30 साल! जी हाँ, पूरे तीस साल बाद मैं वहाँ जा रहा था. छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र के कुसमी, मैनपाट और रामानुजगंज को एक बार फिर से देखने. लोग ...
30 साल!
जी हाँ, पूरे तीस साल बाद मैं वहाँ जा रहा था. छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र के कुसमी, मैनपाट और रामानुजगंज को एक बार फिर से देखने. लोग पर्यटन के लिए पहाड़ों पर जाते हैं, बीच पर जाते हैं, प्रसिद्ध स्थलों की ओर, धार्मिक स्थानों की ओर रूख करते हैं, मगर मैं एक ऐसी नामालूम सी जगह की ऑफ़बीट यात्रा पर जा रहा था जहाँ मैं अपनी यादों को फिर से जीना चाहता था.
मेरे मन में तीस साल पहले की पूरी तस्वीर खिंची हुई थी. मैं उन तस्वीरों को एक तरह से रीफ्रेश करने जा रहा था. इतने समय में तो बहुत कुछ बदल गया होगा. गांवों-शहरों का रीनोवेशन हो जाता है- पूरी एक नई पीढ़ी आ जाती है.
तो क्या मेरी यादों के वे गांव, शहर, गलियाँ मुझे वैसी ही मिलेंगी जैसे मैं उन्हें छोड़ आया था? या शायद उनमें इतना बदलाव आ गया हो कि मैं उन्हें पहचान भी न सकूं? बदलाव अच्छे होंगे या बुरे?
इससे पहले भी, कुछेक साल पहले, कोई दो-तीन बार मैं वहाँ जाने का प्लान कर चुका था, मगर किसी न किसी वजह से वो कैंसिल ही हो जा रहा था. पिछली मर्तबा तो मैं कोरबा तक पहुँच भी चुका था, जहाँ से यह क्षेत्र महज डेढ़-दो सौ किलोमीटर दूर ही था, फिर भी नहीं जा पाया था. इस बार भी, हालांकि प्लान तो पहले ही बना था, मगर जरूरी कार्य से इसे रद्द कर दो हफ़्ते आगे करना पड़ा, और जब रायपुर से यह यात्रा दो हफ़्ते बाद प्रारंभ की जा रही थी, तो संपूर्ण क्षेत्र में बारिश का ऑरेंज अलर्ट था, बिलासपुर-अम्बिकापुर की सड़क भारी बारिश की वजह से टूट गई थी, यातायात बाधित था, मगर चूंकि इस बार ठान लिया था कि जाना ही है तो टैक्सी से जाने का विकल्प त्याग कर ट्रेन से अम्बिकापुर तक गए, और फिर वहाँ से टैक्सी पकड़ी. और बारिश? वह तो पूरे समय साथ थी, और बारिश में घूमने का आनंद द्विगुणित हो गया जब हम मैनपाट, सामरी पाट की पहाड़ियों में पूरे समय बादलों के साथ और उनके बीच ही घूमे-फिरे.
कोई तीस साल पहले मेरी पहली पक्की, सरकारी नौकरी कुसमी, सरगुजा जिले में लगी थी. इससे पहले मैं तकनीकी विद्यालय खैरागढ़ में अस्थाई तौर पर विद्युत विषय में तकनीकी शिक्षक के रूप में पदस्थ रहा था. विद्युत मंडल में कनिष्ठ अभियंता पद के लिए रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी, तब वह मध्यप्रदेश का एक बड़ा, व्यावसायिक शहर हुआ करता था) के क्षेत्रीय कार्यालय में छः महीने की ट्रेनिंग के उपरांत जब पहली पोस्टिंग सरगुजा जिले के तहसील मुख्यालय ‘कुसमी’ के लिए आई तो नक्शे में उस जगह को खोजना जरा मुश्किल सा काम था. नाम तो खैर सुना ही नहीं था. यदा-कदा सरगुजा जिले के मैनपाट के बारे में छिट-पुट खबरें आती थीं क्योंकि कुछ माइग्रेटेड तिब्बती वहाँ, उस पहाड़ी इलाके में बसे हुए थे. तब गूगल जैसी सुविधाएं तो सपने में भी नहीं थीं, तो जैसे तैसे छिट-पुट एकत्र की गई जानकारी के आधार पर निकल लिए थे कुसमी के लिए.
