दोस्तों, नीचे की कुछ अख़बारी क़तरनों पर जरा गौर फ़रमाइयेगाः ज़ाहिर है, भारतीय पुलिस की छवि अगर लोगों के मन में अच्छी नहीं उतर पाती है...
दोस्तों, नीचे की कुछ अख़बारी क़तरनों पर जरा गौर फ़रमाइयेगाः
ज़ाहिर है, भारतीय पुलिस की छवि अगर लोगों के मन में अच्छी नहीं उतर पाती है तो इसके लिए जिम्मेदार वे तो हैं ही, बहुत कुछ यहाँ की व्यवस्था भी जिम्मेदार है. यहाँ की पुलिस के कार्य घंटे और कार्य वातावरण अत्यंत अमानवीय है. वे सबसे कम तनख्वाह पाते हैं और सबसे कठिन ड्यूटी बजाते हैं. कार्य हेतु प्रायः उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती. एक सिपाही बिना किसी सपोर्ट के 8 घंटे से लेकर 16-18 घंटे तक ड्यूटी बजाता है, नतीजतन उसे सबसे सुरक्षित और आसान रास्ता नज़र आता है वह होता है भ्रष्टाचार का. वह पास के चाय की दुकान से मुफ़्त की चाय और नाश्ते का हकदार हो जाता है. उसके बगैर उसका काम चलना मुश्किल होता है. यह तो मानवीय पहलू है, परंतु जब यह अनिवार्य आवश्यकता से आगे जा कर पैसे की भूख में परिवर्तित हो जाता है तो वह भारत देश का नासूर बन जाता है.
एक सर्वेक्षण के मुताबिक वैसे भी, भारतीय पुलिस से आम जनता डरती हैं. उसे वह अपना संरक्षक के बजाय भक्षक समझती है. वजह? ऊपर की अख़बारी क़तरनें हमें कुछ संकेत तो देती ही हैं...
***
ग़ज़ल
---
मुल्क के संरक्षक ही भक्षक हो गए
आस्तीं के साँप सारे तक्षक हो गए
कहते हैं बह चुकी है बहुत सी गंगा
जब से विद्यार्थी सभी शिक्षक हो गए
गुमां नहीं था बदलेगी इतनी दुनिया
यहाँ तो जल्लाद सारे रक्षक हो गए
*+*+*
ज़ाहिर है, भारतीय पुलिस की छवि अगर लोगों के मन में अच्छी नहीं उतर पाती है तो इसके लिए जिम्मेदार वे तो हैं ही, बहुत कुछ यहाँ की व्यवस्था भी जिम्मेदार है. यहाँ की पुलिस के कार्य घंटे और कार्य वातावरण अत्यंत अमानवीय है. वे सबसे कम तनख्वाह पाते हैं और सबसे कठिन ड्यूटी बजाते हैं. कार्य हेतु प्रायः उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती. एक सिपाही बिना किसी सपोर्ट के 8 घंटे से लेकर 16-18 घंटे तक ड्यूटी बजाता है, नतीजतन उसे सबसे सुरक्षित और आसान रास्ता नज़र आता है वह होता है भ्रष्टाचार का. वह पास के चाय की दुकान से मुफ़्त की चाय और नाश्ते का हकदार हो जाता है. उसके बगैर उसका काम चलना मुश्किल होता है. यह तो मानवीय पहलू है, परंतु जब यह अनिवार्य आवश्यकता से आगे जा कर पैसे की भूख में परिवर्तित हो जाता है तो वह भारत देश का नासूर बन जाता है.
एक सर्वेक्षण के मुताबिक वैसे भी, भारतीय पुलिस से आम जनता डरती हैं. उसे वह अपना संरक्षक के बजाय भक्षक समझती है. वजह? ऊपर की अख़बारी क़तरनें हमें कुछ संकेत तो देती ही हैं...
***
ग़ज़ल
---
मुल्क के संरक्षक ही भक्षक हो गए
आस्तीं के साँप सारे तक्षक हो गए
कहते हैं बह चुकी है बहुत सी गंगा
जब से विद्यार्थी सभी शिक्षक हो गए
गुमां नहीं था बदलेगी इतनी दुनिया
यहाँ तो जल्लाद सारे रक्षक हो गए
*+*+*
"इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर" व्यंग्य लेख 'हरिशंकर परसाई' ने लिखा है.उसमें बताया गया है कि कैसे भारत का इंस्पेक्टर चांद पर जाता है और वहां शून्य अपराधिक दर देखकर परेशान हो जाता है.पुलिस महकमें को 'सुधारने'के लिये मातादीन जी कई तरकीबें अपनाते हैं जिसमें कुछ है:-
हटाएं१.पुलिस का वेतन कम करना.
२.पुलिस लाइन में हनुमान मंदिर बनवाना.
३.बिना अपराध लोगों को सजा दिलवाना.
इस तरह के प्रयासों जल्द ही मातादीन जी को आशातीत सफलता मिलती और शीघ्र अपराध दर बढती है.
बहरहाल लेख बढिया है.