tag:blogger.com,1999:blog-73704822024-11-06T08:18:25.358+05:30छींटे और बौछारेंहिंदी में तकनीकी व हास्य-व्यंग्य का प्राचीनतम ब्लॉगरवि रतलामीhttp://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.comBlogger203313tag:blogger.com,1999:blog-7370482.post-10972346860169231692023-08-24T15:55:00.002+05:302023-08-24T15:55:23.033+05:30 डॉल्बी विजन देखा क्या?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqH4bL6NxiBZMYiUD1sNDSPpXoc4qaxTmyhPA9PKrd3bWl9vLizaXFeH0779tuS0spYhhqIn_tpdjaav1GyhSbo8YEH-N47N5wzMhQnQPPgdJgyS_c11EUrzuxdfhRm3zq7FfefhBHDChm4iFw2F7AJzOewi2rbbeTnPcF51wa1qY3j5VJ2FWn/s1280/photo_2023-08-24_14-29-26.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqH4bL6NxiBZMYiUD1sNDSPpXoc4qaxTmyhPA9PKrd3bWl9vLizaXFeH0779tuS0spYhhqIn_tpdjaav1GyhSbo8YEH-N47N5wzMhQnQPPgdJgyS_c11EUrzuxdfhRm3zq7FfefhBHDChm4iFw2F7AJzOewi2rbbeTnPcF51wa1qY3j5VJ2FWn/w400-h225/photo_2023-08-24_14-29-26.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>इससे पहले, अपने पिछले आलेख में मैंने आपसे पूछा था – डॉल्बी एटमॉस सुना क्या? यदि आपने नहीं सुना, तो जरूर सुनें.&nbsp;</p><p>अब इससे आगे की बात –</p><p>डॉल्बी विजन देखा क्या?</p><p>कुछ समय पहले तक, मैंने भी नहीं देखा था. पर, जब देखा तो देखता ही रह गया.</p><p><br /></p><p>दरअसल, कुछ समय पहले मेरा एक अपेक्षाकृत नया, परंतु “गारंटी अवधि बिता चुका” 4K टीवी खराब हो गया तो उसके स्थान पर एक नया टीवी लेने का भार सिर पर आ गया. वैसे भी, मरफ़ी के नियम के मुताबिक, कोई उपकरण जब खराब होता है तो पता चलता है कि उसकी गारंटी अवधि बस कुछेक दिन पहले ही बीत चुकी होती है. बहरहाल, मेरा खराब हो चुका, MI का यह टीवी जब जारी हुआ था तो तकनीक के मामले में अव्वल था, मगर था बेहद सस्ता. इसका डिस्प्ले शानदार था, साउंड भले ही घटिया था. चूंकि मेरे पास 7.1 AVR सिस्टम पहले से ही मौजूद था, इसीलिए, इसके कम कीमत व दमदार डिस्प्ले की वजह से इसे खरीद लिया था. ऐसे दमदार डिस्प्ले वाले प्रसिद्ध ब्रांड के टीवी उस वक्त उससे दोगुनी कीमत में मिल रहे थे. मगर, सस्ता रोए बार-बार की तर्ज पर यह गारंटी अवधि बीतते न बीतते यह खराब हो गया, और चूंकि इसका पैनल ही खराब हो गया था, इसके सुधार कर उपयोग करने की संभावना धूमिल हो गई थी – सोने से ज्यादा घड़ावन यानी की रिपेयर कीमत महंगी पड़ रही थी. पर, फिर, बाद में लगा कि जो होता है अच्छा होता है – अच्छा ही हुआ जो यह टीवी खराब हो गया. क्यों? कैसे? आगे बताता हूँ.&nbsp;</p><p>तो, जब जबरिया नया टीवी खरीदना गले ही पड़ गया तो बाजार में सर्वे किया गया. कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक की दुनिया में यूँ बाहर से तो कोई क्रांति होती प्रतीत नहीं होती है, मगर जब बारीकी में जाएँ, तो लगता है कि नित्य ही नई क्रांति हो रही है.</p><p>जब मैंने अपने वर्तमान, खराब हो चुके टीवी को खरीदा था, तब 4K नया-नया आया ही था. कुछेक साल बीतते न बीतते मैंने देखा कि तकनीक 8K तक तो पहुँच ही गई है, HD से ऊपर HDR तक जाते-जाते HDR 10, HDR 10+ तक पहुँच चुकी है. और, वहाँ से भी आगे डॉल्बी विजन तक पहुँच गई है. मैंने देखा कि कुछ प्रीमियम टीवी सेट नई तकनीक – डॉल्बी एटमॉस (जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है) के साथ, डॉल्बी विजन में आ रहे हैं. यानी आपके महज कुछेक साल पहले खरीदे गए एचडी, 2K या 4K टीवी कबाड़ होने वाले हैं, क्योंकि जमाना डॉल्बी विजन का आ गया है.&nbsp;</p><p><br /></p><p>डॉल्बी विजन क्या है?&nbsp;</p><p>अब आप पूछेंगे कि डॉल्बी विजन क्या है?&nbsp;</p><p>डॉल्बी विजन बनाने वाली कंपनी की आधिकारिक साइट पर इसे कुछ इस तरह पारिभाषित किया गया है –</p><p>“डॉल्बी विजन के जरिए सिनेमा, टीवी शो तथा वीडियो गेम के दृश्यों की कलात्मकता को अधिक गहराई, अविश्वसनीय कंट्रास्ट, और ज्यादा रंगों के साथ डिस्प्ले की HDR तकनीक को डायनामिक तरीके से&nbsp; फ्रेम दर फ्रेम वीडियो क्वालिटी को बढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है जिससे इन्हें देखने का अनुभव हर हमेशा ही दृश्यों में अधिक डूब कर, अधिक आनंद के साथ लिया जा सकता है.”</p><p><br /></p><p>दरअसल, डॉल्बी विजन से फिल्म, टीवी या गेम के हर सीन में गुणवत्ता को HDR (हाई डायनामिक रेंज) तकनीक से आगे जाकर डायनामिक तरीके से और बढ़ाया जाता है जो अभी तक की उपलब्ध किसी और दूसरी तकनीक में संभव नहीं था. इसमें हर सीन के हर दृश्य के हर फ्रेम के लिए डायनामिक मेटाडाटा का उपयोग किया जाता है जिससे दृश्य अधिक जीवंत, डिटेल युक्त, रंगीन और आनंददायी हो जाते हैं. डॉल्बी विजन में 12 बिट कलर डैफ्थ का समर्थन है, जिसका अर्थ है – 6870 करोड़ रंगों का समर्थन. डॉल्बी विजन एक प्रोप्रायटरी फ़ॉर्मेट है जिसका उपयोग करने के लिए डॉल्बी से लाइसेंस लेना आवश्यक होता है. इसीलिए, अभी यह तकनीक केवल कुछेक प्रीमियम उपकरणों व स्ट्रीमिंग सेवाओं में ही उपलब्ध है. हालांकि परिदृश्‍य तेजी से बदल रहा है और निकट भविष्य में सभी डिस्प्ले डॉल्बी विजन युक्त होंगे, इसकी पूरी संभावना है.</p><p><br /></p><p>तो मैंने एक डॉल्बी विजन युक्त टीवी सेट खरीदने का निश्चय किया और पास के एक मल्टीब्रांड इलेक्ट्रॉनिक शोरूम में गया. वहाँ मैंने सेल्समेन से डॉल्बी विजन युक्त टीवी और उसके बारे में पूछताछ की और डॉल्बी विजन फीचर वाले टीवी को चलाकर देखने का प्रयत्न किया. चूंकि तकनीक नई है, तो सेल्समेन ज्यादा कुछ बता नहीं पाया और बस यही कहता रहा कि इसमें पिक्चर बढ़िया आती है. वो डेमो भी चला रहा था तो सामान्य, टाटा स्काई के एचडी प्रसारण को चला कर दिखा रहा था. उसे AI अपस्केलिंग आदि के बारे में भी जानकारी नहीं थी.