राजेश रंजन विगत कई वर्षों से हिन्दी कंप्यूटरीकरण के कार्य से जुड़े हुए हैं. वे अभी एक बहुदेशीय सॉफ्टवेयर कंपनी रेड हैट में बतौर लैंग्व...
राजेश रंजन विगत कई वर्षों से हिन्दी कंप्यूटरीकरण
के कार्य से जुड़े हुए हैं. वे अभी एक बहुदेशीय
सॉफ्टवेयर कंपनी रेड हैट में बतौर लैंग्वेज मेंटेनर हिन्दी
के रूप में कार्यरत हैं. वे कंप्यूटर स्थानीयकरण की कई
परियोजनाओं जैसे फेडोरा, गनोम, केडीई, ओपनऑफिस,
मोज़िला आदि से जुड़े हैं. साथ ही कंप्यूटर अनुवाद में
मानकीकरण के लिए चलाए गए एक महत्वाकांक्षी सामुदायिक
परियोजना फ़्यूल के समन्वयक भी हैं. इसके अलावे उन्होंने
मैथिली कंप्यूटिंग के कार्यों को भी अपनी देख-रेख में
मैथिली समुदाय के साथ पूरा किया है. वे प्रतिष्ठित मीडिया
समूह इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के जनसत्ता और लिटरेट
वर्ल्ड के साथ काम कर चुके हैं.हिन्दी पत्रकारिता में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली
से स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाने के पहले इन्होंने नेतरहाट विद्यालय,
साइंस कॉलेज, पटना और किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली जैसे
जाने-माने संस्थानों में अध्ययन किया है. भाषाई तकनीक, इंटरनेट,
कंप्यूटर पर इनके लेखादि लगातार प्रकाशित होते रहते हैं.इस ब्लॉग के सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है हिंदी कंप्यूटिंग और स्थानीयकरण पर लिखे उनके आलेखों की श्रृंखला का पहला भाग -
भूमिका या क़िस्सा ?
आपके हाथ में जो किताब शोभती है, वह दरअसल एक सामाजिक-सांस्कृतिक मुहिम का हिस्सा है, और जिसका अपना क़िस्सा है. कंप्यूटर और भाषा के बीच पनपते रिश्ते की यह कहानी जितनी दिलचस्प है, उतनी बड़ी भी, जिसे यहाँ कोताही से, मुख़्तसर में ही सुनाया जा सकता है. जिस हमारे समय की यह कहानी है वह दरअसल एक दशक से कुछ कम का ही होगा, लेकिन जिस बेतहाशा गति से हमने कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल के इस्तेमाल को अपनी ऐन नज़रोँ के आगे फैलते देखा है, एक दहाई साल हक़ीक़तन एक मुकम्मल युग लगता है.
जी हाँ, तब सदी करवट ले रही थी, हिन्दुस्तान और दिल्ली में कंप्यूटर की लोकप्रियता बढ़ रही थी, हमारे जैसे लोग इस मशीन के तिलिस्म से जितने मोहित थे, उतने ही परेशान भी. चीज़ तो बड़ी अच्छी बनाई है यार, पर क्या इसकी मादरी ज़बान अंग्रेज़ी ही है : क्या हम इससे और इस पर 'अपनी' ज़बानें नहीं पढ़-लिख पाएँगे कभी? तफ़्तीश की तो पता चला कि चीनी-जापानी आदि तो मज़े में चलती हैं, फिर भारतीय मूल की भाषाएँ क्योँ नहीं चल पातीं भला! टायपिंग के स्कूलोँ में टाइपराइटरोँ की जगह पर ये जो कंप्यूटर बिठा दिए गए हैं, उन पर क्या सिर्फ़ अंग्रेज़ी टंकण सीखा जाता है? नज़दीक जाने पर पता चला कि हाँ, ज़्यादातर काम तो अंग्रेज़ी का ही होता है, हिन्दी में अभी भी रेमिंग्टण जैसे टाइपराइटर ही चल रहे हैं. पर ये सूरत जल्द ही बदल गई और प्रकाशन के सॉफ़्टवेयरोँ के ज़रिए किताबें टंकित-संपादित-प्रकाशित होने लगीं. ये दीगर बात है कि आप एक फ़ॉन्ट को दूसरे में तब्दील नहीं कर पाते थे -- ये स्थिति प्रकाशन जगत में कमोबेश वैसी ही है. आम तौर पर भी, आज तक लोग फ़ॉन्ट को लेकर काफ़ी अनिश्चित और असहज बने हुए हैं, कुछ जानकारी के अभाव में, तो कुछ फ़ॉन्टोँ की अराजक दुकानदारियोँ के बदस्तूर चलते जाने के कारण.
