(एआईबी रोस्ट पर अमूल का विज्ञापन - साभार अमूल ) खुदा ख़ैर करे, अभी, चंद रोज पहले तक मुझे रोस्ट बीन्स और चिकन रोस्ट का ही पता था, परंतु दु...
(एआईबी रोस्ट पर अमूल का विज्ञापन - साभार अमूल )
खुदा ख़ैर करे, अभी, चंद रोज पहले तक मुझे रोस्ट बीन्स और चिकन रोस्ट का ही पता था, परंतु दुनिया भले ही गोल हो, है यह बहुत बड़ी. बहुत ही बड़ी.
अखबारों और सोशल मीडिया में हो रहे हल्ले से पता चला कि कोई एआईबी रोस्ट भी होता है. और, जब पता चला तो मानव खोजी मन कहाँ ठहरता है भला? ऊपर से, भले ही यू-ट्यूब पर एक एडमिन खास इसके संस्करणों को अपलोड होते ही डिलीट मारने बैठा हो, मगर अपलोडर – तू डाल डाल तो मैं पात पात की तर्ज पर सैकड़ों हजारों अलग-अलग नामों से रोस्टिया रहे हैं और इस एक ही एपिसोड के हजारों वर्शन तमाम वीडियो साइटों पर भिन्न भिन्न नामों से दर्शन दे रहे हैं. ऐसे में, मासूम दर्शक चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने रोस्ट हो ही जा रहा है.
आपने ठीक समझा. आप ही की तरह हर कोई मुफ़्त में रोस्टिया रहा है, और अपने तरीके से रोस्टिया रहा है. किसी को यह भरपूर हँसी मजाक लग रहा है तो किसी देल्ही-बेली... को हिंसक लग रहा है. रोस्ट का मामला कुछ-कुछ ऐसा ही है - बिटर कॉफी का प्याला किसी को कड़वा लग सकता है तो किसी को किक दे सकता है.
वैसे, मेरा बचपन उस मुहल्ले में गुजरा है, जहां बच्चों के जबान पर माँ-पप्पा के बजाए रोस्टेड बोली और उपमाएँ पहले चढ़ती है. मैंने पूरे मुहल्ले के संभ्रांत नागरिकों को सार्वजनिक नल से एक बाल्टी पानी पहले पाने के लिए सार्वजनिक रूप से एक दूसरे को भयंकर-रोस्ट करते हुए देखा-सुना है. और यही नहीं, उस मुहल्ले के रहवासी पारिवारिक सदस्यों के बीच रोस्टियाना संवादों का आपसी आदान-प्रदान भी बेहद आम था. ऐसे में पूरे मुहल्ले के पूरे के पूरे वाशिंदों के ऊपर एफआईआर होनी चाहिए थी और सारा मुहल्ला जेल में बंद होना चाहिए था – या कि मुहल्ले को ही जेल हो जाना चाहिए था.
मजेदार यह भी है कि तथाकथित रोस्ट में जनता ने रोस्ट होने के लिए 4 हजार रुपए खर्च किए. जनता तो वैसे भी कई तरीके से रोस्ट होती रही है. महंगाई, इनकम टैक्स, सर्विस टैक्स आदि-आदि की मार तो है ही, अच्छे दिनों का दिवा-स्वप्न और फ्री बिजली-वाईफ़ाई जैसे लोकलुभावन वादों से भी जनता खुद ही रोस्ट हो रही है - क्योंकि जनता जानती है कि ऐसा होने से तो रहा!
भले ही थोड़ा सॉफ़्ट किस्म का लगे, परंतु एक नेता अपने भाषणों में विरोधी को रोस्ट करते ही रहता है. हिंदी लेखकों-कवियों-संपादकों की जमात भी दूसरे खेमे को रोस्ट-पे-रोस्ट करते रहते हैं. ये बात अलग है कि हिंदी का पाठक अपनी निगाहें फेर कर इन छोटे-बड़े-स्थापित-सम्मानित रचनाकारों को रोस्ट कर डालता है.
इससे पहले कि मैं आपको और, इतना अधिक रोस्ट कर डालूं कि आप अनसब्स्क्राइब बटन पर क्लिक करने की सोचने लगें, मामला यहीं बंद करता हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपकी रोस्टिया टिप्पणियों का सदैव इंतजार रहेगा.
आई लव रोस्ट! ये रोस्टी हम नहीं छोड़ेंगे!
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