कल्पना कीजिए कि आप बाहर यात्रा के लिए निकले हैं, ट्रेन पकड़नी है, और समयाभाव व ट्रैफ़िक जाम की वजह से थोड़ी जल्दी में भी हैं. अचानक आपको या...
कल्पना कीजिए कि आप बाहर यात्रा के लिए निकले हैं, ट्रेन पकड़नी है, और समयाभाव व ट्रैफ़िक जाम की वजह से थोड़ी जल्दी में भी हैं. अचानक आपको याद आता है कि आप अपना टूथब्रश और टूथपेस्ट रखना भूल गए हैं. कोई बात नहीं, आप इसे रास्ते चलते परचून की दुकान से खरीदने के लिए रुक जाते हैं. दुकान वाला पहले ही किसी अन्य खरीदार से जूझ रहा होता है. उसे निपटाकर वह आपसे मुखातिब होता है. आप जल्दी में हैं, आपके ट्रेन छूट जाने का समय हो रहा है, मगर दुकानदार को आपकी यह अर्जेंसी पता नहीं है, तो वो अपने हिसाब से आपको सामान देता है. फिर आप खरीदी हुई वस्तु का भुगतान करते हैं तो एक और समस्या आती है. आपके पास केवल बड़े नोट हैं और दुकानदार के पास आपको देने को पर्याप्त छुट्टे नहीं हैं. इस आपाधापी में आपकी ट्रेन छूट जाती है.
अब अपनी इस कल्पना में थोड़ा सा ट्विस्ट कीजिए. आप जिस दुकान पर टूथपेस्ट लेने जा रहे हैं, वहाँ आरएफआईडी सेंसर युक्त कॉन्टैक्टलेस पेमेंट की सुविधा है और आपने भी कॉन्टैक्टलैस पेमेंट वाला आरएफआईडी टैग युक्त रिस्टबैंड पहना हुआ है. आप दुकान में घुसते हैं, टूथपेस्ट, टूथब्रश उस दुकान के काउंटर से उठाते हैं, और बस वहां से बाहर आ जाते हैं. आपके दुकान में घुसते ही वहाँ का आरएफआईडी सेंसर आपको पहचान लेता है और दुकान पर स्थित विभिन्न सेंसर सक्रिय हो जाते हैं और जो जो सामान आप उठाते हैं उनकी कीमत जोड़ते जाते हैं. जैसे ही आप दुकान से बाहर आते हैं, आपके खाते में स्वचालित बिलिंग हो जाती है और स्वचालित भुगतान हो जाता है जिसकी सूचना आपको आपके मोबाइल पर एसएमएस और ईमेल के जरिए मिल जाती है. दुकान के गेट पर बैठे दुकानदार या चौकीदार के पास ग्रीन सिग्नल आता है कि भुगतान हो चुका है. वो आपका अभिनंदन करता है और आप इस तर तुरंत ही खुशी-खुशी इंस्टैंट भुगतान कर निकल लेते हैं. और आपकी ट्रेन आपको आराम से मिल जाती है. ऊपर से, न चिल्लर का चक्कर और न ढेर सारे रुपए लेकर साथ चलने की जरूरत.
कैशलेस भुगतान की यही सबसे बड़ी खूबी है. आप अपने साथ अपना बैंक लेकर चल सकते हैं, हर किस्म का चिल्लर और कितनी ही बड़ी राशि चाहे वह लाखों में हो – अपने जेब में साथ लेकर – एक प्लास्टिक कार्ड – डेबिट या क्रेडिट कार्ड - में या अपने मोबाइल वालेट के रूप में साथ लेकर चल सकते हैं, और उसका उपयोग चौबीसों घंटे कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं. वह भी पूरी तरह सुरक्षित.
आइए, अब जानते हैं कि कैशलेस भुगतान प्रणाली के पीछे का विज्ञान क्या है क्या क्या विकल्प हैं और यह काम कैसे करता है. परंतु पहले इसका इतिहास जानें –
कैशलेस भुगतान प्रणाली का इतिहास मानवीय सभ्यता जितना पुराना है जिसमें बार्टर यानी वस्तु-विनिमय का उपयोग किया जाता था. उधारी प्रथा भी एक तरह का कैशलेस तंत्र है जिसमें महीने के अंत में या एक नियमित अंतराल पर वास्तविक रकम का लेन-देन किया जाता है, बाकी समय लेन-देन को एक रजिस्टर या बही में दर्ज कर लिया जाता है. परंतु आधुनिक कैशलेस भुगतान प्रणाली जिसमें क्रेडिट डैबिट कार्डों अथवा ईवालेट जैसी टेक्नोलॉज़ी का उपयोग होता है, वह जटिल कंप्यूटिंग और इंटरनेट प्रणाली का सुरक्षित प्रयोग कर बनाया गया है.