बहरहाल, जब हमने विश्वव्यापी वेब पर हिन्दी सामग्री की खोज करने की कोशिश की तो पाया कि 'अभिव्यक्ति-अनुभूति' व 'हिन्दी नेस्ट' जैसे कुछ मुक़ाम तो हैं, लेकिन वहाँ एक अलग क़िस्म का फ़ॉन्ट चलता है, जिसे आप रोमन कीबोर्ड का ध्वन्यात्मक इस्तेमाल कर चला सकते हैं. हमारे जैसे लोग जो एक अलग तरह से टायपिंग नहीं सीखना चाहते थे, उनके लिए ये बड़ी अच्छी ख़बर थी. बस हमने डाउनलोड करके धड़ल्ले से 'शुषा' के ज़रिए न केवल लिखना शुरू किया बल्कि सराय वेबसाइट के हिन्दी पृष्ठ भी झुलाए, और जहाँ तक मुझे याद है इस किताब के लेखक राजेश रंजन जिस 'लिटरेट वर्ल्ड' नामक वेबसाइट के लिए काम करते थे, वह भी शुषा में ही चलती थी. लेकिन शुषा या उस ज़माने के दीगर फ़ॉन्टोँ के साथ अदलाबदली न कर पाने की जो दिक़्क़त थी, वह युनिकोड के आने से पहले दुरुस्त नहीं हो पाई. युनिकोड एक सर्वस्वीकृत सार्विक प्रणाली है, जिसमें हर लिपि की नुमाइंदगी की गुंजाइश थी, जगह थी, इससे ऐस्की तंत्र में किसी तरह जुगाड़ से जगह बनाकर अब तक काम चलाने वाली एशियाई लिपियोँ का बड़ा भला हुआ. अब लोग अपने कंप्यूटर में फ़ॉन्टोँ के आर-पार और इटरनेट के मुख़्तलिफ़ साइटोँ का निर्बाध विचरण करने लगे बिल्कुल वैसे ही जैसे अंग्रेज़ी बरतने वाले करते थे. इसी युनिकोड के बल पर भारतीय भाषायी वेब जगत में क्रांतिकारी बदलाव आया, अगर कोई सुबूत चाहिए तो हिन्दी चिट्ठोँ के लगातार बढ़ते पृष्ठोँ के आँकड़े देख लीजिए. लेकिन ये बड़ी क्रांति दरअसल छोटी-छोटी कोशिशोँ का नतीजा थी, और हर सफल कोशिश हमें रोमांचित और उत्साहित छोड़ जाती थी. हम अब वेब पर ही शब्दकोश भी देख लेते हैं, कहानियाँ पढ़ लेते हैं, रेडियो चलाते हैं, और वीडियो भी, और इन सब चीज़ोँ की मौजूदगी को हम मान कर चलते हैं: अमूमन हवा-पानी की तरह. लेकिन हमें वे सारे दिन याद हैं जब हमने पहला चैट हिन्दी में किया था, पहली साइट देखी या बनाई थी, या पहला डिस्कशन लिस्ट चलते देखा था, या ख़ुद चलाया था - ये सब एक चमत्कार से कम नहीं लगता था. आज भी ये सोचकर अच्छा लगता है कि हिन्दी विन्डोज़ आने के पहले ही हिन्दी लिनक्स आ चुका था. यानी भाषा की क़समें खाने वाली सरकार और मुनाफ़े को देखने वाले बाज़ार से पहले ही एक छोटे-से समुदाय ने वह सब कर दिखाया था, जिसकी उम्मीद उसको ख़ुद से नहीं थी!