&nbsp;</p><p><br /></p><p>अब आप पूछ सकते हैं कि ये AI अपस्केलिंग क्या होती है? तो ये अपस्केलिंग का फंडा ये है कि पुराने SD, HD तकनीक में बहुत सारी तमाम वीडियो सामग्री हैं जिन्हें आजकल के बड़े आकार वाले 4K टीवी में देखने पर ये पिक्सलेटेड दिखाई देते हैं तो इन्हें शार्प व क्लीयर बनाने के लिए अपस्केलिंग का सहारा लिया जाता है. यहाँ तक कि कुछ विशिष्ट उपकरणों में (एपल टीवी 4K, अमेजन फायर क्यूब 4K, रोकू अल्ट्रा आदि आदि) में डॉल्बी विजन में 4K में अपस्केल की भी सुविधा होती है. तो HD या SD वीडियो को चलते-चलते ही ग्राफ़िक्स प्रोसेसर से 2K या 4K में अपस्केल कर दिखाया जाता है जिससे पुराना माल भी नया नकोर चकाचक दिखता है.</p><p><br /></p><p>शो रूम में मौजूद टीवी तो डॉल्बी विजन वाला था, मगर कंटेंट यानी सामग्री साधारण थी, तो टीवी का डिस्प्ले भी साधारण से थोड़ा बेहतर दिख रहा था. कोई वॉव फैक्टर कहीं नजर नहीं आ रहा था. पहली नजर में तो लगा कि ये डॉल्बी विजन किसी तरह की मार्केटिंग गिमिक तो नहीं है. शोरूम में मेरा अनुभव कुछ सही नहीं रहा और मुझे डॉल्बी विजन तकनीक युक्त और उस तकनीक के बगैर टीवी दोनों एक साथ देखकर भी कोई चमत्कृत होने जैसा अनुभव तो नहीं ही हुआ और कह सकते हैं कि कोई बहुत ज्यादा भिन्न नजर नहीं आया.</p><p><br /></p><p>इसके बावजूद भी, मैंने बाजार में विविध ब्रांड में उपलब्ध डॉल्बी विजन तकनीक पर भरोसा करते हुए, डॉल्बी विजन युक्त टीवी में से एक खरीद ही लिया. और घर में कुछ विशिष्ट सेटिंग की सहायता से जब मैंने टीवी के डिस्प्ले को ऑप्टीमाइज कर लिया तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला – वाह! डॉल्बी विजन, वाह! अब तो कोई सड़ियल फिल्म या टीवी सीरियल देखने में भी मजा आने लगा – दृश्य और रंग जीवंत, और अधिक जीवंत जो हो चुके. और तब मुझे लगा कि अच्छा ही हुआ जो मेरा पुराना टीवी खराब हो गया, और मुझे इस नई तकनीक की टीवी देखने का मौका मिला नहीं तो दो-चार साल और मैं इस तकनीक का आनंद उठाने से महरूम रह जाता. आपका टीवी भी यदि पुराना हो रहा हो, और बदलना चाह रहे हों, तो इस तकनीक वाले टीवी के बारे में एक बार जरूर विचार करें. आपके हर पसंदीदा ब्रांड में ये मिल जाएंगे.</p><p>टीवी और सिनेमा के अलावा, डॉल्बी विजन पिछले कुछ समय से कुछ प्रीमियम स्मार्टफ़ोनों में भी उपलब्ध है. सबसे पहले एलजी जी 6 स्मार्टफ़ोन (एलजी ने अब स्मार्टफ़ोन बनाने बंद कर दिए हैं, मगर टीवी निर्माण व डिस्प्ले तकनीक में बाजार में इसकी धाक है) में इस तकनीक को पेश किया गया था, और अब तो मिडरेंज के फ़ोनों में भी इसे पेश किया जा रहा है. तो यदि आप अपना स्मार्टफ़ोन निकट भविष्य में अपग्रेड करना चाह रहे हैं तो इस तकनीक वाले स्मार्टफ़ोनों पर एक नजर जरूर डालें.</p><p>विशेष टीप –</p><p>डॉल्बी विजन का आपका अपना अनुभव कमतर हो सकता है, या बेकार हो सकता है. मामला टीवी की सेटिंग (टीवी या स्ट्रीमिंग उपकरण की क्षमता), स्ट्रीमिंग सेवा और उसकी गुणवत्ता आदि पर निर्भर करती है. इसलिए, निम्न बातों का भी ध्यान रखना आवश्यक है –</p><p>1 – डॉल्बी विजन समर्थित टीवी के साथ देखें कि उसमें AI अपस्केलिंग में डॉल्बी विजन है, या केवल 4K अपस्केलिंग है. यदि नहीं तो आपको डॉल्बी विजन टीवी के साथ-साथ ऐसा स्ट्रीमिंग डिवाइस भी लेना होगा जिसमें डॉल्बी विजन अपस्केल की सुविधा है – जैसे कि नवीनतम एपल टीवी 4K, अमेजन फायर क्यूब 4K या रोकू अल्‍ट्रा (ध्यान दें कि रोकू डिवाइसेज भारत में समर्थित नहीं हैं, ये अमरीका, कनाडा व कुछ पश्चिमी देशों के लिए जियोग्राफिकली लॉक्ड हैं). मेरे टीवी में सामान्य AI अपस्केलिंग की सुविधा तो है, परंतु डॉल्बी विजन अपस्केलिंग सुविधा नहीं है, केवल डॉल्बी विजन सुविधा है, तो मुझे यह स्ट्रीमिंग डिवाइस लेना पड़ा. साथ ही कुछ विशिष्ट सेटिंग चालू करनी पड़ी जैसे कि HDR सब सेंपलिंग 4.2.0 से 4.2.2 करना पड़ा और HDR हमेशा चालू मोड में रखना पड़ा जो कि डिफ़ॉल्ट में नहीं थे.</p><p>2 – सामान्य यूट्यूब (बेहतर अनुभव के लिए यूट्यूब प्रीमियम सेवा का उपयोग करें जिसमें एनहैंस्ड बिटरेट की सुविधा है, हालांकि डॉल्बी विजन कंटेंट यूट्यूब में अभी उपलब्ध नहीं है) वीडियो आदि को ये समर्थित स्ट्रीमिंग डिवाइस, अपस्केल कर डॉल्बी विजन में चलाते तो हैं, और अनुभव सामान्य से बेहतर तो होता ही है, मगर असली आनंद तब आता है जब आप वीडियो स्ट्रीमिंग सेवाओं जैसे कि नेफ़्लिक्स, अमेजन प्राइम, डिज़्नी आदि की प्रीमियम प्लान (बेसिक प्लान में डॉल्बी विजन नहीं मिलता, केवल HD क्वालिटी ही मिलती है) लेते हैं, जिसमें भले ही सभी नहीं, परंतु आजकल के प्रायः सभी नई फ़िल्में व टीवी सीरियल आदि डॉल्बी विजन फ़ॉर्मेट में उपलब्ध होते हैं. ट्रू डॉल्बी विजन में जारी फ़िल्मों को डॉल्बी विजन टीवी में देखना एक अलग ही, उच्च स्तरीय अनुभव होता है.</p><p>3 – टीवी दर्शन में दृश्य के साथ श्रव्य माध्यम भी जुड़ा रहता है, इसलिए, दिए गए किसी भी टीवी के साउंड सिस्टम में भरोसा न करते हुए, एक अदद, डॉल्बी एटमॉस और डॉल्बी विजन समर्थित 5.1 या 7.1 एवी रिसीवर सिस्टम में इनवेस्ट जरूर करें (सही, थिएट्रिकल सराउंड साउंड के लिए साउंड बार जैसी फेल टेक्नोलॉजी में भरोसा न करें). फिर देखें डॉल्बी विजन का आनंद द्विगुणित होता हुआ.&nbsp;</p><div><br /></div>रवि रतलामीhttp://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7370482.post-54506429521382793572023-08-21T15:15:00.004+05:302023-08-21T15:15:35.195+05:30 सरगुजा : 30 साल पुरानी यादों को फिर से जीने की एक ऑफ़बीट यात्रा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5dwWP3aIwhLRi4LRx0dBj4FtkF3IJZyW8L_pMJfMrqfU3vHvUSJO7fYs92HXciTARq7cHXTx-sl7svNUiYms8a55L_QHjZKrC82OIXs7n08ZTA4_-WJWVIIvNKU5Si4vLbLsVDFg8wf8dGw_GcOanwMn560pSk9Doje4mSJCnz8d_E-wNWHM2/s1280/photo_2023-08-21_15-01-27.