लेन-देन के लिए रुपए-पैसे के बदले क्रेडिट कार्ड का उपयोग करने की संकल्पना और इस शब्द का उपयोग उपन्यासकार एडवर्ड बेलामी ने अपने उपन्यास लुकिंग बैकवर्ड में सन 1887 में किया. तब इसे कोरी कल्पना ही कहा जा सकता था. मगर जल्द ही, विभिन्न व्यापारिक संस्थानों जिनमें होटल, डिपार्टमेंटल स्टोर और पेट्रोल पम्प आदि शामिल थे, अपने परिचित व बारंबार आने वाले ग्राहकों की सुविधा के लिए कुछ उपाय गढ़ने प्रारंभ किए. उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में चार्ज-क्वाइन का प्रयोग प्रारंभ हुआ. ये चार्ज-क्वाइन आमतौर पर धातुओं के बने होते थे और केवल परिचित और नियमित ग्राहकों को दिए जाते थे जिनका खाता व्यापारिक संस्थानों में होता था. इस तरह इन चार्ज क्वाइन को दिखाकर लेन-देन को खाते में दर्ज कर लिया जाता था. सन् 1920 के आते आते चार्ज क्वाइन का रुपरंग बदल गया और चार्ज-प्लेट और चार्ज कार्ड का उपयोग होने लगा. वेस्टर्न यूनियन ने अपने नियमित ग्राहकों के लिए चार्ज कार्ड पेश किया और दस साल के भीतर ही ये कार्ड इतने लोकप्रिय हुए कि अन्य व्यापारिक संस्थानों ने एक दूसरे के कार्ड भी स्वीकार करना प्रारंभ कर दिए. चूंकि उस जमाने में इंटरनेट या इलेक्ट्रॉनिकी जैसी कोई सुविधा नहीं थी, अतः उन कार्डों में एम्बोज कर या कार्ड के पीछे चिपकी कागज की शीट पर मशीन से छपाई कर लेनदेन का विवरण दर्ज किया जाता था और महीने के अंत में कार्ड पर देय रकम का भुगतान किया जाता था.
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तब की उपलब्ध ये सारी सुविधाएँ, तब की उपलब्ध वैज्ञानिकी, प्रौद्योगिकी पर निर्भर थीं, और इसी वजह से बेहद सीमित मात्रा में ही प्रचलित थीं. आमतौर पर क्षेत्र विशेष में ही. और इनके इस्तेमाल में तमाम झंझटें भी थी. फिर, सितंबर 1958 में बैंक ऑफ अमरीका ने एक बड़ा दांव खेला. बैंक ऑफ अमेरिका ने फ्रेस्नो शहर के सभी 60 हजार योग्य निवासियों को बैंकअमरीकार्ड नामक क्रेडिट कार्ड मुफ़्त में भेज दिया और इसका उपयोग शहर के तमाम व्यापारिक संस्थानों में करने का अनुरोध किया. शहर के तमाम व्यापारिक संस्थानों से भी इस कार्ड को स्वीकार करने का अनुरोध किया. यह परीक्षण चल निकला और इस कार्ड की मांग तो बढ़ी ही, नए प्रकल्पों के गठन का रास्ता भी खुला. 1966 में मास्टरकार्ड का जन्म हुआ और 1976 में बैंकअमरीकीकार्ड का नाम बदल कर वीजा कार्ड हो गया. दुनियाभर के देशों में यही दो कार्ड अधिक लोकप्रिय हैं. परंतु तब इन कार्डों का प्रयोग, कैशलेस की सुविधा देते होते हुए भी उपयोगकर्ताओं के लिए झंझट भरा होता था, बावजूद इसे ये कार्ड लोकप्रिय होते रहे.
आप पूछेंगे कि कैसे? तब जब आप अपना क्रेडिट कार्ड कहीं प्रयोग में लेते थे तो व्यापारिक संस्थान पहले आपके कार्ड के बैंक में फ़ोन लगाते थे और फिर आपके कार्ड के सही होने की व खाते में पर्याप्त बैलेंस या लिमिट की पुष्टि करते थे. पुष्टि हो जाने के उपरांत ही वे आपके कार्ड के लेनदेन को स्वीकृत करते थे. कार्ड लेनदेन की स्वचालित सुविधा ग्राहकों को तब मिलने लगी जब 1973 के पश्चात बैंकों में बड़े स्तर पर कंप्यूटरीकरण का दौर प्रारंभ हुआ. और नेटवर्क के जरिए कंप्यूटर पूरे समय एक दूसरे से जुड़े रहने लगे.
