(अनाम, अज्ञात कलाकार की अनटाइटल्ड कलाकृति) मुफ़्त के बियर की तरह, “बिना शीर्षक” जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं होता. यह एक काल्पनिक अवधारण...
(अनाम, अज्ञात कलाकार की अनटाइटल्ड कलाकृति)
मुफ़्त के बियर की तरह, “बिना शीर्षक” जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं होता. यह एक काल्पनिक अवधारणा है. जैसे ही आप कुछ देखते पढ़ते हैं, आपके दिमाग में कुछ न कुछ शीर्षकीय विचार आते ही हैं. यही तो शीर्षक होता है. पर अकसर होता यह है कि सृजनकर्ता सामने वाले को ‘कुछ और’ समझ अपना विवादित किस्म का शीर्षक अलग से, सोच-विचार कर चिपका देता है. उदाहरण के लिए, आप कोई कहानी पढ़ रहे होते हैं जिसका कोई बढ़िया सा, आकर्षक सा शीर्षक होता है, और जिसकी वजह से ही आप उस कहानी को पढ़ने के लिए आकर्षित हुए होते हैं. पर, पूरी कहानी पढ़ लेने के बाद, और बहुत से मामलों में तो, पहला पैराग्राफ़ पढ़ने के बाद ही, आपको लगता है कि आप उल्लू बन गए और सोचते हैं कि यार! ये कैसा लेखक है? इसे तो सही-सही शीर्षक चुनना नहीं आता. इस कहानी का शीर्षक यदि ‘यह’ के बजाय ‘वह’ होता तो कितना सटीक होता!
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ग़नीमत ये है कि कलाकारों के उलट, साहित्यकारों की दुनिया में बिना-शीर्षक कहानी-कविताएँ-गीत-व्यंग्य प्रकाशित प्रसारित होने की कोई खास परंपरा नहीं है! यही हाल कहानी-कविता-व्यंग्य-हाइकु-ग़ज़ल संग्रहों का भी होता है. और, इसी वजह से, किसी लेखक के संग्रह का बड़ा ही टैम्प्टिंग किस्म का शीर्षक होता है - “मेरी 20 प्रिय कहानियाँ” तो वस्तुतः शीर्षक यह माना जाना चाहिए – “मेरी 20 बेसिर-पैर-की-बिना-प्लाट-की-घोर-अपठनीय” कहानियाँ. या फिर, ऐसा ही दूसरा और कुछ. उपन्यासों की तो खैर, बात ही छोड़ दें. तब लगता है कि इस तरह की रचनाओं को तो बिना शीर्षक ही रहना चाहिए – जब वे बिना पाठक रहने को पहले ही अभिशप्त हैं तो फिर धांसू शीर्षक भी क्या कर लेगा भला!
और, यह अकाट्य सत्य भी है कि यदि बहुत सी कहानियों उपन्यासों के शीर्षक दिलचस्प और आकर्षित करने वाले न होते, यदि वे बिना शीर्षक होते, तो शायद वे इस दुनिया में अवतरित ही नहीं होते. अधिकांश रचनाओं के शीर्षक सबसे पहले रचे जाते हैं – जैसे कि यह बिना शीर्षक वाली जुगलबंदी, फिर उसके बाद शब्दों का जाल बुना जाता है. ऐसे प्रयास में बहुधा रचना अपने शीर्षक से तारतम्य खो बैठती है – रचना कहीं और जाती है और शीर्षक कहीं और, और नतीजतन घोर उबाऊ, घोर अपठनीय रचना का जन्म होता है जिसे रचनाकार-मित्र-मंडली की समीक्षाओं-लोकार्पणों आदि आदि की सहायता से कालजयी सिद्ध करने का उतना ही उबाऊ और असफल प्रयास किया जाता है.
इधर, कलाकारों की दुनिया बड़ी विचित्र होती है. कुछ चतुर कलाकार उल्टे-सीधे, प्रोवोकेटिव किस्म के, विवादित शीर्षक देते हैं, तो बहुत से, शीर्षक-रहित खेलते हैं. वे कैनवास पर रंगों की होली खेलते हैं और नाम दे देते हैं – शीर्षकहीन. या कोई मूर्तिकार अपनी छिलाई-ढलाई में कुछ नया-पुराना सा प्रयोग करेगा, और - उसके सफल-असफल होने की, जैसी भी स्थिति हो - अपनी कलाकृति को प्रदर्शनी में टांग देगा और शीर्षक देगा – अनटाइटल्ड. याने शीर्षक भी “बिना-शीर्षक”. अब ये काम आपके, यानी दर्शक के जिम्मे होता है. प्रश्न पत्र में आए फिल इन द ब्लैंक की तरह, उसे देख कर उसमें शीर्षक भरने का. जैसे ही आप वो कलाकृति देखते हैं, और उसका शीर्षक ‘अनटाइटल्ड’ देखते हैं, आपका दिमागी घोड़ा शीर्षक ढूंढने दौड़ पड़ता है.
आदमी के जेनेटिक्स में ही कुछ है. वो किसी चीज को बिना शीर्षक रहने ही नहीं देता. और, कुछ ही चक्कर में आपका दिमागी घोड़ा धांसू सा शीर्षक निकाल ले आता है और, तब फिर आप कलाकार को कोसते हैं – मूर्ख है! इसका शीर्षक “यह” तो ऑब्वियस है. किसी अंधे को भी सूझ जाएगा. पता नहीं क्यों अनटाइटल्ड टंगाया है.
समकालीन राजनीति में तो स्थिति और भी अधिक शीर्षक युक्त है. बिना-शीर्षक कुछ-भी लिख दो, लोग शीर्षक निकाल ही लेते हैं. यहाँ तक कि एक दो अक्षरों के शब्द लिख दो तो भी लोग उसका शीर्षक निकाल लेते हैं. आप कहेंगे कि कुछ उदाहरण दूं? ठीक है, मुझे आपके चेहरे की स्माइली स्पष्ट नजर आ रही है, फिर भी, कुछ शब्द रैंडमली उछालते हैं. देखिए आपके जेहन में कुछ शीर्षक आते हैं या फिर आपकी सोच बिना शीर्षक ही रह जाती है –
फेंकू
पप्पू
नौटंकी
शीर्षक कौंधे दिमाग में? यह तो, शीर्षक के भी शीर्षक होने वाली बात हो गई. अर्थ यह कि बिना शीर्षक जैसा कहीं कुछ भी नहीं. “शीर्षक” तो, सीधे स्वर्ग से, जन्नत से उतरा है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-05-2017) को
जवाब देंहटाएंमैया तो पाला करे, रविकर श्रवण कुमार; चर्चामंच 2635
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बिना शीर्षक मतबल बिना सिर का
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!