कवि कुटिलेश की गड़बड़ दोहावली -------------------- दोस्तों, पिछले दिनों एक किताब पढ़नें में आई. किताब बहुत पुरानी थी, सन् १९५३ की, कीमत एक...
कवि कुटिलेश की गड़बड़ दोहावली
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दोस्तों, पिछले दिनों एक किताब पढ़नें में आई. किताब बहुत पुरानी थी, सन् १९५३ की, कीमत एक रूपया! शायद उस समय एक रूपए की भी कीमत रही होगी. बहरहाल, किताब का शीर्षक है - गड़बड़ दोहावली.
शीर्षक देखकर ही ज़ेहन में आया कि कुछ गड़बड़ जरूर होना चाहिए. अंदाज़ा सही था. किताब एक ही बैठक में आद्योपांत पढ़ डाली. गड़बड़ दोहावली कमाल की है. और कमाल के हैं लेखक कवि कुटिलेश. भई, नाम भी कमाल का. कहीं कहीं दोहे अति साधारण भी हैं, पर कुटिलेश के पैने व्यंग्य आमतौर पर पाठक को मज़ा तो देते ही हैं, सोचने को भी मज़बूर करते हैं. आज मैं उसी दोहावली के कुछ दोहे आपके लिए प्रस्तुत करता हूँ-
दस के चाहे सौ करो, सौ के चाहे तीस ।
टोटल होना चाहिए, मगर चार सौ बीस ।।
जीवन है दिन चार का, खुल के खेलो खेल ।
बहुत हुआ हो जाएगी, थोड़े दिन को जेल ।।
भैया या संसार में, भांति भांति के लोग ।
भांति भांति के डाक्टर, भांति भांति के रोग ।।
मँहगाई चूल्हे पड़े, जायँ भाड़ में रेट ।
सदा ठाठ से पीजिए, बीड़ी या सिगरेट ।।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, का के लागूँ पाँय ।
क्यों ना दो कप चाय ही, दीजै इन्हें पिलाय ।।
कल्हि करै सो आजकर, आजकरै, सो अब्ब ।
अब्ब गये, क्या करेगा, डूब जायगा सब्ब ।।
आँखों के संसार में, बड़ी निराली नीति ।
ज्यों ज्यों इन्हें लड़ाइये, त्यों त्यों बाढ़ै प्रीति ।।
साईं सब संसार में, पैसे का ब्यौहार ।
पैसे की तिथियाँ सभी, पैसे के त्यौहार ।।
कलि में कौड़ी मोल सब, सत्य वचन अनमोल ।
सदा मजे में रहेगा, झूठ बोल, कम तोल ।।
गधे मरे घोड़े मरे, मरि मरि गए श्रृगाल ।
महँगाई कब मरेगी, जिन्दा रहा सवाल ।।
रोटी भले न खाइये, पान लीजिए चबाय ।
भेद न भूखे पेट का, कोऊ सकिहै पाय ।।
सब को धोखा दीजिये, सब से लड़ो जरूर ।
हो जाओगे किसी दिन, शहर बीच मशहूर ।।
और अंत में, कवि कुटिलेश के सूफ़ियाना ख़यालात...
जगत पिता के पूत है, हम तुम औ सब कोय ।
इन बातों में क्या धरा, चेहरा रखिये धोय ।।
कहिए, आपको पसंद आई कवि कुटिलेश की कुटिलताएँ?
*+*+*
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दोस्तों, पिछले दिनों एक किताब पढ़नें में आई. किताब बहुत पुरानी थी, सन् १९५३ की, कीमत एक रूपया! शायद उस समय एक रूपए की भी कीमत रही होगी. बहरहाल, किताब का शीर्षक है - गड़बड़ दोहावली.
