व्यंग्य में सस्ता महंगा तेल तेल – अरे भाई, वही पेट्रोल और डीज़ल - की कीमतों ने सिर उठाया हुआ है. इतना कि एक पैसे की कीमत भी आसमान छूने लगी ...
व्यंग्य में सस्ता महंगा तेल
तेल – अरे भाई, वही पेट्रोल और डीज़ल - की कीमतों ने सिर उठाया हुआ है. इतना कि एक पैसे की कीमत भी आसमान छूने लगी और एक नया पैसा फिर से करोड़ों में खेलने लगा. व्यंग्यकारों ने भी खूब कुंजियाँ खटखटाईं और जितनी तो तेल की धार नहीं थी, उससे ज्यादा व्यंग्य लिख मारे. अरे, मेरे कहने का मतलब था कि जितने तो पाठक नहीं हैं, उससे ज्यादा व्यंग्यकार हैं और उससे भी कहीं और ज्यादा व्यंग्य लिखे जा रहे हैं. ऐसे में व्यंग्य की, चाहे वो कहीं से भी निकला हो, तेल निकलना स्वाभाविक है.
यूँ, बहुत से निर्लिप्त किस्म के व्यंग्यकारों ने तेल को बाजू में रखा – कारण अब तक अज्ञात है, – और एक दूसरे के व्यंग्य में तेल की मात्रा निकालने, देखने, परखने के काम में बदस्तूर लगे रहे. किसी ने कहा इसके व्यंग्य में तो तेल ही नहीं है, किसी ने कहा इसके व्यंग्य में तो तेल ही बिना वसा युक्त है यानी सपाट है, किसी और ने कहा कि इस व्यंग्य के तेल में खाद्य (व्यंग्य) नहीं, अखाद्य (हास्य) तेल है – वह भी बदबूदार (फूहड़) किस्म का. किसी ने कहा कि यह व्यंग्य, व्यंग्य नहीं कुव्यंग्य है – इसके भीतर से व्यंग्य के तेल को पहले से ही निचोड़ कर बाहर फेंक कर फिर लिखा गया है!
किसी को वन लाइनर व्यंग्य में व्यंग्य का तेल ही नजर नहीं आता तो कोई व्यंग्य को साहित्य-विधा के मुख्य तेल टैंक में वाजिब स्थान नहीं मिलने से परेशान हलाकान है. किसी को व्यंग्य-जुगलबंदी में लिखी जा रही इबारतों में कहीं-किसी-सूरत से व्यंग्य का तेल नजर नहीं आता. लोगों को बड़ी समस्या है कि हर ऐरा-गैरा अ-व्यंग्यीय या कु-व्यंग्यीय किस्म का तैल युक्त लेख तथाकथित व्यंग्य के नाम पर परोसा जा रहा है और जिसे हर अलेखक किस्म का अव्यंग (टाइपो नहीं है भाई,!) लेखक लिख मार रहा है, और यही नहीं, सर्वत्र छपने-छापने-छपवाने की घृष्टता भी कर रहा है और जिसे अज्ञान टाइम्स जैसे डेली पेपर शान से प्रकाशित करते हैं. कोई दूसरा दस-बीस युवा-वरिष्ठों आदि व्यंग्यकारों की सूची टांग कर उनके अपने तैलीय स्तर का आकलन करने लगता है तो तीसरा ऐसी किसी भी सूची को सिरे से खारिज कर अपनी नई, सूची जाहिर करता है जिसमें व्यंग्यों और व्यंग्यकारों में तेलों की धार की अपनी अलग ही किस्में - सस्ती और महंगी - होती हैं. किसी का व्यंग्य बादामी तैल युक्त दिखता-सुंघाता है तो कोई व्यंग्य चमेली के तैल युक्त लुभाता-भिगोता है. यूँ, मिनरल आयल वाले व्यंग्यों की बहुतायत है, कॉड लिवर आइल जैसे औषधीय व्यंग्यों की सख्त जरूरत है.
इधर कोई अखबारी व्यंग्यों के सड़ेले तेलों की बहुतायतता से परेशान है तो किसी को अमौलिक, विषयों की बारंबारता, सामयिक किस्म के व्यंग्यीय तेलों से बदबू आती है. कुछ महान किस्म के लोगों ने खुद के तेल रहित व्यंग्यों से परेशान होकर अगले के व्यंग्यों को तेल रहित घोषित करने का महान बीड़ा चिरकालिक रूप से उठाया हुआ है.
इधर व्यंग्य का पाठक हैं कि वे भी हलाकान परेशान हैं, कनफ़्यूज़ियाये हुए हैं. जिस व्यंग्य में उन्हें मारक स्तर का व्यंग्यीय-तैल असल में मिला था, पता चलता है कि वरिष्ठों ने उसे पहले ही खारिज किया हुआ है, बिना तैल का, अतैलीय माना हुआ है. अब वो पढ़ें तो क्या पढ़ें!
अब आपकी बारी है. इस आलेख में व्यंग्य का क्या कितना तेल है या नहीं ही है या सड़ेला किस्म का है? और, है तो, सस्ता है या महंगा है, जरा बताइए तो!
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