मज़े की बात यह हुई थी कि समान मसलोँ से जूझते हुए लोगोँ की एक टोली-सी बन चली थी, जिसे हम पहले इंडिक कंप्यटिंग ग्रुप कहते थे, और बाद में जाकर वह इंडलिनक्स के नाम से जानी जाने लगी. इस टोली में अगर कोई तमिल भाषी है ओर उसे ख़ास तकनीकी मसले का समाधान पता है तो वह हमारी मदद कर देता था, कोई अमेरिकी विश्वविद्यालय में बैठा इंसान कभी कोई कुंजीपट दे देता था, या कोई लिप्यंतरण का औज़ार, तो एक तो हमारा फ़ौरी मसला हल हो जाता था, दूसरे इससे वेब के सहकारी अंतर्राष्ट्रीय स्वभाव का पता चलता था. वैसे हिन्दुस्तान के अंदर भी हम एक-दूसरे से बहुत आगे चलकर मिले, हमारा काम इंटरनेट के माध्यम से ही होता था. हम एक-दूसरे से लगातार सीखते थे: हमें भाषा आती है तो वो बता देँगे, किसी को टेक्नॉलजी आती है तो वो उसी का ज्ञान देगा, या करके दिखाएगा, अगर दूर से काम न चले तो फिर कार्यशाला आयोजित की जाती थी. ये एक स्वयंसेवी क़िस्म का काम था, जिसमें कुछ व्यक्तियोँ, संस्थाओं और कंपनियोँ ने अहम भूमिकाएँ निभाईं, और अब भी निभा रही हैं.
वह टोली अब भी है, काम अब भी चल रहा है. कुछ पुराने लोग छूट गए हैं तो नए आ जुड़े हैं: अगर आप अपनी ज्ञान प्रणाली को मुक्त रखते हैं तो कोई न कोई ऐसा निकल ही आता है, जो पिछले काम को आगे ले जाता है, या नए इलाक़ोँ में ले जाता है. कंप्यूटर के स्थानीयकरण में भी ऐसा ही हो रहा है. हम ये काम मालिकाना हक़ वाले सॉफ़्टवेयर को लेकर नहीं कर सकते थे, क्योँकि उसके कोड न तो मुफ़्त थे, न ही मुक्त, जबकि लिनक्स आधारित हमारे कोड ग्नोम, केडीई, उबंटू, फ़ेडोरा, डेबियन फ़ायरफ़ॉक्स, गिम्प या वीएलसी मीडिया प्लेयर की शक्ल में हमारे खेलने के लिए मौजूद थे. हम उनको जैसे चाहें, उलट-पुलट, खोल-खाल, अदल-बदल कर सकते थे. इसी आज़ादी के बल पर आज ये ऑपरेटिंग सिस्टम ऐसी नई भाषाओं में उपलब्ध हो रहे हैं, उन्नीसवीँ सदी से शुरू हुई जो आधुनिकता की दौड़ में हारकर बड़ी भाषाओं की उपभाषाएँ या बोलियाँ (छत्तीसगढ़ी, मैथिली, कश्मीरी) क़रार दी जा चुकी थीं. हम ये मानते हैं कि वैश्वीकरण का यह उत्तर-राष्ट्रवादी युग छोटी, स्थानीय भाषाओँ की अहमियत की वापसी का युग है. हम जानते हैं कि ऐसी भाषाओं को बाज़ार, या फिर सरकार ज़्यादा बढ़ावा नहीं देगी. लेकिन इनके पास परमुखापेक्षी होकर इनको कोसने के अलावा भी एक ख़ुदमुख़्तार, रचनात्मक विकल्प हैं.
राजेश रंजन ने आलेखों की यह श्रृंखला उसी ख़ुदमुख़्तारी का रास्ता आसान करने के लिए लिखी है. इंटरनेट से जुड़ा कंप्यूटर एक अनोखा संचार-माध्यम है, अभूतपूर्व भी, क्योँकि इस एक माध्यम में अब तक के सारे माध्यमोँ का संगम तो है ही, इसमें वह आज़ादी भी हासिल है जो पुराने माध्यमोँ में नहीं थी. यहाँ आप मीडिया के निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं हैँ, बल्कि ख़ुद सामग्री के सक्रिय उत्पादक और वितरक भी. और यहाँ पुराने ढर्रे की विशेषज्ञता न तो काम आती है, न ही उसका कोई बना-बनाया मानक है.