तब मेरे पास सामान के नाम पर एक साइकिल और एक सूटकेस हुआ करता था – तो उन्हें बस में लादा और पहुंच गए बिलासपुर. वहाँ से अम्बिकापुर के लिए दूसरी बस पकड़ी और फिर वहाँ से कुसमी जाने के लिए तीसरी. उस जमाने में तो नेशनल हाइवे भी सिंगल लेन हुआ करते थे तो आपको अंदाजा लग गया होगा कि कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर की इस यात्रा में, जहाँ किसी भी वाहन के लिए औसत गति पच्चीस-तीस किमी/प्रतिघंटा मिलनी भी मुश्किल होती थी, मुझे कितना समय लग गया होगा. ऊपर से मुझे तीन बसें भी बदलनी थीं. मुझे अच्छी तरह याद है- जब हमारी बस कुसमी बस स्टैंड पर लगी तो शाम हो चली थी. और मौसम सुहाना हो चला था. और हाँ, मेरे लिए यह इतनी लंबी दूरी की पहली बस यात्रा भी थी. तो जबर्दस्त थकान भी थी. मगर, यह क्या! आसपास का सारा दृश्य देखकर सारी थकान दूर हो गई, और मन हर्षोल्लास से भर गया था.
कुसमी पहाड़ियों पर बसा है. तथाकथित बस स्टैंड – जहाँ बसें सवारियों के उतारने चढ़ाने के लिए, सड़क के किनारे पर ही रुकती थीं, के ठीक सामने मेरा ऑफ़िस था, ऑफ़िस के बगल में रहने के लिए कुछ सरकारी क्वार्टर थे और इन सबके ठीक पीछे एक हरी-भरी पहाड़ी थी. बाईं ओर एक और पहाड़ी के ऊपर तहसील कार्यालय, बैंक, पीडबल्यूडी आदि के सरकारी ऑफ़िस और कर्मचारियों के लिए क्वार्टर. सड़क के दूसरी ओर खूब बड़ा खाली मैदान था जहाँ हर शनिवार को साप्ताहिक हाट लगता था, जिसमें जमाने भर के, बिहार-नेपाल के रास्ते स्मगल (तब भारत में विदेशी सामानों के आयात व खरीद-फरोख़्त पर पाबंदी थी) किए इलेक्ट्रॉनिक सामानों से लेकर रोजमर्रा की तमाम चीजें भी मिला करती थीं. यानी आज के जमाने के हिसाब से किसी पहाड़ी स्थल की ऑफ़बीट यात्रा में शांति सुकून से कुछ दिन बिताने का परफ़ैक्ट जुगाड़. और, यहाँ तो मैं पूरे दो साल रहा था!
समुद्र, पहाड़ और नदी लोगों को सदैव आकर्षित करते रहे हैं. बचपन मैदानी इलाके राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ में बीता जहाँ पास में शिवनाथ नदी बहती है. वहाँ से कोई 30 किलोमीटर दूर डोंगरगढ़ में पहाड़ियों की श्रृंखला है. तो जब जी चाहता उठकर नदी किनारे जा पहुँचते या पैसेंजर ट्रेन में बैठकर डोंगरगढ़ की पहाड़ियों पर चढ़ाई के लिए निकल जाते - आजकल जिसे बढ़िया फैंसी नाम दिया हुआ है – ट्रैकिंग. डोंगरगढ़ की विभिन्न पहाड़ियों पर अनगिनत ट्रैकिंग के बीच, प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मंदिर का कायाकल्प होते आँखों से देखा है. मंदिर के नाम पर पहाड़ी की चोटी पर पहले वहाँ एक छोटा सा मंदिर नुमा ढांचा हुआ करता था, जहाँ कम ही लोग जाते थे और अब वहाँ न केवल बारहों महीने मेला-सा लगा रहता है, रोप-वे की सुविधा भी उपलब्ध हो गई है.
