गूगल की नई विचार धारा: पूर्णतः ‘व्यावसायिक और लाभदायक' समाज-सेवा. इंटरनेट की दुनिया को ‘खोज' के साथ साथ ‘एडसेंस' और ‘एडवर्ड'...
गूगल की नई विचार धारा: पूर्णतः ‘व्यावसायिक और लाभदायक' समाज-सेवा.
इंटरनेट की दुनिया को ‘खोज' के साथ साथ ‘एडसेंस' और ‘एडवर्ड' जैसे नायाब प्रयोगों के जरिए ‘बदल कर' रख देने वाले गूगल ने एक नई विचारधारा प्रस्तुत की है. व्यावसायिक, लाभदायक समाज-सेवा.
गूगल द्वारा 1 बिलियन डॉलर की आरंभिक राशि के साथ एक ट्रस्ट बनाया गया है जो कि तमाम विश्व में गरीबी, बीमारी और ऐसे ही अन्य वैश्विक समस्याओं को खत्म करने में योगदान देगी. परंतु इस ट्रस्ट की यह ख़ासियत यह है कि ट्रस्ट कुछ राशि व्यापार व्यवसाय में लगाकर उस पर लाभ भी कमाएगी.
व्यापारिक संस्थानों द्वारा समाज सेवा का विचार सदियों पुराना है. भारत में टाटा घराना प्रारंभ से ही समाज सेवा में रहा है. टाटा घराने के सहयोग से आरंभ हुआ टाटाइंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च इसका अप्रतिम उदाहरण है. अभी कुछ समय पहले ही यह खबर आई थी कि वॉरेन बफ़ेट ने अपनी अधिकांश सम्पत्ति बिल एंड मलिंडा गेट्स फाउण्डेशन को समाज सेवा हेतु दान में दे दी है. सुधा मूर्ति का मुख्य पेशा समाज सेवा है - और वे यह कार्य बरसों से कर रही हैं.
परंतु गूगल की विचारधारा तो सचमुच क्रांतिकारी है. और क्यों नहीं. समाज-सेवा भी पूरे व्यावसायिक रूप में किया जा सकता है, लाभ के लिए किया जा सकता है - अगर इससे थोड़ी सी ही, सही सचमुच की समाज-सेवा होती है. गूगल अपने इस ब्रिलिएंट विचारधारा को अमलीजामा पहनाने के लिए डॉ. लैरी ब्रिलिएंट को लाए हैं, जो कि स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में पहले ही खासा नाम कमा चुके हैं.
संयोगवश, गूगल की यह विचारधारा उस समय अवतरित हुई है, जब चिट्ठाकारों में घनघोर, रक्तचाप-बढ़ाने वाली, आधुनिक-बनाम-दकियानूसी बहस की जंग छिड़ी हुई है कि नारद या अन्य हिन्दी चिट्ठों को व्यावसायिक रूप से स्व-निर्भर होना चाहिए या नहीं. गूगल की यह विचारधारा - चिट्ठों या नारद के व्यावसायिक कदम को न केवल पुष्ट करती है, बल्कि उन्हें ‘घोर व्यावसायिक' बनाने की ओर प्रेरित भी करती है. कारण - जब आपके पल्ले धन रहेगा - समाज-सेवा न सिर्फ खुद-बखुद होगी, सेवा के लिए धन भी निकलेगा. वरना - नंगा खाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या.
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यहाँ यह भी बताना समीचीन होगा कि रचनाकार जैसे चिट्ठे पिछले सालभर से पूर्णतः अव्यावसायिक चलते रहे. रचनाकार पर अनुदान देने के लिए पेपैल का लिंक पहले से है. आज तक एक धेला कहीं से प्राप्त नहीं हुआ. हिन्दी के एक पृष्ठ को स्थानीय स्तर पर टाइप करवाने के न्यूनतम खर्च पाँच रुपए लगते हैं. यानी कि एक पांच पृष्ठीय कहानी के लिए पच्चीस रुपए. जबकि पाठकों की फ़रमाइशें आती हैं कि चंद्रकांता संतति जैसी रचनाएँ पूरी की पूरी इस पर आएँ. इसके लिए सहयोग तो चाहिए ही. और सहयोग नहीं मिल रहा तो व्यावसायिक होकर इस काम को पूरा करने में कोई हर्ज तो मुझे नहीं दीखता. रचनाकार या नारद का व्यावसायिक चैनल रविरतलामी या मिर्चीसेठ की तिजौरी भरने के लिए, ‘मालपानी' कमाने के लिए नहीं है. रचनाकार और नारद की स्कैलेबिलिटी तो अनंत हो सकती है, और उसके लिए तो मिलियन डॉलर वार्षिक भी कम पड़ेंगे. अगर अपनी सोच में व्यावसायिक खयाल लाएँ तो यह दिखाई भी देने लगेगा.