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5dwWP3aIwhLRi4LRx0dBj4FtkF3IJZyW8L_pMJfMrqfU3vHvUSJO7fYs92HXciTARq7cHXTx-sl7svNUiYms8a55L_QHjZKrC82OIXs7n08ZTA4_-WJWVIIvNKU5Si4vLbLsVDFg8wf8dGw_GcOanwMn560pSk9Doje4mSJCnz8d_E-wNWHM2/w400-h225/photo_2023-08-21_15-01-27.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p><b>30 साल!</b></p><p>जी हाँ, पूरे तीस साल बाद मैं वहाँ जा रहा था. छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र के कुसमी, मैनपाट और रामानुजगंज को एक बार फिर से देखने. लोग पर्यटन के लिए पहाड़ों पर जाते हैं, बीच पर जाते हैं, प्रसिद्ध स्थलों की ओर, धार्मिक स्थानों की ओर रूख करते हैं, मगर मैं एक ऐसी नामालूम सी जगह की ऑफ़बीट यात्रा पर जा रहा था जहाँ मैं अपनी यादों को फिर से जीना चाहता था.</p><p>मेरे मन में तीस साल पहले की पूरी तस्वीर खिंची हुई थी. मैं उन तस्वीरों को एक तरह से रीफ्रेश करने जा रहा था. इतने समय में तो बहुत कुछ बदल गया होगा. गांवों-शहरों का रीनोवेशन हो जाता है- पूरी एक नई पीढ़ी आ जाती है.</p><p>तो क्या मेरी यादों के वे गांव, शहर, गलियाँ मुझे वैसी ही मिलेंगी जैसे मैं उन्हें छोड़ आया था? या शायद उनमें इतना बदलाव आ गया हो कि मैं उन्हें पहचान भी न सकूं? बदलाव अच्छे होंगे या बुरे?</p><p>इससे पहले भी, कुछेक साल पहले, कोई दो-तीन बार मैं वहाँ जाने का प्लान कर चुका था, मगर किसी न किसी वजह से वो कैंसिल ही हो जा रहा था. पिछली मर्तबा तो मैं कोरबा तक पहुँच भी चुका था, जहाँ से यह क्षेत्र महज डेढ़-दो सौ किलोमीटर दूर ही था, फिर भी नहीं जा पाया था. इस बार भी, हालांकि प्लान तो पहले ही बना था, मगर जरूरी कार्य से इसे रद्द कर दो हफ़्ते आगे करना पड़ा, और जब रायपुर से यह यात्रा दो हफ़्ते बाद प्रारंभ की जा रही थी, तो संपूर्ण क्षेत्र में बारिश का ऑरेंज अलर्ट था, बिलासपुर-अम्बिकापुर की सड़क भारी बारिश की वजह से टूट गई थी, यातायात बाधित था, मगर चूंकि इस बार ठान लिया था कि जाना ही है तो टैक्सी से जाने का विकल्प त्याग कर ट्रेन से अम्बिकापुर तक गए, और फिर वहाँ से टैक्सी पकड़ी. और बारिश? वह तो पूरे समय साथ थी, और बारिश में घूमने का आनंद द्विगुणित हो गया जब हम मैनपाट, सामरी पाट की पहाड़ियों में पूरे समय बादलों के साथ और उनके बीच ही घूमे-फिरे.</p><p>कोई तीस साल पहले मेरी पहली पक्की, सरकारी नौकरी कुसमी, सरगुजा जिले में लगी थी. इससे पहले मैं तकनीकी विद्यालय खैरागढ़ में अस्थाई तौर पर विद्युत विषय में तकनीकी शिक्षक के रूप में पदस्थ रहा था. विद्युत मंडल में कनिष्ठ अभियंता पद के लिए रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी, तब वह मध्यप्रदेश का एक बड़ा, व्यावसायिक शहर हुआ करता था) के क्षेत्रीय कार्यालय में छः महीने की ट्रेनिंग के उपरांत जब पहली पोस्टिंग सरगुजा जिले के तहसील मुख्यालय ‘कुसमी’ के लिए आई तो नक्शे में उस जगह को खोजना जरा मुश्किल सा काम था. नाम तो खैर सुना ही नहीं था. यदा-कदा सरगुजा जिले के मैनपाट के बारे में छिट-पुट खबरें आती थीं क्योंकि कुछ माइग्रेटेड तिब्बती वहाँ, उस पहाड़ी इलाके में बसे हुए थे. तब गूगल जैसी सुविधाएं तो सपने में भी नहीं थीं, तो जैसे तैसे छिट-पुट एकत्र की गई जानकारी के आधार पर निकल लिए थे कुसमी के लिए.</p><p>तब मेरे पास सामान के नाम पर एक साइकिल और एक सूटकेस हुआ करता था – तो उन्हें बस में लादा और पहुंच गए बिलासपुर. वहाँ से अम्बिकापुर के लिए दूसरी बस पकड़ी और फिर वहाँ से कुसमी जाने के लिए तीसरी. उस जमाने में तो नेशनल हाइवे भी सिंगल लेन हुआ करते थे तो आपको अंदाजा लग गया होगा कि कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर की इस यात्रा में, जहाँ किसी भी वाहन के लिए औसत गति पच्चीस-तीस किमी/प्रतिघंटा मिलनी भी मुश्किल होती थी, मुझे कितना समय लग गया होगा. ऊपर से मुझे तीन बसें भी बदलनी थीं. मुझे अच्छी तरह याद है- जब हमारी बस कुसमी बस स्टैंड पर लगी तो शाम हो चली थी. और मौसम सुहाना हो चला था. और हाँ, मेरे लिए यह इतनी लंबी दूरी की पहली बस यात्रा भी थी. तो जबर्दस्त थकान भी थी. मगर, यह क्या! आसपास का सारा दृश्य देखकर सारी थकान दूर हो गई, और मन हर्षोल्लास से भर गया था.</p><p>कुसमी पहाड़ियों पर बसा है. तथाकथित बस स्टैंड – जहाँ बसें सवारियों के उतारने चढ़ाने के लिए, सड़क के किनारे पर ही रुकती थीं, के ठीक सामने मेरा ऑफ़िस था, ऑफ़िस के बगल में रहने के लिए कुछ सरकारी क्वार्टर थे और इन सबके ठीक पीछे एक हरी-भरी पहाड़ी थी. बाईं ओर एक और पहाड़ी के ऊपर तहसील कार्यालय, बैंक, पीडबल्यूडी आदि के सरकारी ऑफ़िस और कर्मचारियों के लिए क्वार्टर. सड़क के दूसरी ओर खूब बड़ा खाली मैदान था जहाँ हर शनिवार को साप्ताहिक हाट लगता था, जिसमें जमाने भर के, बिहार-नेपाल के रास्ते स्मगल (तब भारत में विदेशी सामानों के आयात व खरीद-फरोख़्त पर पाबंदी थी) किए इलेक्ट्रॉनिक सामानों से लेकर रोजमर्रा की तमाम चीजें भी मिला करती थीं. यानी आज के जमाने के हिसाब से किसी पहाड़ी स्थल की ऑफ़बीट यात्रा में शांति सुकून से कुछ दिन बिताने का परफ़ैक्ट जुगाड़. और, यहाँ तो मैं पूरे दो साल रहा था!