और जब दुनिया को इंटरनेट की सुविधा मिली, तब कैशलेस भुगतान सुविधा को तो जैसे पंख लग गए. बैंकों के चौबीसों घंटे आपस में जुड़े रहने और उपलब्ध रहने की सुविधा ने न केवल नए-नए विकल्प प्रदान किए, ये क्रेडिट कार्ड इंटरनेट बैंकिंग सेवा से पूर्ण रूपेण जुड़ गए और इनके विविध रूप जैसे कि डेबिट कार्ड, प्रीपेड कार्ड, पेट्रो कार्ड आदि भी आ गए. इंटरनेट के माध्यम से ही लेनदेन का प्रकल्प पेपाल भी आ गया जिसके जरिए घर बैठे ही समुद्रपार लेनदेन किया जा सकता था. अब तो एनएफ़सी और आरएफआईडी टैग जैसे सिस्टम आ चुके हैं जिनके जरिए बिना किसी कार्ड स्वाइप के, मात्र अपनी उपस्थिति से भुगतान कर सकते हैं. यही नहीं, इंटरनेट की अपनी, आभासी मुद्रा बिटक्वाइन भी आ गई जिसे लोगों ने हाथों हाथ लिया.
इसतरह, कैशलेस लेनदेन को देखें तो यह इंटरनेट के साथ ही पला-बढ़ा. हालांकि विभिन्न देशों में इस विधि की स्वीकार्यता विभिन्न कारणों से, इंटरनेट की स्वीकार्यता से बिलकुल भिन्न किस्म की रही है. फिर भी, जिन देशों में इंटरनेट को समग्र रूप से उपयोग में लिया जाता रहा है, वहां कैशलेस भुगतान प्रणाली परिपूर्ण विकसित और स्वीकार्य हो चुकी है. कुछ उन्नत देशों में तो यह 90-95 प्रतिशत तक स्वीकार्य हो चुकी है और केवल 5-10 प्रतिशत लोग ही लेन-देन के लिए यदा कदा रुपए पैसे का उपयोग करते हैं. यूँ तो अब, कैशलेस लेनदेन पूरी तरह इंटरनेट पर निर्भर है. परंतु बहुत सी जगह मोबाइल फ़ोनों से एसएमएस के जरिए भी कैशलेस बैंकिंग की सुविधा हासिल हो रही है, मगर इनके बैकएंड में तगड़ा इंटरनेट सपोर्ट समाहित होता है.
अभी जब आप कोई कैशलेस लेनदेन करते हैं – उदाहरण के लिए, आपने किसी दुकान पर अपने डेबिट कार्ड से स्वाइप मशीन से भुगतान किया. आपने कार्ड स्वाइप किया, मशीन में अपना पिन डाला और भुगतान हो गया. इस पूरी प्रक्रिया में पीछे बेहद जटिल कार्य निष्पादित हुए हैं – जिन्हें सिलसिलेवार इस तरह समझा जा सकता है – जैसे ही आपने कार्ड स्वाइप किया, इसके मैग्नेटिक स्ट्रिप् में मौजूद डेटा को पढ़कर वह स्वाइप मशीन आपके कार्ड को, आपके खाते को पहचान गया, और एक सेंट्रल सर्वर पर डेटा को भेज दिया कि कार्ड के जरिए इतनी राशि का भुगतान करना है. सर्वर पर आपके खाते में मौजूद रकम या लिमिट की सत्यता को चेक किया जाता है और आपके पिन को वेलिडेट किया जाता है. यह सही होने पर पलक झपकते ही भुगतान हो जाता है. यह सारा संचार अति सुरक्षित एनक्रिप्टेड होता है. हालांकि हाल ही में कुछ रपट यह भी आई थी कि किसी खास कंपनी के पीओएस मशीनों में वायरस इंस्टाल कर उनके डेटा चुराए गए थे और कंपनियों और बैंकों को बड़ा चूना लगाया गया था.
आमतौर पर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि इंटरनेट बैंकिंग जो कि वर्तमान के किसी भी किस्म के कैशलेस लेन-देन का बैकबोन है, असुरक्षित रहता है और हैकर्स इसमें सेंध मारते रहते हैं. तो मामला भले ही तू डाल-डाल-और मैं पात-पात जैसा रहता हो, आमतौर पर यदि थोड़ी सी सावधानी बरती जाए, तो आधुनिक कैशलेस लेन-देन पूरी तरह सुरक्षित रहता है. मैं स्वयं पिछले बीस साल से इंटरनेट बैंकिंग व डेबिट/क्रेडिट कार्डों का उपयोग कर रहा हूँ, यहाँ तक कि पुराने मोबाइल फ़ीचर फ़ोन में स्टेटबैंक ऑफ इंडिया के मोबाइल बैंकिंग का प्रयोग भी एसएमएस के जरिए करता रहा हूँ, जिसमें इंटरनेट की जरूरत नहीं होती है, आज तक मुझे किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं हुई और न ही मेरा एक पैसा किसी गलत या फर्जी ट्रांजैक्शन में फंसा. एकाध बार एटीएम में कैश नहीं निकला और खाते में क्रेडिट हो गया, मगर वह पैसा भी सप्ताह भर के भीतर वापस खाते में जमा हो गया. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कैशलेस लेनदेन पूरी तरह सुरक्षित रहता है और केवल एक-दो प्रतिशत मामले में ही समस्या होती है.