तो आइए इस तजुर्बे से सीखें, इसे करें, और कंप्यूटर को जन-जन तक, उनकी अपनी ज़बान में ले जाएँ. जहाँ दिक़्क़त पेश आए वहाँ पूछें. हमें तो अब तक बड़ा मज़ा आया है, उम्मीद है आपको भी आएगा.
रविकान्त
सीएसडीएस/सराय
दिल्ली
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त्वदीयं वस्तु...
आलेखों की यह श्रृंखला यह बताने की कोशिश करेगी कि कंप्यूटर को अपनी भाषा में करने के लिए किसी बड़ी कंपनी या सरकारी प्रयास की ज़रूरत नहीं है. यह आप भी कर सकते हैं, आपमें से कोई भी. बस ज़रूरत है भाषा के प्रति अपने प्रेम को एक उचित दिशा निर्देश की. फिर देखिए कि कैसे एक बड़ा काम आप अपने कुछ मित्रों के साथ चुटकी बजाते, हँसते-खेलते कर सकते हैं. बस, कुछ मौलिक जानकारी चाहिए कि कैसे आप इसे और आगे बढ़ा सकते हैं. ऐसा नहीं कि आपको सबकुछ पहली बार शुरू करना होगा, दुनिया की पचासों भाषाएँ अपने कुछेक लोगों के कारण अपनी भाषा में कंप्यूटर को देखने के सपने को साकार कर चुकी हैं. इसलिए मुश्किल कुछ भी नहीं है... सिर्फ़ इस किताब के साथ चलते जाइए.
हमारी पहली मुश्किल अपनी जानकारी के कारण है. और इसमें भी आपका दोष नहीं है क्योंकि ऐसी जानकारियाँ दी भी कम गई हैं. सबसे पहले हमें इस भ्रम से उबरना होगा कि कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर की बात करें तो माइक्रोसाफ्ट ही एकमात्र दुनिया है और विंडोज़ ही सारी खिड़कियाँ खोलती हैं. ज़ाहिर है दुनिया एकाधिकार पसंद नहीं करती है और विकल्प चाहती है. विंडोज के एक्सपी, विस्टा जैसे माइक्रोसॉफ़्ट के उत्पादों के बरक्स एक शक्तिशाली व समुदाय-समर्थित दुनिया है - मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर की दुनिया. एक बड़ी, व्यापक और ज़्यादा भरोसेमंद दुनिया जो आपके लिए खिड़कियाँ ही नहीं खोलती बल्कि पूरा का पूरा दरवाज़ा खोलकर आपको गले से लगाती है, और कहती है कि आइए और हमारे साथ आप दुनिया को तकनीक के लोकतांत्रिक स्वरूप की ओर ले चलिए, जहाँ तकनीक एक ख़ास कंपनी की बपौती न हो...यानी जहाँ ज्ञान दीवार विहीन हो...ज्ञान मुक्त हो.
तो फिर बात है कि हम क्यों अपनी भाषा में कंप्यूटर को लाने के लिए आगे बढ़ें. सवाल जायज़ है! कई लोगों को यह सवाल आरंभ में सूझता है कि आख़िर क्यों मैं ही आगे जाऊँ...क्या ये काम माइक्रोसॉफ़्ट सरीखी कंपनियाँ नहीं कर सकती हैं. कर सकती हैं लेकिन स्वामित्ववादी कंपनियाँ अपने केंद्र में लाभ को रखती हैं और ज़ाहिर है अगर आप उसकी पूंजी में इज़ाफ़ा नहीं कर सकते हैं... तो आप बेकार हैं, आपकी भाषा फ़ालतू है. यही नहीं भारत जैसे औपनिवेशिक विरासत वाले देश में जहाँ अंग्रेज़ी आम भारतीय के लिए अनिवार्य सर दर्द बनकर साथ चल रही है, वहाँ वे कंपनियाँ यह भी सोचती हैं कि आख़िर भारत में ज़रूरत क्या है अपने सामान को हर किसी भाषाओं में परोसने की. ज़्यादा से ज़्यादा हम हिन्दी में दे देंगे. उन्हें खाना पूर्ति के लिए भाषा चाहिए, पर आपके और हमारे लिए भाषा हमारी साँसें हैं, हमारी ज़िंदगी है. इसलिए कंप्यूटर उत्पाद का कोई निर्माता अगर स्थानीय भाषा में कंप्यूटर लाने की मशक़्कत भी करता है तो हिन्दी और दो-एक महत्वपूर्ण भाषाओं में. हिन्दी इसलिए चूँकि इसका बाज़ार विशाल है.