</p><p>समुद्र, पहाड़ और नदी लोगों को सदैव आकर्षित करते रहे हैं. बचपन मैदानी इलाके राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ में बीता जहाँ पास में शिवनाथ नदी बहती है. वहाँ से कोई 30 किलोमीटर दूर डोंगरगढ़ में पहाड़ियों की श्रृंखला है. तो जब जी चाहता उठकर नदी किनारे जा पहुँचते या पैसेंजर ट्रेन में बैठकर डोंगरगढ़ की पहाड़ियों पर चढ़ाई के लिए निकल जाते - आजकल जिसे बढ़िया फैंसी नाम दिया हुआ है – ट्रैकिंग. डोंगरगढ़ की विभिन्न पहाड़ियों पर अनगिनत ट्रैकिंग के बीच, प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मंदिर का कायाकल्प होते आँखों से देखा है. मंदिर के नाम पर पहाड़ी की चोटी पर पहले वहाँ एक छोटा सा मंदिर नुमा ढांचा हुआ करता था, जहाँ कम ही लोग जाते थे और अब वहाँ न केवल बारहों महीने मेला-सा लगा रहता है, रोप-वे की सुविधा भी उपलब्ध हो गई है.</p><p>मैदान में रहने वाला, एक पहाड़ प्रेमी - यहाँ, कुसमी में, ठीक पहाड़ी पर ही रहने आ गया था. आप मेरी उस वक्त की खुशी का अंदाजा लगा सकते हैं. डोंगरगढ़ के चट्टानी पहाड़ियों के विपरीत, सरगुजा जिला पूरी तरह से घने जंगलों और हरे भरे पेड़-पौधों युक्त, विंध्य पर्वतमाला की पहाड़ियों से घिरा आदिवासी इलाका है. कुछ-कुछ बस्तर की तरह. दूसरे दिन सुबह-सुबह ही साथ लाई अपनी साइकिल को मैंने उठाया और निकल गया आसपास की पहाड़ियों को नापने. कुसमी से दसेक किलोमीटर दूर, उससे भी ऊंची पहाड़ी पर, घुमावदार और चढ़ाई वाली सड़क से आगे जाने पर सामरी पाट आता है. चढ़ाई के बाद मैदान जैसी लंबी-चौड़ी जगह. ऊँचे में होने के कारण वहाँ हर मौसम में सांय-सांय ठंडी हवा चलती रहती है जिससे बचने के लिए स्थानीय लोग वहीं बनाए गए मोटे सूती कपड़े – जिसे बोरकी कहते हैं, की चादर ओढ़े रहते हैं. उस कपड़े का टैक्स्चर इतना पसंद आया था कि जल्द ही मैंने अपने लिए शर्ट भी बनवा लिया था.</p><p><br /></p><p>इसी सामरी पाट की एक लोमहर्षक घटना की याद दिल-दिमाग से जाती नहीं है- जैसे कि कल ही हुई हो. चूंकि यह इलाका मेरे कार्यक्षेत्र का था, तो यहाँ आना-जाना लगा रहता था. इस क्षेत्र की नैसर्गिक सुंदरता भी बारंबार खींच लाती थी और यहाँ आने का कोई भी अवसर चूकते नहीं थे. एक बार यहाँ विभिन्न विभागों की तिमाही मीटिंग तय हुई. तो मेरे साथ एक सहकारी बैंक के मैनेजर, एक पीएचई के सब-इंजीनियर भी साथ हो लिए. उन दोनों के पास जाने के लिए कोई वाहन नहीं था तो मेरी सायकल पर तीनों सवार हो लिए. बैंक के मैनेजर थोड़े पहलवान नुमा व्यक्ति थे तो उन्होंने सायकल चलाने का जिम्मा लिया. मैं डंडी पर बैठा और पीएचई के इंजीनियर महोदय पीछे कैरियर पर. जाते समय तो कोई समस्या नहीं हुई. मगर वापसी में भौतिकी के मास और इनर्शिया के नियम ने अपना खेल दिखा दिया. पहली ही उतराई में साइकल ने स्पीड पकड़ ली. उतराई भी ठेठ दो किलोमीटर लंबी थी. मैनेजर साहब ने ब्रेक में पूरी ताकत झोंक दी मगर साइकल थी कि रुके ही न. और तो और, ज्यादा खिंचाव के कारण सामने का ब्रेक-क्लैम्प पूरी तरह से उखड़ गया. ऊपर से शाम का समय था, तो सड़क पर घर लौटते रेवड़ भी. एक तरफ खाई तो थी ही. हम तीनों की जानें हथेली क्या उंगलियों के पोरों पर आ गईं. अब साइकिल रुके तो कैसे?</p><p>अचानक मुझे उपाय सूझा.&nbsp; मैंने थोड़ा झुककर और बैलेंस बनाते हुए अपने नए नॉर्थस्टार के जूते के तल्ले साइकिल के रबड़ वाले हिस्से पर टिका दिए और पूरा प्रेशर लगा दिया. थोड़ी ही देर में साइकिल की स्पीड घर्षण के दबाव से कम हो गई और अंततः रुक गई. जहाँ साइकिल रुकी, वहाँ से बमुश्किल दस कदम दूर पूरी सड़क को घेरे में लिए एक रेवड़, गोधूलि बेला में, अपने घर की ओर वापस जा रही थी. अनहोनी से बचे. जान में जान आई. मेरे नए नकोर जूते का तसला एक तरफ से घिस कर बे-शेप हो गया था, मगर उसने अपनी बलि देकर हादसे को रोक लिया था.</p><p><br /></p><p><b>मैनपाट – छत्तीसगढ़ का शिमला</b></p><p>हमारी रायपुर-अम्बिकापुर एक्सप्रेस ट्रेन सुबह नौ बजे पहुंची, और स्टेशन पर एक शेयर ऑटो वाले से होटल का ठिकाना पूछा तो उसने बिठा लिया. होटल का नाम सुन बंदे ने अंदाजा लगा लिया कि ये तो बाहरी सैलानी हैं और बोला पचास रुपए लगेंगे. बाद में उतरते समय प्रति सवारी पचास रुपये बोला था कह कर हम तीन लोगों के डेढ़ सौ झटक लिए, जबकि दूरी के हिसाब से स्थानीय सवारी दस-पंद्रह रुपए ही टिका रहे थे उसे. खैर. यह तो बड़ा तुच्छ सा ही मामला था, सो इस लूट को दिमाग से हटा, होटल में चेक-इन किया और चूंकि हमारे पास पूरा दिन का समय था तो 60 किलोमीटर दूर मैनपाट जाने का इरादा किया और घंटे भर बाद के लिए होटल से ही टैक्सी बुक कर ली.</p><p>मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला भी कहा जाता है. यह 1000 मीटर ऊंची पहाड़ी पर बसा है, जो आमतौर पर गर्मियों में भी ठंडा रहता है. उस दिन तो खैर घनघोर बारिश भी हो रही थी, तो ठंड जबरदस्त थी ही, मौसम बेहद नम भी था. आप कहेंगे – बारिश में घूमना? पर, बात अगर मैनपाट जैसी जगह की हो, तो, जनाब, बारिश में ही घूमना!</p><p>अम्बिकापुर से कोई दस-पंद्रह किलोमीटर बाहर निकलते ही मैनपाट के पहाड़ी, घुमावदार रास्ते चालू हो जाते हैं. हम लोग बीसेक किलोमीटर चले होंगे कि हमारा सामना घनघोर बादलों के गुच्छों से हो गया. पूरा रास्ता हम बादलों से बीच से, कभी दिखते, कभी गुम होते चले. कभी-कभी तो दो-चार मीटर दूर तक की भी चीजें नहीं दिखती थीं. बादल की एक टुकड़ी आती, हम सब को ढंक लेती. हवा चलती, वह आगे बढ़ती, कुछ सूझता-दिखने लगता, इतने में फिर बादल चले आते. आगे सड़क कहाँ जा रही है यह भी नहीं दिखता था. मगर ड्रायवर यहाँ का जानकार था और हर दूसरे-चौथे दिन सैलानियों को लेकर आता था तो वह न केवल आराम से वाहन चला रहा था, बल्कि अनवरत कमेंट्री भी किये जा रहा था. वो महान गुटका प्रेमी भी था, मना करने पर कसम खाता, अब आगे नहीं खाऊंगा, मगर मौका मिलते ही फिर खा लेता और चलती गाड़ी का शीशा डाउन कर पिच्च-पिच्च थूकता था. पूरी यात्रा के दौरान यही एक तकलीफ़ रही, वरना यह यात्रा हमारी सर्वकालिक, सर्वाधिक यादगार, आनंददायी यात्राओं में से एक रही है.