साहित्यकार सदा दुखी होता है . खासकर भारतीय. उसे हर बात का दुख रहता है. जब सरकार वामपंथी झुकाव वाली थी, तो दक्षिण पंथी साहित्यकार जिनका अस्...
साहित्यकार सदा दुखी होता है. खासकर भारतीय. उसे हर बात का दुख रहता है. जब सरकार वामपंथी झुकाव वाली थी, तो दक्षिण पंथी साहित्यकार जिनका अस्तित्व पवित्र भारत भूमि में होने की कल्पना नहीं की जा सकती, दुखी रहते थे और वामपंथी साहित्यकार इसलिए दुखी रहते थे कि सरकार के कामकाज वामपंथ की विचारधारा के विपरीत हैं. और अब जब घोषित रूप से दक्षिणपंथी झुकाव वाली सरकार है तब तो वामपंथी साहित्यकारों का दुखी होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है. दक्षिणपंथी साहित्यकार, जिनके अस्तित्व को पहले के वाक्य में खारिज किया जा चुका है, वे भी दुखी हैं क्योंकि सरकार के कामकाज दक्षिणपंथी विचारधारा को स्थापित नहीं करते!
लिहाजा, हर ओर विरोध की पुरजोर आवाजें आ रही हैं. वैसे, साहित्यकार केवल सरकार की ही नहीं, बल्कि एक दूसरे का भी खुलकर और उसी तीव्र्ता से विरोध करते हैं. कोई किसी को प्लास्टिक कवि की उपाधि से नवाजता है तो कोई किसी के कवि-पन को अ-कवि बता कर खारिज करता है. कोशकार-सह-साहित्यकार बताता है कि 90 प्रतिशत कविता कविता नहीं होती - यानी जाहिर है, 90 प्रतिशत कवि कवि नहीं होते. वैसे भी जब कोई बड़ा-तथाकथित-पुरस्कृत-स्थापित कवि किसी कहानीकार की "गद्य" कहानी को टीप-टाप कर अपनी कविता बनाकर पेश कर वाहवाही बटोरते समय उसका चौर कार्य पकड़ लिया जाता है, तब अदने कवियों का क्या हाँ और क्या ना!
इधर बहुत से साहित्यकार इसलिए दुखी हो रहे हैं कि विरोध करने के लिए उनके पास कोई बड़ा औजार नहीं है. औजार मने कोई बड़ा पुरस्कार, जिसे वे लौटा कर विरोध दर्ज कर सकें. जो पुरस्कृत हैं उनमें से भी बहुत इसलिए दुखी हो रहे हैं कि अब भेड़चाल में उन्हें भी अपना अच्छा खासा पुरस्कार लौटाना पड़ेगा. कोई इसलिए दुखी हो रहा है कि अगले वाले ने पहले पुरस्कार लौटा दिया और ज्यादा लाइमलाइट ले गया. बाद वाले के लिए तो शायद टीआरपी का मामला ही न बने, और लौटाने-नहीं-लौटाने में फर्क ही न रहे. बाद में कोई पूछे - अरे! आपने भी पुरस्कार लौटाया था क्या? और, यह बात तो और भी ज्यादा दुखदायी होगी. हाँ, पर शायद अच्छी भी होगी. जिन साहित्यकार दुख नईं वेख्या, उ साहित्यकार ही नईं! जो साहित्यकार सदा दुखी नहीं, वो साहित्यकार ही नहीं.
साहित्यकार और भी कारणों से दुखी रहते हैं. अव्वल तो उनकी शानदार पांडुलिपियों के लिए कोई प्रकाशक नहीं मिलता, जुगाड़ से या जेब-खर्च देकर कोई प्रकाशक मिल भी जाता है तो 200-300 प्रतियों से अधिक प्रिंट ऑर्डर नहीं होता, उस किताब का शानदार विमोचन नहीं हो पाता, विमोचनोपरांत ढंग से समीक्षाएं आदि नहीं हो पातीं, किताब कोई मुफ़्त में भी लेने को तैयार नहीं होता क्योंकि भारतीय पाठकों के 2 बेडरूम फ्लैट में वैसे भी बच्चों के टैक्स्ट बुक रखने को जगह नहीं तो साहित्यिक किताबें क्या खाक रखेंगे, और, इस तरह ये किताबें ताजिंदगी अपठ रह जाती हैं. वैसे भी, विषय-वस्तु से लेकर भाषा-कथ्य आदि तो घोर अपठनीय रहते ही हैं, ये दीगर बात है.
दुख की बहुत सी बातें हो गईं. चलिए, खुश हुआ जाए. चर्चा यहीं बंद करते हैं.
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