आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 471 जमनालाल बजाज पर लिखित पुस्तक से ...
आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी
471
जमनालाल बजाज पर लिखित पुस्तक से कुछ अंश
जमनालाल बजाज ने व्यापार में ईमानदारी को हमेशा सर्वोपरि मूल्य माना। शुरूआत में ही उन्होंने ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर आधारित आचरण नियम बनाए और हमेशा कड़ाई से उनका पालन किया।
एक बार उन्हें पता चला कि उनका एक अभिकर्ता रुई का वजन बढ़ाने के लिए उन्हें गीला कर देता था। जमनालाल ने तत्काल उस अभिकर्ता और प्रबंधक को नौकरी से निकाल दिया। कई लोगों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह तो सारी दुनिया में चलता है और यदि उन्होंने भी ऐसा नहीं किया तो कंपनी को भारी घाटा होगा। लेकिन जमनालाल अडिग रहे। "घाटा होता है तो होता रहे परंतु हम सत्य और ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ेंगे।"
उनके प्रबंधकगण शुरूआत में तो उनके फैसले से नाराज़ हुए लेकिन जल्द ही उन्होंने यह पाया कि जैसे ही जमनालाल की ईमानदारी का समाचार चारों ओर फैला, लोग अधिक मूल्य देकर भी उनसे सामान खरीदना चाहते थे।
जमनालाल बजाज ने कभी बाजार के दावपेंचों को नहीं अपनाया। उन्होंने वहीं चीजें बेचीं जो वास्तव में उन्होंने खरीदी थीं।
*****
उस समय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। जमनालाल ने समाचारपत्रों में उनके बारे में बहुत पढ़ा हुआ था। वे अक्सर सोचा करते, "यदि वे कभी भारत आयेंगे, तो मैं उनसे जरूर संपर्क करूंगा।"
वर्ष 1915 में गांधीजी भारत आए। उन्होंने अहमदाबाद में आश्रम स्थापित किया। जमनालाल अक्सर आश्रम जाया करते और प्रातःकाल व संध्या प्रार्थना में भाग लेते। उनमें और गांधीजी के मध्य व्यक्तिगत परिचय विकसित हो गया था। जमनालाल ने यह महसूस किया कि गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। वे जो उपदेश देते हैं, उसका स्वयं भी पालन करते हैं। जमनालाल ने भी गांधीजी के आदर्शों को अपनाना शुरू कर दिया।
घर में, उनकी पत्नी जानकी देवी रोज प्रातःकाल उनके पैर धोया करती थीं और पैर धोने के बाद उस जल को पवित्र मानते हुए कुछ बूंदों से आचमन किया करतीं। वे उनकी जूठी थाली में भी भोजन किया करतीं। एक दिन जमनालाल ने उनसे कहा,"जानकी! मैं तुमसे दो चीजों के बारे में बात करना चाहता हूं।"
जानकी देवी ने उनकी ओर पूछताछ भरी नज़रों से देखा। जमनालाल बोले - "पहली बात तो यह कि तुम मेरी जूठी थाली में खाना बंद करो। जूठी थाली में मक्खियां बैठती हैं और यह स्वच्छ नहीं होती। उसमें खाना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। ...और दूसरी बात यह कि मेरे पैर धोने के बाद निकले पानी को पीना बंद करो। मुझे यह कतई पसंद नहीं है।"
जानकी देवी ने जूठी थाली में तो खाना बंद कर दिया परंतु पति के चरणों को धोने से निकले पानी से आचमन करना बंद नहीं किया। किसी अन्य व्यक्ति को अपनी बात मानने के लिए विवश करना न चाहने के कारण उन्होंने इस मामले को फिर नहीं उठाया।
एक दिन घर में कई मेहमान आए हुए थे। उनमें से एक ने अपनी कमर पर चांदी की मोटी सी चेन पहन रखी थी। जानकी देवी को याद आया कि उनके घर में भी सोने की कई चेनें रखी हुयी हैं। उन्होंने तत्परतापूर्वक जमनालाल से कहा,"आप भी सोने की चेन क्यों नहीं पहनते?"