वर्तमान में भारत में कैशलेस लेनदेन के लिए अति सुरक्षित पेमेंट ग्रेड एनक्रिप्शन टेक्नोलॉज़ी का उपयोग किया जाता है जिससे कि उपयोगकर्ता व बैंक का डेटा सुरक्षित रहे. इसे खासतौर पर सरकार के नेशनल पेमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के लिए बनाया गया है. मास्टरकार्ड और वीज़ा के कार्ड में भी उन्नत किस्म की एनक्रिप्शन टेक्नोलॉज़ी का प्रयोग किया जाता है जिससे प्रयोग के दौरान हैकिंग आदि के जरिए उपयोगकर्ताओं या व्यापारिक संस्थानों को चूना लगाने वाली संभावना नहीं होती. आमतौर पर इन कार्डों के प्रयोग में सुरक्षा की समस्या कार्ड धारक के कार्ड गुमने, गलत हाथों में जाने अथवा कार्ड का प्रयोग जहाँ हुआ है वहां के सिस्टम में सेंध मारकर डेटा चुराने आदि से होती है. फिर भी, ऐसे गलत लेनदेन की रपट यदि तीन कार्यदिवस के भीतर दे दी जाए तो उपयोगकर्ता का पैसा आमतौर पर सुरक्षित होता है चूंकि कानूनन, ऐसे लेनदेन के लिए फिर सेवा-प्रदाता कंपनियाँ जिम्मेदार होती हैं.
आज के दौर में कैशलेस लेनदेन के लिए बहुत सारे विकल्प हैं. क्रेडिट/डेबिट/प्रीपेड कार्ड में पहले मैग्नेटिक स्ट्रिप का प्रयोग होता था. जिसे पीओएस मशीन से स्वाइप कर लेनदेन सुनिश्चित किया जाता था. सुरक्षा बढ़ाने के लिहाज से उनमें चिप लग कर आने लगे. फिर उनमें सुविधा के लिहाज से एनएफसी टैग आने लगा जिससे भुगतान में और आसानी होने लगी – यानी बिना स्वाइप किए, कार्ड को मशीन में बिना लगाए, केवल टैप कर लेनदेन पूरा किया जाने लगा. इंटरनेट बैंकिंग व मोबाइल ऐप्प से बैंकिंग भले ही थोड़ा झंझट भरा हो सकता है, मगर यह एक अति सुरक्षित माध्यम कहा जा सकता है क्योंकि इसमें द्विस्तरीय और त्रिस्तरीय सुरक्षा जोड़ी जा सकती है. आपके रजिस्टर्ड मोबाइल पर प्रत्येक ट्रांजैक्शन के लिए पासवर्ड या पिन भेजा जाता है जिसे भर कर आपको अपना भुगतान वेलिडेट करना होता है. हाल ही में आरबीआई ने नया गाइडलाइन जारी किया है जिससे पंजीकरण के उपरांत उपयोगकर्ता और व्यापारिक संस्थान दो हजार रुपये से कम के लेनदेन पर हर बार पासवर्ड या पिन दर्ज करने के झंझट से मुक्ति पा सकेंगे और उनका केशलेस व्यवहार और आसान होगा. आजकल हर व्यक्ति के हाथ में एक अदद मोबाइल वह भी स्मार्टफ़ोन किस्म का दिख ही जाता है. फ्रीचार्ज और पेटीएम जैसे ऐप्प से आपका स्मार्टफ़ोन अब आपके बटुए का रूप धारण करने में पूरी तरह सक्षम हैं, और वह भी पूरी तरह सुरक्षित. आपका बटुआ यदि कोई चुरा ले तो उसमें रखा पूरा रुपया उस पॉकेटमार का हो जाता है, मगर यदि आपका मोबाइल बटुआ यानी मोबाइल फ़ोन यदि कोई चुरा ले या गुम जाए, तो भी उसमें से आमतौर पर कोई कुछ चुरा नहीं सकता क्योंकि पासवर्ड और पिन तो आपको आपके मन में याद रहता है. ऊपर से, आज की उन्नत तकनीक में इंटरनेट के जरिए या किसी अन्य मोबाइल के जरिए तत्काल ही अपने मोबाइल फ़ोन को लॉक कर सकते हैं व उसमें मौजूद डेटा को हटा सकते हैं.