मैदान में रहने वाला, एक पहाड़ प्रेमी - यहाँ, कुसमी में, ठीक पहाड़ी पर ही रहने आ गया था. आप मेरी उस वक्त की खुशी का अंदाजा लगा सकते हैं. डोंगरगढ़ के चट्टानी पहाड़ियों के विपरीत, सरगुजा जिला पूरी तरह से घने जंगलों और हरे भरे पेड़-पौधों युक्त, विंध्य पर्वतमाला की पहाड़ियों से घिरा आदिवासी इलाका है. कुछ-कुछ बस्तर की तरह. दूसरे दिन सुबह-सुबह ही साथ लाई अपनी साइकिल को मैंने उठाया और निकल गया आसपास की पहाड़ियों को नापने. कुसमी से दसेक किलोमीटर दूर, उससे भी ऊंची पहाड़ी पर, घुमावदार और चढ़ाई वाली सड़क से आगे जाने पर सामरी पाट आता है. चढ़ाई के बाद मैदान जैसी लंबी-चौड़ी जगह. ऊँचे में होने के कारण वहाँ हर मौसम में सांय-सांय ठंडी हवा चलती रहती है जिससे बचने के लिए स्थानीय लोग वहीं बनाए गए मोटे सूती कपड़े – जिसे बोरकी कहते हैं, की चादर ओढ़े रहते हैं. उस कपड़े का टैक्स्चर इतना पसंद आया था कि जल्द ही मैंने अपने लिए शर्ट भी बनवा लिया था.
इसी सामरी पाट की एक लोमहर्षक घटना की याद दिल-दिमाग से जाती नहीं है- जैसे कि कल ही हुई हो. चूंकि यह इलाका मेरे कार्यक्षेत्र का था, तो यहाँ आना-जाना लगा रहता था. इस क्षेत्र की नैसर्गिक सुंदरता भी बारंबार खींच लाती थी और यहाँ आने का कोई भी अवसर चूकते नहीं थे. एक बार यहाँ विभिन्न विभागों की तिमाही मीटिंग तय हुई. तो मेरे साथ एक सहकारी बैंक के मैनेजर, एक पीएचई के सब-इंजीनियर भी साथ हो लिए. उन दोनों के पास जाने के लिए कोई वाहन नहीं था तो मेरी सायकल पर तीनों सवार हो लिए. बैंक के मैनेजर थोड़े पहलवान नुमा व्यक्ति थे तो उन्होंने सायकल चलाने का जिम्मा लिया. मैं डंडी पर बैठा और पीएचई के इंजीनियर महोदय पीछे कैरियर पर. जाते समय तो कोई समस्या नहीं हुई. मगर वापसी में भौतिकी के मास और इनर्शिया के नियम ने अपना खेल दिखा दिया. पहली ही उतराई में साइकल ने स्पीड पकड़ ली. उतराई भी ठेठ दो किलोमीटर लंबी थी. मैनेजर साहब ने ब्रेक में पूरी ताकत झोंक दी मगर साइकल थी कि रुके ही न. और तो और, ज्यादा खिंचाव के कारण सामने का ब्रेक-क्लैम्प पूरी तरह से उखड़ गया. ऊपर से शाम का समय था, तो सड़क पर घर लौटते रेवड़ भी. एक तरफ खाई तो थी ही. हम तीनों की जानें हथेली क्या उंगलियों के पोरों पर आ गईं. अब साइकिल रुके तो कैसे?
अचानक मुझे उपाय सूझा. मैंने थोड़ा झुककर और बैलेंस बनाते हुए अपने नए नॉर्थस्टार के जूते के तल्ले साइकिल के रबड़ वाले हिस्से पर टिका दिए और पूरा प्रेशर लगा दिया. थोड़ी ही देर में साइकिल की स्पीड घर्षण के दबाव से कम हो गई और अंततः रुक गई. जहाँ साइकिल रुकी, वहाँ से बमुश्किल दस कदम दूर पूरी सड़क को घेरे में लिए एक रेवड़, गोधूलि बेला में, अपने घर की ओर वापस जा रही थी. अनहोनी से बचे. जान में जान आई. मेरे नए नकोर जूते का तसला एक तरफ से घिस कर बे-शेप हो गया था, मगर उसने अपनी बलि देकर हादसे को रोक लिया था.