लेकिन शेष भाषाएँ तकनीक की भागम-भाग में पीछे छूटती जा रही है. पन्नों के स्थान वेब पेज ले रहें हैं. किताबों का स्थान ई-पुस्तकें ले रही हैं. कहीं तकनीक-सबल भाषाएँ कमज़ोर भाषाओं को लील न ले. चिंता और चिंतन दोनों ज़रूरी है कि कैसे इससे बचा जाए. हम बचा सकते हैं अपनी भाषा को इस आभासी व मायावी दुनिया में खोने से. हमारी उम्मीद है कि यह पुस्तक बतौर गाइड आपको अपने उस सपने को साकार करने में मदद करेगी कि अपने कंप्यूटर को आप अपनी भाषा में देख पाएँ चाहे वो भाषा अवधी, ब्रज, संथाली, मगही, या फिर कुछ चंद लोगों के बीच बतियाने के लिए ही क्यों न प्रयुक्त होती हो.
मेरा मानना है कि मुक्त स्रोत से जुड़ा प्रयास बचे हुए बैबेल की मीनार को पूरा करने के काम जैसा है. बाइबिल में वर्णित एक कथा के मुताबिक़ पहले इतनी भाषाएँ नहीं थीं. सिर्फ़ एक भाषा थी जिसमें लोग अपनी भावना, पीड़ा, दुख-सुख, मौज-मस्ती बाँटते थे. वही एक भाषा ज्ञान की भाषा थी, वही विज्ञान की भाषा थी. भाषा एक, मानवता एक. समग्र मानवता ने एक बार सोचा कि क्यों न ऐसी मीनार बनाई जाए जो स्वर्ग तक जा सके ताकि स्वर्ग की हक़ीक़त सामने आ सके. ताकि अंतिम सत्य पाया जा सके. लेकिन ईश्वर को यह कहाँ मंज़ूर था. यह तो ईश्वर की सत्ता को खुली चुनौती थी. उन्होंने सोचा कि सबसे बढ़िया तरीक़ा है कि सबों की भाषाएँ अलग-अलग कर दी जाएँ...और फिर सबों की भाषाएँ अलग-अलग हो गईं. एक ऐसी दुनिया रच दी ईश्वर ने जिसमें कोई किसी की भाषा नहीं समझता था...मीनार वहीं रुक गई. स्वर्ग तक पहुँचा न जा सका. जिह्वा-भ्रम की वह स्थिति आज भी ज्ञान के विकेंद्रीकरण के बीच बड़ी दीवार बनकर खड़ी है. ख़ासकर कंप्यूटर व आईटी जैसे क्षेत्रों में यह बड़ी रुकावट है. शासन व शोषण की भाषा अंग्रेज़ी में कंप्यूटर आम आदमी की समझ से बाहर है...वैसे में ओपन सोर्स एक रास्ता दिखाती है जिस पर हर कोई आ-जा सकता है. वहाँ हर भाषा समान है चाहे वह करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाती हो, या गिनती के चंद लोगों के द्वारा. ग़ौरतलब है कि मुक्त स्रोत ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ के बजाय ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ का पक्ष रखता है. तभी तो इसके द्वारा पंजीकृत भाषाओं की सूची में सिर्फ़ पाँच-दस रणनीतिक रूप से सबल भाषाएँ नहीं दिखतीं, बल्कि क़रीब सौ भाषाएँ दिखाई देती हैं, जिस पर काम करने के लिए कोई स्वामित्ववादी कंपनी सोच भी नहीं सकती हैं.