यूँ भी आने वाला समय कैशलेस का होगा. कहीं भी जाइए, किसी भी देश में जाइए, किसी भी मुद्रा में लेनदेन करिए, कितनी ही छोटी बड़ी राशि का लेनदेन करिए, किसी भी समय लेनदेन करिए – कहीं कोई समस्या नहीं. कैशलेस तंत्र की यही खूबी है. तो आइए, इसे अभी से क्यों न अपनाएँ? आइए, कैशलेस हो जाएँ!
अब अपनी इस कल्पना में थोड़ा सा ट्विस्ट कीजिए. आप जिस दुकान पर टूथपेस्ट लेने जा रहे हैं, वहाँ आरएफआईडी सेंसर युक्त कॉन्टैक्टलेस पेमेंट की सुविधा है और आपने भी कॉन्टैक्टलैस पेमेंट वाला आरएफआईडी टैग युक्त रिस्टबैंड पहना हुआ है. आप दुकान में घुसते हैं, टूथपेस्ट, टूथब्रश उस दुकान के काउंटर से उठाते हैं, और बस वहां से बाहर आ जाते हैं. आपके दुकान में घुसते ही वहाँ का आरएफआईडी सेंसर आपको पहचान लेता है और दुकान पर स्थित विभिन्न सेंसर सक्रिय हो जाते हैं और जो जो सामान आप उठाते हैं उनकी कीमत जोड़ते जाते हैं. जैसे ही आप दुकान से बाहर आते हैं, आपके खाते में स्वचालित बिलिंग हो जाती है और स्वचालित भुगतान हो जाता है जिसकी सूचना आपको आपके मोबाइल पर एसएमएस और ईमेल के जरिए मिल जाती है. दुकान के गेट पर बैठे दुकानदार या चौकीदार के पास ग्रीन सिग्नल आता है कि भुगतान हो चुका है. वो आपका अभिनंदन करता है और आप इस तर तुरंत ही खुशी-खुशी इंस्टैंट भुगतान कर निकल लेते हैं. और आपकी ट्रेन आपको आराम से मिल जाती है. ऊपर से, न चिल्लर का चक्कर और न ढेर सारे रुपए लेकर साथ चलने की जरूरत.
कैशलेस भुगतान की यही सबसे बड़ी खूबी है. आप अपने साथ अपना बैंक लेकर चल सकते हैं, हर किस्म का चिल्लर और कितनी ही बड़ी राशि चाहे वह लाखों में हो – अपने जेब में साथ लेकर – एक प्लास्टिक कार्ड – डेबिट या क्रेडिट कार्ड - में या अपने मोबाइल वालेट के रूप में साथ लेकर चल सकते हैं, और उसका उपयोग चौबीसों घंटे कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं. वह भी पूरी तरह सुरक्षित.
आइए, अब जानते हैं कि कैशलेस भुगतान प्रणाली के पीछे का विज्ञान क्या है क्या क्या विकल्प हैं और यह काम कैसे करता है. परंतु पहले इसका इतिहास जानें –
कैशलेस भुगतान प्रणाली का इतिहास मानवीय सभ्यता जितना पुराना है जिसमें बार्टर यानी वस्तु-विनिमय का उपयोग किया जाता था. उधारी प्रथा भी एक तरह का कैशलेस तंत्र है जिसमें महीने के अंत में या एक नियमित अंतराल पर वास्तविक रकम का लेन-देन किया जाता है, बाकी समय लेन-देन को एक रजिस्टर या बही में दर्ज कर लिया जाता है. परंतु आधुनिक कैशलेस भुगतान प्रणाली जिसमें क्रेडिट डैबिट कार्डों अथवा ईवालेट जैसी टेक्नोलॉज़ी का उपयोग होता है, वह जटिल कंप्यूटिंग और इंटरनेट प्रणाली का सुरक्षित प्रयोग कर बनाया गया है.