मैनपाट – छत्तीसगढ़ का शिमला
हमारी रायपुर-अम्बिकापुर एक्सप्रेस ट्रेन सुबह नौ बजे पहुंची, और स्टेशन पर एक शेयर ऑटो वाले से होटल का ठिकाना पूछा तो उसने बिठा लिया. होटल का नाम सुन बंदे ने अंदाजा लगा लिया कि ये तो बाहरी सैलानी हैं और बोला पचास रुपए लगेंगे. बाद में उतरते समय प्रति सवारी पचास रुपये बोला था कह कर हम तीन लोगों के डेढ़ सौ झटक लिए, जबकि दूरी के हिसाब से स्थानीय सवारी दस-पंद्रह रुपए ही टिका रहे थे उसे. खैर. यह तो बड़ा तुच्छ सा ही मामला था, सो इस लूट को दिमाग से हटा, होटल में चेक-इन किया और चूंकि हमारे पास पूरा दिन का समय था तो 60 किलोमीटर दूर मैनपाट जाने का इरादा किया और घंटे भर बाद के लिए होटल से ही टैक्सी बुक कर ली.
मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला भी कहा जाता है. यह 1000 मीटर ऊंची पहाड़ी पर बसा है, जो आमतौर पर गर्मियों में भी ठंडा रहता है. उस दिन तो खैर घनघोर बारिश भी हो रही थी, तो ठंड जबरदस्त थी ही, मौसम बेहद नम भी था. आप कहेंगे – बारिश में घूमना? पर, बात अगर मैनपाट जैसी जगह की हो, तो, जनाब, बारिश में ही घूमना!
अम्बिकापुर से कोई दस-पंद्रह किलोमीटर बाहर निकलते ही मैनपाट के पहाड़ी, घुमावदार रास्ते चालू हो जाते हैं. हम लोग बीसेक किलोमीटर चले होंगे कि हमारा सामना घनघोर बादलों के गुच्छों से हो गया. पूरा रास्ता हम बादलों से बीच से, कभी दिखते, कभी गुम होते चले. कभी-कभी तो दो-चार मीटर दूर तक की भी चीजें नहीं दिखती थीं. बादल की एक टुकड़ी आती, हम सब को ढंक लेती. हवा चलती, वह आगे बढ़ती, कुछ सूझता-दिखने लगता, इतने में फिर बादल चले आते. आगे सड़क कहाँ जा रही है यह भी नहीं दिखता था. मगर ड्रायवर यहाँ का जानकार था और हर दूसरे-चौथे दिन सैलानियों को लेकर आता था तो वह न केवल आराम से वाहन चला रहा था, बल्कि अनवरत कमेंट्री भी किये जा रहा था. वो महान गुटका प्रेमी भी था, मना करने पर कसम खाता, अब आगे नहीं खाऊंगा, मगर मौका मिलते ही फिर खा लेता और चलती गाड़ी का शीशा डाउन कर पिच्च-पिच्च थूकता था. पूरी यात्रा के दौरान यही एक तकलीफ़ रही, वरना यह यात्रा हमारी सर्वकालिक, सर्वाधिक यादगार, आनंददायी यात्राओं में से एक रही है.
तीस साल पहले मैनपाट में केवल नैसर्गिक सुंदरता थी, प्रकृति थी. कोई दो-एक बार मैं यहाँ आया था. बस से. आसपास नापने के लिए सुविधाएँ नहीं थी. एकाध टाइगर पाइंट जैसी जगह पर ही जा पाए थे. अब तीस साल बाद यह तो पूरा टूरिस्ट प्लेस हो गया है. दर्जन भर से ज्यादा टूरिस्ट पाइंट हैं. हर जगह खाने-पीने की सुविधाएँ. पर्यटन विभाग की थोड़ी सक्रियता भी दिखी. टाइगर पाइंट पर तो बहुत काम भी दिखा. वहाँ फोर-व्हील ऑल टैरेन बाइक राइड की सुविधा भी थी. कुछ पाइंट तो वाकई नए और दिलचस्प भी थे – जैसे कि टिनटिनी पत्थर जहाँ पत्थर के एक विशाल टुकड़े पर ठोंकने से सरगम के सुर निकलते हैं तो जलजली नामक एक पाइंट पर धरती में कूदने पर धरती ट्रेम्पोलीन की तरह हिलती है. टिनटिनी पत्थर पर हमने भी सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा की धुन निकालने की कोशिश की, पर असफल रहे. जब हम वहाँ सरगम निकालने के असफल प्रयास कर ही रहे थे तो पास ही के, नए-नए बने एक छोटे से मंदिर में से एक पुजारी जी निकल कर चले आए. उन्होंने अलग-अलग पत्थर के टुकड़ों से टिनटिनी पत्थर के अलग-अलग हिस्सों को ठोंककर कोई धुन भी निकाली, जो समझ में नहीं आई, मगर हाँ, पत्थर से निकलने वाली धुन कानों को भली और चमत्कारिक तो लगी ही.