</p><p>तीस साल पहले मैनपाट में केवल नैसर्गिक सुंदरता थी, प्रकृति थी. कोई दो-एक बार मैं यहाँ आया था. बस से. आसपास नापने के लिए सुविधाएँ नहीं थी. एकाध टाइगर पाइंट जैसी जगह पर ही जा पाए थे. अब तीस साल बाद यह तो पूरा टूरिस्ट प्लेस हो गया है. दर्जन भर से ज्यादा टूरिस्ट पाइंट हैं. हर जगह खाने-पीने की सुविधाएँ. पर्यटन विभाग की थोड़ी सक्रियता भी दिखी. टाइगर पाइंट पर तो बहुत काम भी दिखा. वहाँ फोर-व्हील ऑल टैरेन बाइक राइड की सुविधा भी थी. कुछ पाइंट तो वाकई नए और दिलचस्प भी थे – जैसे कि टिनटिनी पत्थर जहाँ पत्थर के एक विशाल टुकड़े पर ठोंकने से सरगम के सुर निकलते हैं तो जलजली नामक एक पाइंट पर धरती में कूदने पर धरती ट्रेम्पोलीन की तरह हिलती है. टिनटिनी पत्थर पर हमने भी सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा की धुन निकालने की कोशिश की, पर असफल रहे. जब हम वहाँ सरगम निकालने के असफल प्रयास कर ही रहे थे तो पास ही के, नए-नए बने एक छोटे से मंदिर में से एक पुजारी जी निकल कर चले आए. उन्होंने अलग-अलग पत्थर के टुकड़ों से टिनटिनी पत्थर के अलग-अलग हिस्सों को ठोंककर कोई धुन भी निकाली, जो समझ में नहीं आई, मगर हाँ, पत्थर से निकलने वाली धुन कानों को भली और चमत्कारिक तो लगी ही.&nbsp;</p><p>मैनपाट में एक प्रसिद्ध टूरिस्ट पाइंट है - उल्टा-पानी. कहते हैं, जहाँ पानी नीचे से ऊपर की ओर जाता है और गाड़ी भी नीचे से ऊपर की ओर जाती है. ग्रेविटी डिफ़ाइंग. हालांकि यह सब नजरों का धोखा ही है – क्योंकि मेरा तकनीकी मन यह मानने को तैयार नहीं है – बावजूद इसके कि कई बार नाप-जोख कर कई लोगों ने कन्फर्म किया कि वाकई पानी ऊपर की ओर बह रहा है. ड्राइवर ने गाड़ी का इंजन बंद कर न्यूट्ल में डाल कर गाड़ी को ऊपर की ओर चलाया. मानो-न-मानो, पर यह है तो टूरिस्ट एट्रैक्शन की जगह. जब हम वहाँ थे तो भारी बरसात के कारण और हमारे अलावा कोई टूरिस्ट नहीं थे. खाने-पीने के कई झोंपड़ी-नुमा टैंट लगे थे, जिसमें से केवल दो खुले टैंट दिखे जिसमें एक में तमाम पॉलीथीन के पैक्ड, पांच-पांच रूपए वाले खाने-पीने के आइटम टंगे थे, और दूसरे में भुट्टे रखे थे और भट्टी में एक कड़ाही, जिसमें तलने का तेल भी था, और भट्टी जल भी रही थी. हमने भुट्टे के आर्डर तो दिए ही, भजिए के लिए भी पूछा. जब हम गर्म भुट्टे खा ही रहे थे, अचानक बारिश और तूफान का एक लंबा और भारी, तेज झोंका आया जिसमें पहले वाले टैंट का एक हिस्सा उड़ गया. लगा कि भगवान परीक्षा तो बस गरीबों का ही लेता है. बहरहाल, उस गरीब के गम को कुछ कम करने हमने उससे कुछ अपने-लिए-गैर-जरूरी किस्म की खरीदारी भी कर ली और गर्मागर्म भजिए का आनंद भी लिया. अगर वो तूफान का नुकसान वाला झोंका नहीं आता तो, उस मौसम में, उस वातावरण में, वहां खाए भजिए यकीनन जिंदगी में खाए सर्वश्रेष्ठ भोजन की श्रेणी में आते, बावजूद इसके कि बार-बार उपयोग में आने के कारण तलने के तेल का स्वाद बिगड़ चुका था.</p><p>हमने पांच-छः पाइंट ही देखे थे – इत्मीनान से, क्योंकि जल्दबाजी में घूमना भी क्या घूमना – और इतने में ही शाम होने लगी तो वापस चल दिए अम्बिकापुर. कल हमें कुसमी जाना था. तीस साल बाद हाल-चाल पूछने. कैसी हो कुसमी? बहुत बदल तो नहीं गई?</p><p><b>कुसमी – टूटना 30 साल पुराने सपने का</b></p><p>अम्बिकापुर से कुसमी के लिए हम सुबह दस बजे के आसपास निकले. राजपुर-डीपाडीह से होकर 90 किलोमीटर की यात्रा थी. हमें रास्ते में डीपाडीह में रुकना था जहाँ खुदाई में पुरातत्व के मंदिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए थे जिन्हें नए सिरे से संजोकर रखा गया है. राजपुर से एक रास्ता रामानुजगंज को जाता है और एक रास्ता कुसमी. तीस साल पहले, राजपुर में कुसमी या रामानुजगंज को जाने वाली हर बस रुकती थी, और बस अड्डा भी सड़क पर ही था. बस रुकने पर चाय ब्रेक तो होता ही था. घंटे भर में आराम से चलते हुए राजपुर पंहुच गए तो पता चला कि अभी बस अड्डा कहीं और चला गया था, और सड़क का कायाकल्प हो गया था और दोनों ओर दुकानें ही दुकानें. एक छोटे से गांव से बदल कर पूरा कस्बा में बदल गया था राजपुर. एक चाय की दुकान पर चाय पीते-पीते पुराने, यादों में संजोये, सुंदर, छोटे से गांव राजपुर को ढूंढते रहे. पर वो नहीं मिला. आगे और भी सपने टूटने वाले थे.</p><p>राजपुर से आगे निकले तो आधे घंटे में शंकरगढ़ आया. शंकरगढ़ तक मेरा कार्यक्षेत्र था. वहाँ, शहर से बाहर बिजली का एक 33 केवी का सब-स्टेशन हुआ करता था, जिसकी देखरेख का जिम्मा भी मेरे हिस्से था. वहाँ रुके. सब-स्टेशन में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ था, बस कुछ अतिरिक्त लाइनें निकली थीं, एकाध कंट्रोल-रूम नया बना था और ट्रांसफ़ार्मरों में इजाफ़ा हुआ था. चलो, इस सब-स्टेशन में उम्र की मार दिख तो रही है, मगर इतना भी नहीं, कि पहचान में न आ रहा हो.</p><p>शंकरगढ़ से आगे बढ़े तो आधे घंटे में डीपाडीह आ गया. डीपाडीह में यत्र-तत्र मूर्तियों व मंदिरों के भग्नावशेष खेत-खलिहानों में बिखरे हुए पड़े हुए मिलते थे. मुझे याद है कि तब हम लोग इन भग्नावशेषों को ढूंढते हुए कई किलोमीटर यूं ही घूम लेते थे. अभी पुरातत्व विभाग ने इन भग्नावशेषों को एक स्थल पर एकत्र कर कुछ री-कंस्ट्रक्ट का प्रयास किया है और स्थल को दर्शनीय बना दिया है. यहाँ खजुराहो की मूर्तियों की तरह मंदिर की बाहरी दीवारों में एकाध मिथुन मूर्तियाँ भी अंकित हैं. स्थल में शिव मंदिरों की भरमार है, और सुकून हुआ कि इन्हें तरतीब से सहेजने का प्रयास किया गया है.