लेन-देन के लिए रुपए-पैसे के बदले क्रेडिट कार्ड का उपयोग करने की संकल्पना और इस शब्द का उपयोग उपन्यासकार एडवर्ड बेलामी ने अपने उपन्यास लुकिंग बैकवर्ड में सन 1887 में किया. तब इसे कोरी कल्पना ही कहा जा सकता था. मगर जल्द ही, विभिन्न व्यापारिक संस्थानों जिनमें होटल, डिपार्टमेंटल स्टोर और पेट्रोल पम्प आदि शामिल थे, अपने परिचित व बारंबार आने वाले ग्राहकों की सुविधा के लिए कुछ उपाय गढ़ने प्रारंभ किए. उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में चार्ज-क्वाइन का प्रयोग प्रारंभ हुआ. ये चार्ज-क्वाइन आमतौर पर धातुओं के बने होते थे और केवल परिचित और नियमित ग्राहकों को दिए जाते थे जिनका खाता व्यापारिक संस्थानों में होता था. इस तरह इन चार्ज क्वाइन को दिखाकर लेन-देन को खाते में दर्ज कर लिया जाता था. सन् 1920 के आते आते चार्ज क्वाइन का रुपरंग बदल गया और चार्ज-प्लेट और चार्ज कार्ड का उपयोग होने लगा. वेस्टर्न यूनियन ने अपने नियमित ग्राहकों के लिए चार्ज कार्ड पेश किया और दस साल के भीतर ही ये कार्ड इतने लोकप्रिय हुए कि अन्य व्यापारिक संस्थानों ने एक दूसरे के कार्ड भी स्वीकार करना प्रारंभ कर दिए. चूंकि उस जमाने में इंटरनेट या इलेक्ट्रॉनिकी जैसी कोई सुविधा नहीं थी, अतः उन कार्डों में एम्बोज कर या कार्ड के पीछे चिपकी कागज की शीट पर मशीन से छपाई कर लेनदेन का विवरण दर्ज किया जाता था और महीने के अंत में कार्ड पर देय रकम का भुगतान किया जाता था.
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तब की उपलब्ध ये सारी सुविधाएँ, तब की उपलब्ध वैज्ञानिकी, प्रौद्योगिकी पर निर्भर थीं, और इसी वजह से बेहद सीमित मात्रा में ही प्रचलित थीं. आमतौर पर क्षेत्र विशेष में ही. और इनके इस्तेमाल में तमाम झंझटें भी थी. फिर, सितंबर 1958 में बैंक ऑफ अमरीका ने एक बड़ा दांव खेला. बैंक ऑफ अमेरिका ने फ्रेस्नो शहर के सभी 60 हजार योग्य निवासियों को बैंकअमरीकार्ड नामक क्रेडिट कार्ड मुफ़्त में भेज दिया और इसका उपयोग शहर के तमाम व्यापारिक संस्थानों में करने का अनुरोध किया. शहर के तमाम व्यापारिक संस्थानों से भी इस कार्ड को स्वीकार करने का अनुरोध किया. यह परीक्षण चल निकला और इस कार्ड की मांग तो बढ़ी ही, नए प्रकल्पों के गठन का रास्ता भी खुला. 1966 में मास्टरकार्ड का जन्म हुआ और 1976 में बैंकअमरीकीकार्ड का नाम बदल कर वीजा कार्ड हो गया. दुनियाभर के देशों में यही दो कार्ड अधिक लोकप्रिय हैं. परंतु तब इन कार्डों का प्रयोग, कैशलेस की सुविधा देते होते हुए भी उपयोगकर्ताओं के लिए झंझट भरा होता था, बावजूद इसे ये कार्ड लोकप्रिय होते रहे.
आप पूछेंगे कि कैसे? तब जब आप अपना क्रेडिट कार्ड कहीं प्रयोग में लेते थे तो व्यापारिक संस्थान पहले आपके कार्ड के बैंक में फ़ोन लगाते थे और फिर आपके कार्ड के सही होने की व खाते में पर्याप्त बैलेंस या लिमिट की पुष्टि करते थे. पुष्टि हो जाने के उपरांत ही वे आपके कार्ड के लेनदेन को स्वीकृत करते थे. कार्ड लेनदेन की स्वचालित सुविधा ग्राहकों को तब मिलने लगी जब 1973 के पश्चात बैंकों में बड़े स्तर पर कंप्यूटरीकरण का दौर प्रारंभ हुआ. और नेटवर्क के जरिए कंप्यूटर पूरे समय एक दूसरे से जुड़े रहने लगे.
और जब दुनिया को इंटरनेट की सुविधा मिली, तब कैशलेस भुगतान सुविधा को तो जैसे पंख लग गए. बैंकों के चौबीसों घंटे आपस में जुड़े रहने और उपलब्ध रहने की सुविधा ने न केवल नए-नए विकल्प प्रदान किए, ये क्रेडिट कार्ड इंटरनेट बैंकिंग सेवा से पूर्ण रूपेण जुड़ गए और इनके विविध रूप जैसे कि डेबिट कार्ड, प्रीपेड कार्ड, पेट्रो कार्ड आदि भी आ गए. इंटरनेट के माध्यम से ही लेनदेन का प्रकल्प पेपाल भी आ गया जिसके जरिए घर बैठे ही समुद्रपार लेनदेन किया जा सकता था. अब तो एनएफ़सी और आरएफआईडी टैग जैसे सिस्टम आ चुके हैं जिनके जरिए बिना किसी कार्ड स्वाइप के, मात्र अपनी उपस्थिति से भुगतान कर सकते हैं. यही नहीं, इंटरनेट की अपनी, आभासी मुद्रा बिटक्वाइन भी आ गई जिसे लोगों ने हाथों हाथ लिया.