मैनपाट में एक प्रसिद्ध टूरिस्ट पाइंट है - उल्टा-पानी. कहते हैं, जहाँ पानी नीचे से ऊपर की ओर जाता है और गाड़ी भी नीचे से ऊपर की ओर जाती है. ग्रेविटी डिफ़ाइंग. हालांकि यह सब नजरों का धोखा ही है – क्योंकि मेरा तकनीकी मन यह मानने को तैयार नहीं है – बावजूद इसके कि कई बार नाप-जोख कर कई लोगों ने कन्फर्म किया कि वाकई पानी ऊपर की ओर बह रहा है. ड्राइवर ने गाड़ी का इंजन बंद कर न्यूट्ल में डाल कर गाड़ी को ऊपर की ओर चलाया. मानो-न-मानो, पर यह है तो टूरिस्ट एट्रैक्शन की जगह. जब हम वहाँ थे तो भारी बरसात के कारण और हमारे अलावा कोई टूरिस्ट नहीं थे. खाने-पीने के कई झोंपड़ी-नुमा टैंट लगे थे, जिसमें से केवल दो खुले टैंट दिखे जिसमें एक में तमाम पॉलीथीन के पैक्ड, पांच-पांच रूपए वाले खाने-पीने के आइटम टंगे थे, और दूसरे में भुट्टे रखे थे और भट्टी में एक कड़ाही, जिसमें तलने का तेल भी था, और भट्टी जल भी रही थी. हमने भुट्टे के आर्डर तो दिए ही, भजिए के लिए भी पूछा. जब हम गर्म भुट्टे खा ही रहे थे, अचानक बारिश और तूफान का एक लंबा और भारी, तेज झोंका आया जिसमें पहले वाले टैंट का एक हिस्सा उड़ गया. लगा कि भगवान परीक्षा तो बस गरीबों का ही लेता है. बहरहाल, उस गरीब के गम को कुछ कम करने हमने उससे कुछ अपने-लिए-गैर-जरूरी किस्म की खरीदारी भी कर ली और गर्मागर्म भजिए का आनंद भी लिया. अगर वो तूफान का नुकसान वाला झोंका नहीं आता तो, उस मौसम में, उस वातावरण में, वहां खाए भजिए यकीनन जिंदगी में खाए सर्वश्रेष्ठ भोजन की श्रेणी में आते, बावजूद इसके कि बार-बार उपयोग में आने के कारण तलने के तेल का स्वाद बिगड़ चुका था.
हमने पांच-छः पाइंट ही देखे थे – इत्मीनान से, क्योंकि जल्दबाजी में घूमना भी क्या घूमना – और इतने में ही शाम होने लगी तो वापस चल दिए अम्बिकापुर. कल हमें कुसमी जाना था. तीस साल बाद हाल-चाल पूछने. कैसी हो कुसमी? बहुत बदल तो नहीं गई?