तो फिर देर किस बात की है...आइए और मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर के क़दम से क़दम मिलाकर अपनी भाषा को संचार और सूचना प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ दीजिए. साथ में दो एक मित्र और हों तो क्या कहने! लेकिन कुंजीपट पर इस काम के लिए अपनी अंगुलियों को आज़माने के पहले हम उन छोटी-मोटी बातों से परिचय कर लें, जिसकी ज़रूरत आपको आगे हो सकती है. इस किताब में आप गनोम, केडीई, फ़ायरफ़ॉक्स, थंडरबर्ड, ओपनऑफ़िस, पिजिन, फ़ेडोरा आदि के बारे में पढ़ेंगे, क्योंकि यही आपके कंप्यूटर को स्थानीयकृत यानी आपकी भाषा में आपके कंप्यूटर को गढ़ने में आपकी मदद करेंगे. इन्हीं डेस्कटॉपों पर, इन्हीं सॉफ़्टवेयरों के ज़रिए ही आपका कंप्यूटर आपकी भाषा में तैयार होगा. हो सकता है कि आपने वर्षों से कंप्यूटर उपयोक्ता होते हुए भी ये शब्द पहले नहीं सुने हों. फिर भी घबराएँ नहीं. आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं है परंतु बचाने के लिए आपकी भाषा है जो आपकी राह देख रही है. और शायद आनेवाली पीढ़ियों की दुआएँ भी – जो ये कहते हुए थोड़ा फ़ख़्र महसूस कर सकें कि जब कंप्यूटर के ज़रिए पूरी दुनिया बदलती जा रही थी तो हमारे सारे पूर्वज सो नहीं रहे थे!
इन आलेखों को लिखे जाने के पीछे कुछ प्रेरणाएँ रही हैं तो कुछ तजुर्बे भी . इसमें ख़ासकर सराय-सीएसडीएस के रविकांत जी का नाम सबसे महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय है जिन्होंने रेड हैट की ओर जाने का रास्ता मुझे सुझाया और हिंदी के काम के लिए मेरा नाम रेड हैट के सतीश मोहन को सुझाया था. तबसे लेकर आजतक उनका सहयोग न केवल मुझे बल्कि पूरी फ़्लॉस समुदाय को बेहद ईमानदारी से मिलता रहा है. इस किताब की प्रस्तावना भी उन्होंने ही लिखी है. मैं एक ठेठ हिन्दी पत्रकार हुआ करता था जो निश्चित रूप से तकनीक की एक अच्छी-ख़ासी अलग दुनिया और उसके सरोकार से वंचित रह जाता अगर यह बेहतरीन संयोग मुझे नहीं मिलता. पुनः सतीश मोहन का भी आभार क्योंकि उन्होंने ही मेरा इंटरव्यू लिया था मुझ जैसे शुद्ध पत्रकार को प्रौद्योगिकी की दुनिया के लायक़ समझा था.
मेरी मित्र जया यहाँ विशेष ज़िक्र की हकदार हैं, जिनकी मित्रता की बदौलत मैं तकनीक केंद्रित लिनक्स की दुनिया की सिरमौर कंपनी में काम करते रहने का धैर्य न खो सका. अमन और अंकित – मेरे ये दो मित्र भी काफ़ी महत्वपूर्ण रहे और मैंने लिनक्स में लोकलाइज़ेशन की वर्णमाला का क ख ग इन्हीं लोगों से सीखा है. सैरा और मिशेल - ये दो नाम भी रेड हैट प्रवास में हमारे लिए काफ़ी महत्वपूर्ण रहे हैं और इन्होंने लगातार मेरी हौसलाअफ़्ज़ाई की.
रेड हैट से बाहर झाँकें तो लोकलाइज़ेशन के क्षेत्र में शुरुआत से रविशंकर श्रीवास्तव, गुंटुपल्ली करुणाकर, और गोरा मोहंती ने विभिन्न क्षेत्रों में आदर्श के रूप में मुझे प्रेरित किया और मुझे कई तरह से समर्थन दिया है. ये भारतीय लोकलाइज़ेशन परिदृश्य के अगुआ लोग हैं और इन्होंने इंडिक कंप्यूटिंग के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिससे न केवल मैं, बल्कि लिनक्स और लिनक्सेतर समुदाय कई रूपों में लाभान्वित हुआ है.