इसतरह, कैशलेस लेनदेन को देखें तो यह इंटरनेट के साथ ही पला-बढ़ा. हालांकि विभिन्न देशों में इस विधि की स्वीकार्यता विभिन्न कारणों से, इंटरनेट की स्वीकार्यता से बिलकुल भिन्न किस्म की रही है. फिर भी, जिन देशों में इंटरनेट को समग्र रूप से उपयोग में लिया जाता रहा है, वहां कैशलेस भुगतान प्रणाली परिपूर्ण विकसित और स्वीकार्य हो चुकी है. कुछ उन्नत देशों में तो यह 90-95 प्रतिशत तक स्वीकार्य हो चुकी है और केवल 5-10 प्रतिशत लोग ही लेन-देन के लिए यदा कदा रुपए पैसे का उपयोग करते हैं. यूँ तो अब, कैशलेस लेनदेन पूरी तरह इंटरनेट पर निर्भर है. परंतु बहुत सी जगह मोबाइल फ़ोनों से एसएमएस के जरिए भी कैशलेस बैंकिंग की सुविधा हासिल हो रही है, मगर इनके बैकएंड में तगड़ा इंटरनेट सपोर्ट समाहित होता है.
अभी जब आप कोई कैशलेस लेनदेन करते हैं – उदाहरण के लिए, आपने किसी दुकान पर अपने डेबिट कार्ड से स्वाइप मशीन से भुगतान किया. आपने कार्ड स्वाइप किया, मशीन में अपना पिन डाला और भुगतान हो गया. इस पूरी प्रक्रिया में पीछे बेहद जटिल कार्य निष्पादित हुए हैं – जिन्हें सिलसिलेवार इस तरह समझा जा सकता है – जैसे ही आपने कार्ड स्वाइप किया, इसके मैग्नेटिक स्ट्रिप् में मौजूद डेटा को पढ़कर वह स्वाइप मशीन आपके कार्ड को, आपके खाते को पहचान गया, और एक सेंट्रल सर्वर पर डेटा को भेज दिया कि कार्ड के जरिए इतनी राशि का भुगतान करना है. सर्वर पर आपके खाते में मौजूद रकम या लिमिट की सत्यता को चेक किया जाता है और आपके पिन को वेलिडेट किया जाता है. यह सही होने पर पलक झपकते ही भुगतान हो जाता है. यह सारा संचार अति सुरक्षित एनक्रिप्टेड होता है. हालांकि हाल ही में कुछ रपट यह भी आई थी कि किसी खास कंपनी के पीओएस मशीनों में वायरस इंस्टाल कर उनके डेटा चुराए गए थे और कंपनियों और बैंकों को बड़ा चूना लगाया गया था.
आमतौर पर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि इंटरनेट बैंकिंग जो कि वर्तमान के किसी भी किस्म के कैशलेस लेन-देन का बैकबोन है, असुरक्षित रहता है और हैकर्स इसमें सेंध मारते रहते हैं. तो मामला भले ही तू डाल-डाल-और मैं पात-पात जैसा रहता हो, आमतौर पर यदि थोड़ी सी सावधानी बरती जाए, तो आधुनिक कैशलेस लेन-देन पूरी तरह सुरक्षित रहता है. मैं स्वयं पिछले बीस साल से इंटरनेट बैंकिंग व डेबिट/क्रेडिट कार्डों का उपयोग कर रहा हूँ, यहाँ तक कि पुराने मोबाइल फ़ीचर फ़ोन में स्टेटबैंक ऑफ इंडिया के मोबाइल बैंकिंग का प्रयोग भी एसएमएस के जरिए करता रहा हूँ, जिसमें इंटरनेट की जरूरत नहीं होती है, आज तक मुझे किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं हुई और न ही मेरा एक पैसा किसी गलत या फर्जी ट्रांजैक्शन में फंसा. एकाध बार एटीएम में कैश नहीं निकला और खाते में क्रेडिट हो गया, मगर वह पैसा भी सप्ताह भर के भीतर वापस खाते में जमा हो गया. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कैशलेस लेनदेन पूरी तरह सुरक्षित रहता है और केवल एक-दो प्रतिशत मामले में ही समस्या होती है.