कुसमी – टूटना 30 साल पुराने सपने का
अम्बिकापुर से कुसमी के लिए हम सुबह दस बजे के आसपास निकले. राजपुर-डीपाडीह से होकर 90 किलोमीटर की यात्रा थी. हमें रास्ते में डीपाडीह में रुकना था जहाँ खुदाई में पुरातत्व के मंदिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए थे जिन्हें नए सिरे से संजोकर रखा गया है. राजपुर से एक रास्ता रामानुजगंज को जाता है और एक रास्ता कुसमी. तीस साल पहले, राजपुर में कुसमी या रामानुजगंज को जाने वाली हर बस रुकती थी, और बस अड्डा भी सड़क पर ही था. बस रुकने पर चाय ब्रेक तो होता ही था. घंटे भर में आराम से चलते हुए राजपुर पंहुच गए तो पता चला कि अभी बस अड्डा कहीं और चला गया था, और सड़क का कायाकल्प हो गया था और दोनों ओर दुकानें ही दुकानें. एक छोटे से गांव से बदल कर पूरा कस्बा में बदल गया था राजपुर. एक चाय की दुकान पर चाय पीते-पीते पुराने, यादों में संजोये, सुंदर, छोटे से गांव राजपुर को ढूंढते रहे. पर वो नहीं मिला. आगे और भी सपने टूटने वाले थे.
राजपुर से आगे निकले तो आधे घंटे में शंकरगढ़ आया. शंकरगढ़ तक मेरा कार्यक्षेत्र था. वहाँ, शहर से बाहर बिजली का एक 33 केवी का सब-स्टेशन हुआ करता था, जिसकी देखरेख का जिम्मा भी मेरे हिस्से था. वहाँ रुके. सब-स्टेशन में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ था, बस कुछ अतिरिक्त लाइनें निकली थीं, एकाध कंट्रोल-रूम नया बना था और ट्रांसफ़ार्मरों में इजाफ़ा हुआ था. चलो, इस सब-स्टेशन में उम्र की मार दिख तो रही है, मगर इतना भी नहीं, कि पहचान में न आ रहा हो.
शंकरगढ़ से आगे बढ़े तो आधे घंटे में डीपाडीह आ गया. डीपाडीह में यत्र-तत्र मूर्तियों व मंदिरों के भग्नावशेष खेत-खलिहानों में बिखरे हुए पड़े हुए मिलते थे. मुझे याद है कि तब हम लोग इन भग्नावशेषों को ढूंढते हुए कई किलोमीटर यूं ही घूम लेते थे. अभी पुरातत्व विभाग ने इन भग्नावशेषों को एक स्थल पर एकत्र कर कुछ री-कंस्ट्रक्ट का प्रयास किया है और स्थल को दर्शनीय बना दिया है. यहाँ खजुराहो की मूर्तियों की तरह मंदिर की बाहरी दीवारों में एकाध मिथुन मूर्तियाँ भी अंकित हैं. स्थल में शिव मंदिरों की भरमार है, और सुकून हुआ कि इन्हें तरतीब से सहेजने का प्रयास किया गया है.
डीपाडीह से आगे निकले तो मन में उत्साह व बेचैनी बढ़ने लगी. अपनी प्रेयसी से लंबे अंतराल के बाद पुनर्मिलन जैसा अनुभव हो रहा था. तीस साल पहले की यादों में बसे कुसमी के रास्ते, भवन – अधिकतर सरकारी, मेरा निवास, ऑफ़िस, सबस्टेशन सब कुछ एक चलचित्र की तरह चल रहे थे. कुसमी से ठीक पहले, रास्ते में कुछ पाइंट ऐसे आते हैं जहाँ से विराट प्रकृति का विहंगम दृश्य दिखाई देता है. प्रकृति की छटा निहारने व कैमरे में कैद करने के लिए कई बार रुके. मौसम धान की रोपाई का था, तो रंग-बिरंगी परिधान पहने खेतों में धान रोपने वाले किसानों को देखना भी आह्लादकारी था. एक बात स्पष्ट तौर पर दिखी – पहले अधिकांश मोटियारिनें (छत्तीसगढ़ में खेतों में काम करने वाली स्त्रियों के लिए प्रयुक्त शब्द) पटका (आधी, छोटी साड़ी) या साड़ी में दिखती थीं, इस बार सलवार सूट और जींस-टॉप में भी दिखाई दीं. आधुनिकता और विश्वभौमिकता का समय है.