</p><p>डीपाडीह से आगे निकले तो मन में उत्साह व बेचैनी बढ़ने लगी. अपनी प्रेयसी से लंबे अंतराल के बाद पुनर्मिलन जैसा अनुभव हो रहा था. तीस साल पहले की यादों में बसे कुसमी के रास्ते, भवन – अधिकतर सरकारी, मेरा निवास, ऑफ़िस, सबस्टेशन सब कुछ एक चलचित्र की तरह चल रहे थे. कुसमी से ठीक पहले, रास्ते में कुछ पाइंट ऐसे आते हैं जहाँ से विराट प्रकृति का विहंगम दृश्य दिखाई देता है. प्रकृति की छटा निहारने व कैमरे में कैद करने के लिए कई बार रुके. मौसम धान की रोपाई का था, तो रंग-बिरंगी परिधान पहने खेतों में धान रोपने वाले किसानों को देखना भी आह्लादकारी था. एक बात स्पष्ट तौर पर दिखी – पहले अधिकांश मोटियारिनें (छत्तीसगढ़ में खेतों में काम करने वाली स्त्रियों के लिए प्रयुक्त शब्द) पटका (आधी, छोटी साड़ी) या साड़ी में दिखती थीं, इस बार सलवार सूट और जींस-टॉप में भी दिखाई दीं. आधुनिकता और विश्वभौमिकता का समय है.</p><p>और, ये क्या! सामने कुसमी का, स्वागत करता प्रवेश-द्वार अंततः आ ही गया. पहले ऐसा कोई प्रवेश-द्वार तो नहीं था. लोहे के फ्रेम में लगी जंग और उखड़े पेंट बयाँ कर रहे थे कि कोई आठ-दस साल पहले इसका निर्माण हुआ होगा. कुसमी में प्रवेश करते ही सामने की पहाड़ी और बाईं और का तालाब आपका स्वागत करते हैं. पहाड़ी के बीचों-बीच से सड़क आगे बढ़ती है. सड़क के दोनों ओर सरकारी ऑफ़िसों, क्वार्टरों और बंगलों का रेला है. कुछ नए ऑफ़िस बन गए दीख रहे हैं. कस्बे में प्रवेश करते ही पहले बाईं ओर एक तालाब आता था, पर उससे पहले भी अब मकान और दुकानें बन गई हैं. मैंने ड्राइवर को वाहन धीरे करने को कहा. पहली पहाड़ी उतर कर, दूसरी पहाड़ी के ऐन ठीक नीचे मेरा ऑफ़िस, बाजू में सब-स्टेशन और सरकारी क्वार्टर था.</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBBUC9N9K885KyRVQrmbJaOrFN6zpLKcW6Me3kT4zdRg-mEBJcshWSuEbCLQMGMrCiEL3SQmfpsoW49hbI3dgf_jGXmz6_yWntfbhvBNpv24_r-idKczXfsI2gzYpBx-7F-YcoX0dZjALhokg0whPdcvpL19PNk52qrfiXc0WyBbjVk3IJornh/s1280/ravi%20kusumi%20gate.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="720" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBBUC9N9K885KyRVQrmbJaOrFN6zpLKcW6Me3kT4zdRg-mEBJcshWSuEbCLQMGMrCiEL3SQmfpsoW49hbI3dgf_jGXmz6_yWntfbhvBNpv24_r-idKczXfsI2gzYpBx-7F-YcoX0dZjALhokg0whPdcvpL19PNk52qrfiXc0WyBbjVk3IJornh/w225-h400/ravi%20kusumi%20gate.jpg" width="225" /></a></div><br /><p><br /></p><p>हम पहाड़ी उतर कर आगे बढ़ गए. और आजू-बाजू देखते रहे. अरे! यह क्या? मेरा ऑफ़िस तो नजर ही नहीं आया. न ही, अच्छा खासा दूर से नजर आने वाला बिजली का सबस्टेशन. वह मैदान जहाँ साप्ताहिक हाट लगता था, वह भी नजर नहीं आया. मैदान में दुकानें ही दुकानें नजर आ रही थीं. कमर्शियस कॉम्प्लैक्स नजर आ रहा था वो. इतने में कस्बे से बाहर निकलने वाला दोराहा आ गया. तो वापस लौटे. इस बार और धीमे तथा ध्यान से देखते हुए. दुकानों की कतार के बीच में से गली-नुमा जगह में से विद्युत कंपनी (पहले सरकारी विद्युत मंडल अब कंपनी हो गई है, मगर है सरकारी ही) का बोर्ड लगा दिख गया. यही तो है वो जगह जहाँ मैं आना चाह रहा पिछले कई सालों से! और, आखिर तीस साल बाद वो दिन आ ही गया. पर, यहाँ आकर लगा कि मुझे वापस, इस जगह को देखने आना नहीं था. यह तो एक सपने के मर जाने जैसा था. मन में उदासी-सी छा गई, जिसे निकलने में वक्त लगा.&nbsp;</p><p>उस वक्त एक शेर बेतरह याद आया था –</p><p><i><b>वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,</b></i></p><p><i><b>उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...</b></i></p><p>काश मैं यहाँ दोबारा न आता... मेरे सपने तो नहीं टूटते...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFS9U3fBR4tyrk6_JZEyU0XDsdxAIwRxU2U3DOtOOatJT3COzciQLHdAKBRn_eYXTqI3S_ntNFsC_dCBIKNjCq-SkWHu-9LfyUE5YRGGjysx51y0RRxiwwRtx6goucfzgiVPbzrCYC8is6srBOJbXXg1nhGykpNPYePWgFAuX-Vy4yKdIpJENm/s1280/Ravi%20old%20govt%20quarter%20kusumi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFS9U3fBR4tyrk6_JZEyU0XDsdxAIwRxU2U3DOtOOatJT3COzciQLHdAKBRn_eYXTqI3S_ntNFsC_dCBIKNjCq-SkWHu-9LfyUE5YRGGjysx51y0RRxiwwRtx6goucfzgiVPbzrCYC8is6srBOJbXXg1nhGykpNPYePWgFAuX-Vy4yKdIpJENm/w400-h225/Ravi%20old%20govt%20quarter%20kusumi.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>मेरा सुंदर सा ऑफिस और घर, पीछे की खूबसूरत पहाड़ी, सामने का खुशनुमा मैदान सब कहीं खो गए थे. सामने के मैदान में बेतरतीब, बेढ़ंगे, गंदे दुकानों की भरमार थी. वर्कशॉप, कलपुर्जे बेचने-ठीक करने वालों की खटर-पटर थी. पीछे की पहाड़ी में दूर तक मकानें और न जाने क्या-क्या बन गए थे, और हरियाली का सत्यानाश हो गया था. जिस मकान में मैं रहता था, वो टूट चुका था और खंडहर हो गया था – बस दीवारें और छत सलामत थी, दरवाजों खिड़कियों के पल्ले सब गायब थे और जंगली पेड़पौधों ने वहाँ अपना डेरा जमा लिया था. अलबत्ता ऑफ़िस नया बन गया था, और सब स्टेशन में नया आधुनिक कंट्रोल रूम भी बन गया था. पर मैं जिस सपने को, मन में बसी जिस छवि को दोबारा जीने आया था वो मुझे कहीं नहीं मिला. जो सुंदर सा गांव था, वो अब एक बदसूरत सा, बेतरतीब फैलता कस्बा बन गया है. मुझे वह मंजर इतना दुखद लगा कि मैं तुरंत ही वहाँ से आगे सामरी पाट की ओर चल दिया. यदि मैं कुछ और देर वहाँ रुकता तो शायद मैं रो देता.