शीर्षक देखकर ही ज़ेहन में आया कि कुछ गड़बड़ जरूर होना चाहिए. अंदाज़ा सही था. किताब एक ही बैठक में आद्योपांत पढ़ डाली. गड़बड़ दोहावली कमाल की है. और कमाल के हैं लेखक कवि कुटिलेश. भई, नाम भी कमाल का. कहीं कहीं दोहे अति साधारण भी हैं, पर कुटिलेश के पैने व्यंग्य आमतौर पर पाठक को मज़ा तो देते ही हैं, सोचने को भी मज़बूर करते हैं. आज मैं उसी दोहावली के कुछ दोहे आपके लिए प्रस्तुत करता हूँ-
दस के चाहे सौ करो, सौ के चाहे तीस ।
टोटल होना चाहिए, मगर चार सौ बीस ।।
जीवन है दिन चार का, खुल के खेलो खेल ।
बहुत हुआ हो जाएगी, थोड़े दिन को जेल ।।
भैया या संसार में, भांति भांति के लोग ।
भांति भांति के डाक्टर, भांति भांति के रोग ।।
मँहगाई चूल्हे पड़े, जायँ भाड़ में रेट ।
सदा ठाठ से पीजिए, बीड़ी या सिगरेट ।।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, का के लागूँ पाँय ।
क्यों ना दो कप चाय ही, दीजै इन्हें पिलाय ।।
कल्हि करै सो आजकर, आजकरै, सो अब्ब ।
अब्ब गये, क्या करेगा, डूब जायगा सब्ब ।।
आँखों के संसार में, बड़ी निराली नीति ।
ज्यों ज्यों इन्हें लड़ाइये, त्यों त्यों बाढ़ै प्रीति ।।
साईं सब संसार में, पैसे का ब्यौहार ।
पैसे की तिथियाँ सभी, पैसे के त्यौहार ।।
कलि में कौड़ी मोल सब, सत्य वचन अनमोल ।
सदा मजे में रहेगा, झूठ बोल, कम तोल ।।
गधे मरे घोड़े मरे, मरि मरि गए श्रृगाल ।
महँगाई कब मरेगी, जिन्दा रहा सवाल ।।
रोटी भले न खाइये, पान लीजिए चबाय ।
भेद न भूखे पेट का, कोऊ सकिहै पाय ।।
सब को धोखा दीजिये, सब से लड़ो जरूर ।
हो जाओगे किसी दिन, शहर बीच मशहूर ।।
और अंत में, कवि कुटिलेश के सूफ़ियाना ख़यालात...
जगत पिता के पूत है, हम तुम औ सब कोय ।
इन बातों में क्या धरा, चेहरा रखिये धोय ।।
कहिए, आपको पसंद आई कवि कुटिलेश की कुटिलताएँ?
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raviratlami ji... aise majedaar dohe prastut karne ke liye dhanyawaad.. nishchit roop se bahut hi achchhe hain.
जवाब देंहटाएंरवि जी,
जवाब देंहटाएंमैं तो केवल गड़बड़ रामायण से प्रिचित था। ये दोहे तो बहुत ही बढ़िया है। कुटिलेश के जीवन के बारे में आपको कोई जानकारी है, क्या?
यह भी गीता प्रेस की प्रस्तुति है क्या??
जवाब देंहटाएंसब को धोखा दीजिये, सब से लड़ो जरूर ।
हो जाओगे किसी दिन, शहर बीच मशहूर ।।
-:) कालजयी हैं सभी.
बहुत खूब रवि जी !
जवाब देंहटाएंपढ़ कर आनन्द आया कुटिलेश कवि को ।
मुझे तो कबीर के दोहों को उलटा लिखने वाले की याद आई।
जवाब देंहटाएंआज करै सो काल्ह कर, काल्ह करै सो परसों।
इतनी जल्दी क्या करता, जब जीना है बरसों॥ …कुछ गड़बड़ भी हो सकती है क्योंकि मैंने इसे कहीं पढ़ा नहीं, बस सुना है…