और, ये क्या! सामने कुसमी का, स्वागत करता प्रवेश-द्वार अंततः आ ही गया. पहले ऐसा कोई प्रवेश-द्वार तो नहीं था. लोहे के फ्रेम में लगी जंग और उखड़े पेंट बयाँ कर रहे थे कि कोई आठ-दस साल पहले इसका निर्माण हुआ होगा. कुसमी में प्रवेश करते ही सामने की पहाड़ी और बाईं और का तालाब आपका स्वागत करते हैं. पहाड़ी के बीचों-बीच से सड़क आगे बढ़ती है. सड़क के दोनों ओर सरकारी ऑफ़िसों, क्वार्टरों और बंगलों का रेला है. कुछ नए ऑफ़िस बन गए दीख रहे हैं. कस्बे में प्रवेश करते ही पहले बाईं ओर एक तालाब आता था, पर उससे पहले भी अब मकान और दुकानें बन गई हैं. मैंने ड्राइवर को वाहन धीरे करने को कहा. पहली पहाड़ी उतर कर, दूसरी पहाड़ी के ऐन ठीक नीचे मेरा ऑफ़िस, बाजू में सब-स्टेशन और सरकारी क्वार्टर था.
हम पहाड़ी उतर कर आगे बढ़ गए. और आजू-बाजू देखते रहे. अरे! यह क्या? मेरा ऑफ़िस तो नजर ही नहीं आया. न ही, अच्छा खासा दूर से नजर आने वाला बिजली का सबस्टेशन. वह मैदान जहाँ साप्ताहिक हाट लगता था, वह भी नजर नहीं आया. मैदान में दुकानें ही दुकानें नजर आ रही थीं. कमर्शियस कॉम्प्लैक्स नजर आ रहा था वो. इतने में कस्बे से बाहर निकलने वाला दोराहा आ गया. तो वापस लौटे. इस बार और धीमे तथा ध्यान से देखते हुए. दुकानों की कतार के बीच में से गली-नुमा जगह में से विद्युत कंपनी (पहले सरकारी विद्युत मंडल अब कंपनी हो गई है, मगर है सरकारी ही) का बोर्ड लगा दिख गया. यही तो है वो जगह जहाँ मैं आना चाह रहा पिछले कई सालों से! और, आखिर तीस साल बाद वो दिन आ ही गया. पर, यहाँ आकर लगा कि मुझे वापस, इस जगह को देखने आना नहीं था. यह तो एक सपने के मर जाने जैसा था. मन में उदासी-सी छा गई, जिसे निकलने में वक्त लगा.
उस वक्त एक शेर बेतरह याद आया था –
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...
काश मैं यहाँ दोबारा न आता... मेरे सपने तो नहीं टूटते...
मेरा सुंदर सा ऑफिस और घर, पीछे की खूबसूरत पहाड़ी, सामने का खुशनुमा मैदान सब कहीं खो गए थे. सामने के मैदान में बेतरतीब, बेढ़ंगे, गंदे दुकानों की भरमार थी. वर्कशॉप, कलपुर्जे बेचने-ठीक करने वालों की खटर-पटर थी. पीछे की पहाड़ी में दूर तक मकानें और न जाने क्या-क्या बन गए थे, और हरियाली का सत्यानाश हो गया था. जिस मकान में मैं रहता था, वो टूट चुका था और खंडहर हो गया था – बस दीवारें और छत सलामत थी, दरवाजों खिड़कियों के पल्ले सब गायब थे और जंगली पेड़पौधों ने वहाँ अपना डेरा जमा लिया था. अलबत्ता ऑफ़िस नया बन गया था, और सब स्टेशन में नया आधुनिक कंट्रोल रूम भी बन गया था. पर मैं जिस सपने को, मन में बसी जिस छवि को दोबारा जीने आया था वो मुझे कहीं नहीं मिला. जो सुंदर सा गांव था, वो अब एक बदसूरत सा, बेतरतीब फैलता कस्बा बन गया है. मुझे वह मंजर इतना दुखद लगा कि मैं तुरंत ही वहाँ से आगे सामरी पाट की ओर चल दिया. यदि मैं कुछ और देर वहाँ रुकता तो शायद मैं रो देता.