</p><p><b>तातापानी – अब आप यहाँ अंडे नहीं उबाल सकते</b></p><p>तीस साल पहले तो आप उबाल सकते थे! जी हाँ, बात तातापानी की हो रही है. तो कोई दो साल कुसमी में सेवा देने के बाद मेरा तबादला रामानुजगंज हो गया था. अम्बिकापुर से राजपुर तक तो वही रास्ता है, फिर राजपुर से रामानुजगंज के लिए अलग रास्ता है, और रामानुजगंज से कोई तीसेक किलोमीटर पहले तातापानी आता है. तातापानी में भूगर्भीय गर्म जल के कई स्रोत हैं. तातापानी का क्षेत्र भी मेरे कार्यक्षेत्र में आता था, तो कई-कई बार दौरे में मैं अकसर जाया करता था. वहां भूगर्भ-शास्त्रियों के तंबू लगे रहते थे और बहुत सारे उपकरणों आदि से वे खनन आदि कर वहाँ खोज करते रहते थे. पानी इतना गर्म, उबलता हुआ, अनवरत निकलता है कि तब वहाँ हम लोग कपड़े की पोटली में अंडे चावल आदि रख कर उबालते और खाते थे. कुसमी में रात्रि विश्राम के पश्चात दूसरे दिन रामानुजगंज के लिए निकले, और रास्ते में बीच में स्थित तातापानी देखने के लिए रुके. वहाँ पहुँचे तो पाया कि भूगर्भ-शास्त्रियों के तंबू आदि उखड़ चुके हैं और वह स्थल पूरा धार्मिक पर्यटन का क्षेत्र बन गया है. कई कुंडों को रामायणकालीन नाम दे दिए गए हैं, एक बड़ा सा जलाशय बना दिया गया है, जिस पर शिवजी की अति-विशाल प्रतिमा स्थापित कर दी गई है, पास में धर्मशाला आदि भी बन गए हैं. और वहां बोर्ड टंग गया है – यहाँ अंडे उबालना मना है.</p><p>तातापानी में भूगर्भीय गंधक युक्त गर्म जल से औषधीय स्नानादि के लिए पुरुषों व स्त्रियों के स्नान के लिए कुंड भी बनवाए गए हैं, मगर वे इतने बेकार व अवैज्ञानिक बने हैं कि उनका पहले दिन से ही उपयोग नहीं हुआ होगा यह प्रतीत हो रहा था. दोनों ही कुंडों में सड़े जल के अलावा कुछ नहीं था और स्नानादि के लायक कतई नहीं था. जबकि पूरे क्षेत्र में विभिन्न जगह से पर्याप्त मात्रा में गर्म जल का प्रवाह निरंतर जारी था, जिसका बेहतर उपयोग किया जा सकता था.</p><p>तातापानी से आगे बढ़े तो मौसम में गर्मी आ गई थी क्योंकि बादलों ने विदा ले लिया था और बारिश पूरी तरह बंद हो गई थी. आधे घंटे में रामानुजगंज पहुँच गए. वहाँ भी मैंने अपने ऑफ़िस और क्वार्टर को देखा तो कहानी कुसमी जैसी ही थी, बस एक चीज अच्छी थी कि चूंकि यह ऑफ़िस शहर से बहुत बाहर है तो यहाँ आसपास बहुत अधिक मकान-दुकान नहीं बने हैं, और आसपास थोड़ी हरियाली है. सबस्टेशन में एक तकनीकी स्टाफ से बातचीत में पता चला कि हमारे साथ काम करने वाले एक क्लर्क के वे पोते हैं! काम करने वाली एक पूरी पीढ़ी बदल गई!</p><p>रामानुजगंज के पास कन्हर नदी बहती है. तब हम बैचलर 8-10 लोगों का गैंग हुआ करता था जो प्रायः हर शाम नदी किनारे टहलने जाया करता था. नदी के उस पार झारखंड (तब बिहार) पड़ता है. नदी में चट्टानों का कटाव कुछ इस तरह है कि वो हाथियों के झुंड की तरह दिखाई देते हैं. अभी हम जब वहां गए तो अतिवर्षा के कारण सारी चट्टानें डूबी हुई थीं. हम नदी पार गए, वहाँ एक चाय की टपरी में झारखंडी चाय पी और इस तरह अपनी यादों की यह यात्रा समाप्त की, और घर के लिए वापस हो लिए.&nbsp;</p><p>अब आप पूछेंगे कि यह झारखंडी चाय क्या, कैसी होती है. अरे भाई, अगर झारखंड में चाय पी तो वो झारखंडी चाय ही तो हुई ना!&nbsp;</p><div><br /></div>रवि रतलामीhttp://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7370482.post-7029902815683943382023-05-23T13:23:00.002+05:302023-05-23T13:23:27.586+05:30 डॉल्बी एटमॉस सुना क्या? <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6_IxQ9uywCXPphNLUR9QLgNktEPidFqO1RyU--hyYWGhG5DE_HSymO6sx4Gqe8AQcIwIrM8zbzKMVExeHdszLZ9rhBV6tbrdN_xWyW3jlqAeq39zwZZueaifHp8fVpLvd9wVug3hIjUJeTrqmEiNEaVYzJq-u7zqzc5KTW1dGULBG63A4Gw/s1090/photo_2023-05-23_07-49-11.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="852" data-original-width="1090" height="313" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6_IxQ9uywCXPphNLUR9QLgNktEPidFqO1RyU--hyYWGhG5DE_HSymO6sx4Gqe8AQcIwIrM8zbzKMVExeHdszLZ9rhBV6tbrdN_xWyW3jlqAeq39zwZZueaifHp8fVpLvd9wVug3hIjUJeTrqmEiNEaVYzJq-u7zqzc5KTW1dGULBG63A4Gw/w400-h313/photo_2023-05-23_07-49-11.jpg" width="400" /></a></div><br /><b><br /></b><p></p><p><b>आ</b>पने बहुत जगह डॉल्बी एटमॉस का नाम सुना होगा. आम लोगों के मन में पहली बार यह शब्द तब अधिक दिलचस्पी जगा गया जब इस साल आईपीएल के लाइव टीवी स्ट्रीमिंग के लिए जियो सिनेमा ने घोषणा की कि वो&nbsp; प्रसारण सर्वथा नए और उन्नत तकनीक, 4 के वीडियो और डॉल्बी एटमॉस ऑडियो में करेगा. जब आप आईपीएल की स्ट्रीमिंग में विकल्प देखते हैं तो वहाँ ऑडियो के लिए स्टीरियो और डॉल्बी एटमॉस का विकल्प (यह विकल्प यदि आपका टीवी तथा स्ट्रीमिंग उपकरण अत्याधुनिक व संगत न हो तो उपलब्ध नहीं भी हो सकता है) पाते हैं. तो, लोग पूछते पाए गए – यह डॉल्बी एटमॉस आखिर है क्या बला? दरअसल, यह ऑडियो उपकरणों में ध्वनि उत्पन्न करने की एक नई तकनीक है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में ध्वनि उत्पन्न करने की पहली-पहल तकनीक थी – एक स्पीकर सिस्टम वाली मोनो ऑडियो. फिर आई दो स्पीकर सिस्टम वाली, बहु-प्रचलित स्टीरियो ऑडियो. उसके बाद आया बहु स्पीकर सिस्टम वाला मल्टीचैनल ऑडियो. और, अब आया है, कई कदम आगे – चहुँओर स्पीकर सिस्टम वाला डॉल्बी एटमॉस ऑडियो का जमाना.&nbsp;</p><p>बहुत संभव है कि किसी मल्टी स्क्रीन सिनेमा में किसी विशेष फ़िल्म में डीटीएस अथवा डॉल्बी एटमॉस ध्वनि को आपने महसूस भी किया होगा. डॉल्बी एटमॉस वह तकनीक है जिसमें ध्वनि हमारे चहुँओर से, 360 डिग्री में निकलती प्रतीत होती है. ठीक उसी तरह जैसे यदि आप बरसात में बाहर खड़े हों तो पानी गिरने की ध्वनि आपके चारों ओर से– यहाँ तक कि आपके सिर के ऊपर से भी आती प्रतीत होती है. आपने यह भी देखा होगा कि इसके लिए मूवी थिएटर में बहुत सारे स्पीकर लगाए गए होते हैं. कुछ सामने, कुछ दाएँ बाएँ, कुछ ऊपर और कुछ पीछे की ओर. तो, यदि आईपीएल को आप डॉल्बी एटमॉस में देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि गौतम गंभीर आपके पीछे से चिल्लाते हुए चले आ रहे हैं, और विराट कोहली सामने से आवाज लगा रहे हैं. कुछ समय पहले तक यह सुविधा बड़े सिनेमाघरों में ही, प्रीमियम कीमत में उपलब्ध थी, परंतु उन्नत तकनीक ने यह शानदार सुविधा हमारे घरों तक भी, बेहद वाजिब दामों में उपलब्ध करवा दी है. बस, थोड़ी सी अतिरिक्त जानकारी और सुविधा की जरूरत है.