नारद के लिए आरएसएस फ़ीड डिज़ाइन करने के बारे में मेरी सलाह में कतई यह नहीं था कि फ़ीड रीडर या कहीं पर भी इसकी फ़ीड न जाए. वर्तमान विन्यास में बस एक अतिरिक्त क्लिक और एक अतिरिक्त पेज लोड का सवाल था - जो कि अंततः हम सबको करना ही होगा जब नारद पर कैलेंडर, जन्मदिवस अभिनंदन और इसी तरह की अन्य स्केलेबल चीज़ें अंततोगत्वा जुड़ेंगीं - जैसी कि चर्चा चल रही है. अगर यह खयाल दकियानूसी है तो फिर है - मैं अभी भी मानता हूँ कि यह खयाल किसी सूरत बुरा नहीं है. चर्चा में बीबीसी के भी उदाहरण दिए गए हैं. बीबीसी की फ़ीड में भी हमें पूरा समाचार पढ़ने नहीं मिलता. पूरा समाचार पढऩे के लिए बीबीसी के पन्नों पर फ़ीड में दिए लिंक के जरिए हमें जाना ही होता है. नारद जब ऐसी सेवा दे रहा है तो उसके पन्नों में जाकर वहां मौजूद कड़ियों के जरिए चिट्ठों को पढ़ने में क्या मजबूरी हो सकती है भला? अधिकांश चिट्ठाकार अपने फ़ीड आंशिक ही रखते हैं - सभी चाहते हैं कि लोग उनके पृष्ठों पर आएँ और स्टेटकाउंटर का ग्राफ थोड़ा बढ़ाएँ और हो सके तो एकाध टिप्पणी जड़ें. इन चिट्ठाकारों का खयाल दकियानूसी नहीं हो सकता - वरना वे अपने चिट्ठों की पूरी फ़ीड जारी कर रखते और किसी को उनके चिट्ठों पर जाने की कभी जरूरत ही नहीं होती. अर्थ यह कि नारद पर दिन में कम से कम एक बार हर नारद प्रयोक्ता को जाने की मजबूरी हो - अगर वह चिट्ठा पूरा पढ़ना चाहे. नहीं तो शीर्षक तथा सारांश पढ़ कर संतुष्ट रहे. यही तो अधिकांश चिट्ठाकार कर रहे हैं - रविरतलामी भी और फुरसतिया भी.
तो, यह अंतहीन बहस तो जारी रहेगी - जैसा कि जीतू का कहना है. बहरहाल, गूगल को हार्दिक धन्यवाद. मेरे विचारों के समर्थन हेतु उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए इससे बेहतरीन अवसर और इससे बेहतरीन उदाहरण किसी और का नहीं हो सकता था!
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खबर बताने का शुक्रिया - ज़रा ये भी बतादें कि क्या आपको गूगल एडसंस कुछ फाईदा होरहा है?
हटाएंआप खबर पढ कर उसे समझ तो लीजिए!
हटाएंये संस्था गूगल की सबसिडरी है - इस नाते इस संस्था को नानप्राफ़िट बनाने का सेंस नही बनता था. लेकिन वो इस संस्था का पैसा मात्र भलाई के कामों वाली चीजों में या कंपनियों मे ही लगाना चाहते थे - इसके लिए कानून में एक गली है उस का प्रयोग किया गया है. ताकी सरकार पर भी जनहित में लाबी करने का मौका ना चूक पाएं.
इस संस्था को होने वाले किसी भी लाभ पर और इस संस्था द्वारा लगाए गए किसी भी उद्यम से होने वाले लाभ पर किसी कार्पोरेशन की भांती ही टेक्स अदायगी की जाएगी. नान-प्राफ़िट करने के पीछे सिर्फ़ इस बात को लागू करना है की सारे खर्च आई.आर.ए की धारा ५०१(स)(३) के तहत हो सकें! यानी कमाई का पैसा गूगल सर्च इंजिन को नही होगा. इस के दो फ़ायदे होंगे. गूगल वाले घाटा या कमाई से अधिक खर्च होने पर टेक्स नही देंगे और अगर कमाई अधिक हुई तो वे उसे फ़िर से नए उपक्रमों में झोंक दे सकेंगे लेकिन कमाई होने के दबाव में अधिक उत्पादकता बनी रहेगी और नए में वो पैसा बचाया जा सकेगा.
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए चाहे जो तोड मरोड के लिखेंगे क्या? ये केपिटलिज़्म विद अ हार्ट का केस है! ये तो वे वो ही कर रहे हैं जो मै कहता रहा हूं - केपिटलिज़्म विद अ हार्ट
ये न्यूयार्क टाईम्स का टाईटल है! अरे अब तो आपके प्रिय केपिटलिस्ट गूगल भी समझदार हो गए हैं - क्या समझे?
(http://select.nytimes.com/gst/tsc.html?URI=http://select.nytimes.com/2006/09/16/opinion/16tierney.html&OQ=_rQ3D1Q26hp&OP=7db1d72Q2Fg@fWgqQ7C)iiqgy772g7Q5DgQ7D2gieRVRiVgQ7D2qRf)VfQ27n(qv,)
भाई सुहैब,
हटाएंफाईदा तो कौनों नहीं हो रहा है, परंतु आगे जरूर उम्मीद लगाए बैठे हैं. आखिर आशा पर ही आकाश टिका है
भाई ईस्वामी,
अगर बात तोड़ मरोड़ वाली होती तो मैं पूरा का पूरा समाचार चिपकाता नहीं.
बात सिद्ध करने की भी नहीं हो रही है. मैं अपने विचार रख रहा हूँ, आप अपने. किसी को भी कोई बात सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है.
रहा सवाल समाज सेवा का तो 1 बिलियन डॉलर से गूगल अगर एक डॉलर की भी सेवा करता है - तो यह समाज सेवा ही हुई - और टैक्स बचाने की पतली गली क्या है - वह गूगल जाने और सरकार. बात व्यावसायिकता के साथ समाज सेवा की हो रही है, और इसी विचार को लागू किया गया है.
शून्य वाले अपने सभी आरएसएस फ़ीड में कड़ियों को नहीं देते. लिहाजा पढ़ने के लिए शून्य के पृष्ठों पर जाना ही होता है
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