तातापानी – अब आप यहाँ अंडे नहीं उबाल सकते
तीस साल पहले तो आप उबाल सकते थे! जी हाँ, बात तातापानी की हो रही है. तो कोई दो साल कुसमी में सेवा देने के बाद मेरा तबादला रामानुजगंज हो गया था. अम्बिकापुर से राजपुर तक तो वही रास्ता है, फिर राजपुर से रामानुजगंज के लिए अलग रास्ता है, और रामानुजगंज से कोई तीसेक किलोमीटर पहले तातापानी आता है. तातापानी में भूगर्भीय गर्म जल के कई स्रोत हैं. तातापानी का क्षेत्र भी मेरे कार्यक्षेत्र में आता था, तो कई-कई बार दौरे में मैं अकसर जाया करता था. वहां भूगर्भ-शास्त्रियों के तंबू लगे रहते थे और बहुत सारे उपकरणों आदि से वे खनन आदि कर वहाँ खोज करते रहते थे. पानी इतना गर्म, उबलता हुआ, अनवरत निकलता है कि तब वहाँ हम लोग कपड़े की पोटली में अंडे चावल आदि रख कर उबालते और खाते थे. कुसमी में रात्रि विश्राम के पश्चात दूसरे दिन रामानुजगंज के लिए निकले, और रास्ते में बीच में स्थित तातापानी देखने के लिए रुके. वहाँ पहुँचे तो पाया कि भूगर्भ-शास्त्रियों के तंबू आदि उखड़ चुके हैं और वह स्थल पूरा धार्मिक पर्यटन का क्षेत्र बन गया है. कई कुंडों को रामायणकालीन नाम दे दिए गए हैं, एक बड़ा सा जलाशय बना दिया गया है, जिस पर शिवजी की अति-विशाल प्रतिमा स्थापित कर दी गई है, पास में धर्मशाला आदि भी बन गए हैं. और वहां बोर्ड टंग गया है – यहाँ अंडे उबालना मना है.
तातापानी में भूगर्भीय गंधक युक्त गर्म जल से औषधीय स्नानादि के लिए पुरुषों व स्त्रियों के स्नान के लिए कुंड भी बनवाए गए हैं, मगर वे इतने बेकार व अवैज्ञानिक बने हैं कि उनका पहले दिन से ही उपयोग नहीं हुआ होगा यह प्रतीत हो रहा था. दोनों ही कुंडों में सड़े जल के अलावा कुछ नहीं था और स्नानादि के लायक कतई नहीं था. जबकि पूरे क्षेत्र में विभिन्न जगह से पर्याप्त मात्रा में गर्म जल का प्रवाह निरंतर जारी था, जिसका बेहतर उपयोग किया जा सकता था.
तातापानी से आगे बढ़े तो मौसम में गर्मी आ गई थी क्योंकि बादलों ने विदा ले लिया था और बारिश पूरी तरह बंद हो गई थी. आधे घंटे में रामानुजगंज पहुँच गए. वहाँ भी मैंने अपने ऑफ़िस और क्वार्टर को देखा तो कहानी कुसमी जैसी ही थी, बस एक चीज अच्छी थी कि चूंकि यह ऑफ़िस शहर से बहुत बाहर है तो यहाँ आसपास बहुत अधिक मकान-दुकान नहीं बने हैं, और आसपास थोड़ी हरियाली है. सबस्टेशन में एक तकनीकी स्टाफ से बातचीत में पता चला कि हमारे साथ काम करने वाले एक क्लर्क के वे पोते हैं! काम करने वाली एक पूरी पीढ़ी बदल गई!
रामानुजगंज के पास कन्हर नदी बहती है. तब हम बैचलर 8-10 लोगों का गैंग हुआ करता था जो प्रायः हर शाम नदी किनारे टहलने जाया करता था. नदी के उस पार झारखंड (तब बिहार) पड़ता है. नदी में चट्टानों का कटाव कुछ इस तरह है कि वो हाथियों के झुंड की तरह दिखाई देते हैं. अभी हम जब वहां गए तो अतिवर्षा के कारण सारी चट्टानें डूबी हुई थीं. हम नदी पार गए, वहाँ एक चाय की टपरी में झारखंडी चाय पी और इस तरह अपनी यादों की यह यात्रा समाप्त की, और घर के लिए वापस हो लिए.
अब आप पूछेंगे कि यह झारखंडी चाय क्या, कैसी होती है. अरे भाई, अगर झारखंड में चाय पी तो वो झारखंडी चाय ही तो हुई ना!
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