वर्तमान में भारत में कैशलेस लेनदेन के लिए अति सुरक्षित पेमेंट ग्रेड एनक्रिप्शन टेक्नोलॉज़ी का उपयोग किया जाता है जिससे कि उपयोगकर्ता व बैंक का डेटा सुरक्षित रहे. इसे खासतौर पर सरकार के नेशनल पेमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के लिए बनाया गया है. मास्टरकार्ड और वीज़ा के कार्ड में भी उन्नत किस्म की एनक्रिप्शन टेक्नोलॉज़ी का प्रयोग किया जाता है जिससे प्रयोग के दौरान हैकिंग आदि के जरिए उपयोगकर्ताओं या व्यापारिक संस्थानों को चूना लगाने वाली संभावना नहीं होती. आमतौर पर इन कार्डों के प्रयोग में सुरक्षा की समस्या कार्ड धारक के कार्ड गुमने, गलत हाथों में जाने अथवा कार्ड का प्रयोग जहाँ हुआ है वहां के सिस्टम में सेंध मारकर डेटा चुराने आदि से होती है. फिर भी, ऐसे गलत लेनदेन की रपट यदि तीन कार्यदिवस के भीतर दे दी जाए तो उपयोगकर्ता का पैसा आमतौर पर सुरक्षित होता है चूंकि कानूनन, ऐसे लेनदेन के लिए फिर सेवा-प्रदाता कंपनियाँ जिम्मेदार होती हैं.
आज के दौर में कैशलेस लेनदेन के लिए बहुत सारे विकल्प हैं. क्रेडिट/डेबिट/प्रीपेड कार्ड में पहले मैग्नेटिक स्ट्रिप का प्रयोग होता था. जिसे पीओएस मशीन से स्वाइप कर लेनदेन सुनिश्चित किया जाता था. सुरक्षा बढ़ाने के लिहाज से उनमें चिप लग कर आने लगे. फिर उनमें सुविधा के लिहाज से एनएफसी टैग आने लगा जिससे भुगतान में और आसानी होने लगी – यानी बिना स्वाइप किए, कार्ड को मशीन में बिना लगाए, केवल टैप कर लेनदेन पूरा किया जाने लगा. इंटरनेट बैंकिंग व मोबाइल ऐप्प से बैंकिंग भले ही थोड़ा झंझट भरा हो सकता है, मगर यह एक अति सुरक्षित माध्यम कहा जा सकता है क्योंकि इसमें द्विस्तरीय और त्रिस्तरीय सुरक्षा जोड़ी जा सकती है. आपके रजिस्टर्ड मोबाइल पर प्रत्येक ट्रांजैक्शन के लिए पासवर्ड या पिन भेजा जाता है जिसे भर कर आपको अपना भुगतान वेलिडेट करना होता है. हाल ही में आरबीआई ने नया गाइडलाइन जारी किया है जिससे पंजीकरण के उपरांत उपयोगकर्ता और व्यापारिक संस्थान दो हजार रुपये से कम के लेनदेन पर हर बार पासवर्ड या पिन दर्ज करने के झंझट से मुक्ति पा सकेंगे और उनका केशलेस व्यवहार और आसान होगा. आजकल हर व्यक्ति के हाथ में एक अदद मोबाइल वह भी स्मार्टफ़ोन किस्म का दिख ही जाता है. फ्रीचार्ज और पेटीएम जैसे ऐप्प से आपका स्मार्टफ़ोन अब आपके बटुए का रूप धारण करने में पूरी तरह सक्षम हैं, और वह भी पूरी तरह सुरक्षित. आपका बटुआ यदि कोई चुरा ले तो उसमें रखा पूरा रुपया उस पॉकेटमार का हो जाता है, मगर यदि आपका मोबाइल बटुआ यानी मोबाइल फ़ोन यदि कोई चुरा ले या गुम जाए, तो भी उसमें से आमतौर पर कोई कुछ चुरा नहीं सकता क्योंकि पासवर्ड और पिन तो आपको आपके मन में याद रहता है. ऊपर से, आज की उन्नत तकनीक में इंटरनेट के जरिए या किसी अन्य मोबाइल के जरिए तत्काल ही अपने मोबाइल फ़ोन को लॉक कर सकते हैं व उसमें मौजूद डेटा को हटा सकते हैं.
यूँ भी आने वाला समय कैशलेस का होगा. कहीं भी जाइए, किसी भी देश में जाइए, किसी भी मुद्रा में लेनदेन करिए, कितनी ही छोटी बड़ी राशि का लेनदेन करिए, किसी भी समय लेनदेन करिए – कहीं कोई समस्या नहीं. कैशलेस तंत्र की यही खूबी है. तो आइए, इसे अभी से क्यों न अपनाएँ? आइए, कैशलेस हो जाएँ!
अन्ततः तो सबको अपनाना ही पड़ेगा। सुन्दर और जानकारीपूर्ण आलेख।
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