उनके उत्तर से जानकी देवी के उत्साह पर तुषारापात हो गया। जमनालाल ने उत्तर दिया, "जानकी, स्वर्ण ईश्वर का प्रतीक है। क्या किसी को कमर के नीचे सोना पहनना चाहिए? बल्कि बापू तो कहते हैं कि सोना बुराईयों की जड़ है। यह दूसरों में ईर्ष्याभाव पैदा करता है। और इसके चोरी हो जाने का भी भय होता है। जहां इसे पहना जाता है, शरीर के उस भाग पर मैल एकत्रित हो जाती है। नाक और कान से दुर्गंध आने लगती है। इसके अलावा आभूषणों को खरीदने में खर्च हुआ पैसा ताले में बंद रहता है जिससे उसके ब्याज की हानि होती है। मैं तो यह कहूंगा कि तुम भी अपने सभी आभूषणों को उतार फेंको।"
जानकी देवी हमेशा अपने पति की इच्छाओं का पालन करती थीं। भले ही वे स्वयं सहमत न हो, परंतु वे पति की इच्छाओं का अवश्य पालन करती थीं। उन्होंने आंसू बहाते हुए अपने शरीर पर से एक-एक आभूषणों को उतारना प्रारंभ किया। अंत में सिर्फ पैर की अंगुली में पहनने वाली बिछूड़ी ही शेष बची। तब उन्होंने पूछा - "क्या मैं सिर्फ यह पहने रह सकती हूं? यहां तक कि गरीब से गरीब महिला भी इसे पहने रहती है।"
जमनालाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। जानकीदेवी ने अंतिम आभूषण भी उतार दिया।
इसके बाद उन्होंने कभी आभूषण नहीं पहने। समय के साथ-साथ जमनालाल ने पर्दा प्रथा से भी छुटकारा पा लिया।
उन्होंने घर पर ही सूत कातना और खादी पहनना शुरू कर दिया। खादी की सफेद मोटी साड़ी पहनने के कारण जानकी देवी को प्राय: अपने रिश्तेदारों के व्यंग्य सुनने पड़ते। लेकिन वे उन व्यंग्यों पर ध्यान नहीं देती थीं। उनके लिए पति की इच्छा ही सर्वोपरि थी।
जमनालाल ने मन ही मन गांधीजी को अपने पिता के तुल्य मान लिया था और उनकी यह उत्कट इच्छा थी कि गांधीजी वर्धा आयें और रहें। उन्होंने कई बार गांधी जी से इस बारे में चर्चा की, लेकिन गांधी जी नहीं माने। लेकिन फिर भी जमनालाल को यह विश्वास था कि वे एक न एक दिन गांधीजी को वर्धा अवश्य लेकर आयेंगे।
पिता-पुत्र का यह संबंध अंतत: नागपुर में स्थापित हुआ। जमनालाल ने व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी रुचि लेनी प्रारंभ की।
*****
नागपुर में एक घटना हुयी। जमनालाल को यह पता चला कि हिंदू और मुस्लिमों के बीच दंगा छिड़ गया है। दंगाईयों ने जमनालाल को वहां से जाने को कहा परंतु जमनालाल घायलों को छोड़कर कैसे जा सकते थे। किसी ने उनके ऊपर एक पत्थर फेंका जो उनकी बाजू में लगा। उनकी बाजू से रक्त बहता देखकर दंगाई कुछ शांत हुए। दंगा रुक गया।
जमनालाल को बाजु में टांके लगवाने पड़े। इस संबंध में गांधी जी द्वारा लिखे गए पत्र ने उनके लिए मलहम का काम किया।
“तुम्हारे घायल होने के समाचार से मैं जरा भी दु:ख नहीं हुआ। मेरा विश्वास है कि हम जैसे कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। नफरत का यह ज़हर इतनी तेजी से और व्यापक तरीके से फैला है कि हमारे बीच के कुछ पवित्र व्यक्तियों की कुर्बानी दिए बगैर इस विपत्ति से बचा नहीं जा सकता।”
कैसे परोपकारी विचार थे ये!
*****
साबरमती आश्रम में अपने सपरिवार प्रवास के दौरान ही उन्होंने अपनी सबसे बड़ी बेटी कमला का विवाह संपन्न किया। यह विवाह सादगी की दृष्टि से उल्लेखनीय था। दुल्हन कमला औरा दूल्हे रामेश्वर प्रसाद पूरे विवाह कार्यक्रम के दौरान खादी वस्त्र धारण किए रहे। इस विवाह में कोई दहेज लेन-देन, बैंड-बाजा और तड़क-भड़क देखने को नहीं मिली। वर-वधु को आशीर्वाद देने के लिए गांधी जी स्वयं इस विवाह में उपस्थित थे।
।।।।।
जमनालाल की चिता पर जानकीदेवी सती होना चाहती थीं। लेकिन गांधीजी ने उन्हें मना कर दिया। पलायन करने में कौन सी बहादुरी है? वास्तव में सती (सच्ची नारी और समर्पित पत्नी) होना बिल्कुल अलग चीज है। शरीर को भस्म करने में कौन सी समझदारी है? यह शरीर तो तुच्छ और धूल के समान है। सती होने का तात्पर्य तो सभी कमजोरियों और बुराईयों से निजात पाना है। इनको जमनालाल की चिता पर ही स्वाहा कर दो और उन्हें खाक हो जाने दो। जो शेष बचेगा वही सच्चा सोना होगा। सोने को कौन जला सकता है? इसे तो भगवान कृष्ण पर न्योछावर किया जा सकता है।
।।।।।
गांधीजी ने कमलनयन से कहा - हिंदू धर्म के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र अन्य पुत्रों की ही भांति पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है लेकिन वह परिवार की आध्यात्मिक विरासत एवं पिता द्वारा अपनायी गयी जीवनशैली और दर्शन का का संरक्षक भी होता है। इसलिए मैं चाहता हूं कि यदि तुम्हारी इच्छा हो तो व्यापार करो, तुम्हारी इच्छा हो तो धन कमाओ, लेकिन जमनालाल की तरह समस्त जन कल्याण के लिए अपनी संपत्ति के ट्रस्टी बनकर रहो।
(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. कहानियाँ किसे पसंद नहीं हैं? कहानियाँ आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकती हैं. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)
COMMENTS