आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 255 महज सम्मान के लिए एक पत्रक...
आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ
संकलन – सुनील हांडा
अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी
255
महज सम्मान के लिए
एक पत्रकार ने एक छोटे शहर के कई व्यक्तियों से शहर के मेयर के बारे में पूछा।
"वह झूठा और धोखेबाज है" - एक व्यापारी ने कहा।
"वह घमंडी गधा है" - एक व्यापारी ने कहा।
"मैंने अपने जीवन में उसे कभी वोट नहीं दिया" - डॉक्टर ने कहा।
"उससे ज्यादा भ्रष्ट नेता मैंने आज तक नहीं देखा" - एक नाई ने कहा।
अंततः जब वह पत्रकार उस मेयर से मिला तो उसने उससे पूछा कि वह कितना वेतन प्राप्त करता है?
"अजी मैं वेतन के लिए कार्य नहीं करता"- मेयर ने कहा।
"तब आप यह कार्य क्यों करते हैं?"
"महज सम्मान के लिए।" मेयर ने उत्तर दिया।
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दोष को ही खा लेना
कुछ ऐसी परिस्थितियां बन गयीं कि बौद्ध भिक्षु अध्यापक फुगाई एवं उनके अनुयायियों के लिए रात्रिभोज की तैयारी में देरी हो गयी। रसोईया दौड़ा - दौड़ा अपने बगीचे में गया और अपने चाकू से जल्दी-जल्दी कुछ हरी सब्ज़ियों के शीर्ष काट लाया और उन्हें एक साथ बारीक काटकर उनका सूप बना दिया। हड़बड़ाहट में वह यह नहीं देख पाया कि सब्ज़ियों के साथ एक साँप भी कट गया है।
फुगाई के अनुयायियों ने ऐसा जायकेदार सूप पहले कभी नहीं पिया था। लेकिन जब अध्यापक ने अपने कटोरे में साँप का कटा हुआ मुँह पाया तो उसने रसोइये को बुलाकर साँप का सिर दिखाते हुए पूछा - "यह क्या है?"
"धन्यवाद मालिक! " - रसोइये ने उत्तर दिया और उस टुकड़े को मुँह में रखकर शीघ्रता से खा लिया।
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तो समस्या क्या है?
नसरूद्दीन एक दुकान पर गया जहाँ तमाम तरह के औजार और स्पेयरपार्ट्स मिलते थे.
“क्या आपके पास कीलें हैं?”
“हाँ”
“और चमड़ा, बढ़िया क्वालिटी का चमड़ा”
“हाँ है”
“और जूते बांधने का फीता”
“हाँ”
“और रंग”
“वह भी है”
“तो फिर तुम जूते क्यों नहीं बनाते?”
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(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)
सूप में साँप…अजीब…जूते बनाने वाले वाकये पर…यह कि…आप को क ख ग घ आता है, अ आ इ ई आता है…अगर हाँ तो आप गाली क्यों नहीं देते?…मजाक है यह्…
हटाएंप्रेरक..
हटाएं@चंदन जी,
हटाएंकहानियों के मर्म व मैसेज को समझें, गुनें. बहुत से अर्थ निकलेंगे. प्रेरक. शब्दार्थ पर न जाएँ!
ओहो, माफी चाहता हूँ। कई बार टिप्पणियों में खुराफ़ाती दिमाग कुछ और जोड़ देता है। जैसे कुछ पढ़ा तो कुछ याद आ गया, उसे लिख देना इस बार ठीक नहीं रहा। वैसे भी कई बार पहुँच नहीं हो पाती। फिर भी, दुबारा क्षमाप्रार्थी हूँ।
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