा स्वास्थ्य जीवन की आवश्यकता है ।स्वछता से स्वास्थ का सीधा संबंध है । पिछले 65सालों में सरकार ने इस छोटी सी बात परंतु विकराल समस्या पर ध्यान ही नहीं दिया ।इसक अलावा गांव ,कस्बा बस्ती और शहर में भी महिला ये लड़कियां शौच के लिए खुले में बैठती है शर्मकी बात तो है ही साथ ही अपराध भी घटित होते है ।
हटाएंमोदी जी ने इस संबंध मे न केवल सोचा बल्कि हर स्तर पर स्वछ्ता अभियान को कमरकस लागू किया है ।सत सत नमन है ।
अच्छा स्वास्थ्य जीवन की आवश्यकता है ।स्वछता से स्वास्थ का सीधा संबंध है । पिछले 65सालों में सरकार ने इस छोटी सी बात परंतु विकराल समस्या पर ध्यान ही नहीं दिया ।इसक अलावा गांव ,कस्बा बस्ती और शहर में भी महिला ये लड़कियां शौच के लिए खुले में बैठती है शर्मकी बात तो है ही साथ ही अपराध भी घटित होते है ।
हटाएंमोदी जी ने इस संबंध मे न केवल सोचा बल्कि हर स्तर पर स्वछ्ता अभियान को कमरकस लागू किया है ।सत सत नमन है ।