&nbsp;</p><p>नए जमाने के कुछ खास मोबाइल फ़ोनों, टीवी, साउंड बार तथा एवी साउंड सिस्टम के विज्ञापनों में भी इस नई तकनीक - डॉल्बी एटमॉस के बारे में बताया जाता है कि यह उन्नत तकनीक इसमें उपलब्ध है. परंतु केवल इस बात से कि यह तकनीक इनमें उपलब्ध है, आप झांसे में न आएँ. यदि आपको सचमुच डॉल्बी एटमॉस का अनुभव लेना है, तो आपके पास कुछ न्यूनतम आवश्यक चीजें होनी चाहिए. अन्यथा आपके लिए यह तकनीक केवल झुनझुना ही सिद्ध होगी.</p><p><b>मोबाइल फ़ोनों में डॉल्बी एटमॉस</b></p><p>आइए, पहले बात करते हैं मोबाइल फ़ोनों की. कुछ उन्नत व फ्लैगशिप मोबाइल फ़ोनों में डॉल्बी एटमॉस साउंड सिस्टम की सुविधा उपलब्ध है. मगर यह आपके लिए तब तक व्यर्थ है जब तक कि आपके पास डॉल्बी एटमॉस सुनाने वाला उन्नत ईयरफ़ोन – मसलन एपल ईयरपॉड 2 या ईयरपॉड प्रो या सोनी 360 रियल्टी ऑडियो वाले हेडफोन न हों. साथ ही गीत-संगीत भी डॉल्बी एटमॉस में उपलब्ध न हो. अभी वर्तमान में, भारत में केवल एपल म्यूजिक में, 99 रुपए की मासिक सब्सक्रिप्शन पर डॉल्बी एटमॉस में कुछ ही संगीत उपलब्ध हैं – जिनमें बॉलीवुड के थोड़े-बहुत संगीत भी शामिल हैं. बाकी का सारा संगीत केवल स्टीरियो में ही उपलब्ध है. तो यदि आप मोबाइल में गीत-संगीत डॉल्बी एटमॉस में सुनना चाहेंगे, तो निराशा ही हाथ लगेगी. हालांकि पुराने गीत-संगीत के संग्रह को अपस्केल कर डॉल्बी एटमॉस में परिवर्तित कर उपलब्ध कराया जा रहा है, और तमाम नए संगीत डॉल्बी एटमॉस की लोकप्रियता के कारण इस उन्नत फ़ॉर्मेट में भी जारी किए जा रहे हैं, फिर भी, हमारे उपयोग लायक गीत संगीत का संग्रह इस तकनीक में आने में समय लगेगा.&nbsp;</p><p>यहाँ पर आपके हार्डवेयर में संगतता भी जरूरी है. जैसे कि एपल के डॉल्बी एटमॉस (एपल इसे स्पेशिअल ऑडियो कहता है,) संगीत के लिए यदि आप एपल आईफ़ोन और एपल ईयरपॉड 2 उपयोग करते हैं तो ही आपको डॉल्बी एटमॉस संगीत बढ़िया और परिपूर्ण सुनाई देगा. इतना कि जब आप अपना सिर दाएँ-बाएँ घुमाएंगे तो इसके हेड ट्रैकिंग सिस्टम से बजता हुआ गीत संगीत भी इस तरह घूमेगा जैसे कि आप कंसर्ट के बीच खड़े होकर घूम रहे हों, मगर यदि कोई भी एक हार्डवेयर असंगत हुआ – जैसे कि&nbsp; आपने अपने एंड्रायड मोबाइल से एपल डॉल्बी एटमॉस संगीत चलाया तो अव्वल तो यह स्टीरियो मोड में चलेगा, ऊपर से हेड ट्रैकिंग जैसी सुविधा उपलब्ध भी नहीं होगी.&nbsp; यदि आप यूट्यूब म्यूजिक, गाना, जियो-सावन या स्पॉटीफ़ाई म्यूजिक सुनते हैं, तो डॉल्बी एटमॉस वैसे भी आपके लिए नहीं है, क्योंकि यह तकनीक उनमें अभी नहीं जुड़ी है.</p><p><b>टीवी और ऑडियो में डॉल्बी एटमॉस</b></p><p>ठीक यही बात टीवी और ऑडियो सिस्टम में लागू होती है, मगर यहाँ थोड़ा सा ध्यान रखें तो बात बन सकती है क्योंकि गीत-संगीत के उलट, सिनेमा और वीडियो में ढेरों सामग्री डॉल्बी एटमॉस ध्वनि की सुविधा युक्त उपलब्ध हैं, और, आईपीएल तो है ही, जिससे आप अपने घर को सिनेमा-घर की तरह उन्नत ध्वनि से सज़ा सकते हैं और स्टेडियम में होने जैसे एहसास से आईपीएल का मजा घर में ले सकते हैं. साथ ही, डॉल्बी एटमॉस समर्थित हार्डवेयरों की कमी नहीं है. परंतु, यहाँ भी आपको कुछ मूलभूत चीजें चाहिए ही होंगी -</p><p>1 – आधुनिक टीवी जिसमें डॉल्बी एटमॉस ध्वनि की सुविधा (ध्यान दीजिए – स्पीकर सिस्टम नहीं, बल्कि डॉल्बी एटमॉस को प्रोसेस करने की पॉवर) हो साथ ही / अथवा एक अतिरिक्त एचडीएमआई 2.1 की ऑडियो रिटर्न चैनल – ARC की सुविधा हो,</p><p>2 – आपके पास डॉल्बी एटमॉस ध्वनि समर्थित, एचडीएमआई 2.1 इनपुट सुविधा युक्त आधुनिक 5.1 ऑडियो सिस्टम हो.</p><p>3 – डॉल्बी एटमॉस कंटेंट के लिए प्रीमियम स्ट्रीमिंग डिवाइस व स्ट्रीमिंग सुविधा हो – जैसे कि नेटफ्लिक्स प्रीमियम. नेटफ्लिक्स बेसिक में यह सुविधा नहीं मिलती है, साथ ही सामान्य डीटीएच में आईपीएल देखेंगे तो वहाँ आपको डॉल्बी एटमॉस का विकल्प नहीं मिलेगा. डॉल्बी एटमॉस में आईपीएल देखने के लिए विशिष्ट डॉल्बी एटमॉस समर्थित स्ट्रीमिंग उपकरण चाहिए होंगे जैसे कि अमेजन फ़ायर टीवी मैक्स 4K अथवा अमेजन फ़ायर टीवी क्यूब या एप्पल टीवी 4K. डॉल्बी एटमॉस समर्थित टीवी सेटों के अंतर्निर्मित एंड्रायड टीवी में भी यह सुविधा मिल सकती है.</p><p>बहुत सारे नए टीवी सेट और साउंडबार अंतर्निर्मित डॉल्बी एटमॉस मल्टी-स्पीकर सिस्टम के साथ आ रहे हैं. इनमें तकनीक अंतर्निर्मित है, सुविधा भी समर्थित है, मगर वास्तविकता में नहीं. डॉल्बी एटमॉस – 360 डिग्री रियलिटी ऑडियो के सही अनुभव के लिए स्पीकर सिस्टम को आपके कमरे में चारों ओर, आगे पीछे और ऊपर नीचे व्यवस्थित होना ही चाहिए. बढ़िया स्थिति में 7.1 स्पीकर सिस्टम सही होता है जिसमें एक बीच का स्पीकर, दो सामने के दाएं-बाएं स्पीकर, दो पीछे के सराउंड स्पीकर, दो ऊपर स्थित स्पीकर और एक वूफर शामिल होता है. 5.1 स्पीकर सिस्टम भी चल सकता है जिसमें दो ऊपर के स्पीकर को हटा सकते हैं. इससे कम में वास्तविक डॉल्बी एटमॉस का अनुभव मिलना असंभव है – यह बात ध्यान में रखनी चाहिए. कुछ कंपनियाँ उन्नत सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल कर वर्चुअल ध्वनि प्रभाव पैदा कर आभासी डॉल्बी एटमॉस प्रस्तुत करने का दावा करती हैं, मगर एक तरह से वो खयाली पुलाव ही होता है. हाँ, इन सबके बीच, इन उपकरणों में सही सेटिंग भी जरूरी है.&nbsp;</p><p>तो, जरा चेक कीजिए कि आपकी टीवी और ऑडियो सिस्टम में डॉल्बी एटमॉस है या नहीं. यदि है तो सही तरीके से 7.1 या 5.1 स्पीकर सिस्टम से कनेक्टेड और सेट है या नहीं और यदि नहीं है तो क्या यह सही समय नहीं है अपने टीवी और ऑडियो सिस्टम को अपग्रेड करने का?</p><div><br /></div>रवि रतलामीhttp://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.com0