राजेश रंजन
पुणे, महाराष्ट्र.
1. पृष्ठभूमि: मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर व स्थानीयकरण
मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर के उपयोक्ताओं की पहुँच सॉफ़्टवेयर के सोर्स कोड में होती है. यही मूल बात है जो इसे सांपत्तिक स्वामित्ववादी सॉफ़्टवेयर से अलग करती है. इसके अंतर्गत किसी उपयोक्ता को किसी भी अनुप्रयोग के विकास चक्र में भाग लेने, इसे बदलने व इसमें किसी प्रकार के सुधार कर फिर स्वयं वितरित करने का अधिकार भी होता है. इसमें कोई शक नहीं कि आज फ़्री व ओपन सोर्स सॉफ़्टवेयर अपनी नितांत गुमनामी के दौर से निकल कर एक सशक्त पहचान तकनीक के इस नए दौर में बना चुकी है और सभी इसकी मौजूदगी को गंभीरता से लेने लगे हैं. लेकिन अभी भी सॉफ़्टवेयर की मुक्ति का यह दर्शन कई बार लोगों की समझ में नहीं आता है और लोग इसके विभिन्न उलझावों में फँस जाते हैं.
“Briefly, OSS/FS programs are programs whose licenses give users the freedom to run the program for any purpose, to study and modify the program, and to redistribute copies of either the original or modified program (without having to pay royalties to previous developers).”
David Wheeler
इस प्रकार के सॉफ़्टवेयर से जुड़े दो मुख्य प्रकार के दर्शन मौजूद हैं, एक है फ़्री सॉफ़्टवेयर और दूसरा है ओपन सोर्स यानी मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर. ये दोनों उपयोक्ताओं को भिन्न प्रकार की छूट देते हैं और यही छूट का स्तर दोनों में अंतर का कारण बनता है.
फ़्री सॉफ़्टवेयर
फ़्री सॉफ़्टवेयर फ़ाउंडेशन (FSF) के अनुसार, फ़्री सॉफ़्टवेयर वस्तुतः उपयोक्ताओं की चार प्रकार की स्वतंत्रताओं की रक्षा करता है:
· किसी उद्देश्य के लिए प्रोग्राम को चलाने की स्वतंत्रता;
· अध्ययन की आज़ादी कि प्रोग्राम कैसे काम करता है और इसे किसी भी आदमी की ज़रूरत के मुताबिक़ कैसे फेरबदल किया जा सकता है. स्रोत कोड में पहुँच इसकी पहली पूर्वनिर्धारित शर्त है;
· इसकी कॉपियों को फिर बाँटने की आज़ादी ताकि आप अपने पड़ोसियों की मदद कर सकें; और
· किसी भी प्रोग्राम को बेहतर बनाने और उसे सार्वजनिक रूप से रिलीज़ करने की आज़ादी, ताकि पूरा समुदाय लाभ पा सके. इस स्रोत कोड में पुनः पहुँच दिया जाना इसके लिए पूर्वशर्त है.
मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर
वास्तव में मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर का सारा विकास दीये से दीया जलाने के सिद्धांत पर खड़ा है. पहले भी लोग अपनी जानकारी को अपने सहपाठी, अपने दोस्तों आदि से साझा करते रहे हैं. पहले विश्वविद्यालयों या शोध संस्थानों में यदि किसी व्यक्ति को कोई अच्छा विचार आता था, जो समाज व तकनीक के लिए फ़ायदेमंद हो तो उसे वे अपने मित्रों के बीच में साझा करते थे. पसंद आने पर और भी लोग उससे जुड़ते और वह काम आगे बढ़ने लगता था. मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयर का विकास इसी विधि से होना शुरू हुआ और इंटरनेट व सूचना क्रांति के युग ने तो इसके प्रसार में व्यापक विस्तार किया. कोई भी व्यक्ति जो भाग लेना चाहे वह इंटरनेट के माध्यम से जुड़ सकता है.
किसी भी मुक्त स्रोत परियोजना के लिए कुछ मुख्य डेवलेपर अथवा मेन्टेनर होते हैं तथा कुछ जुड़े डेवलपरों का आधार होता है. डेवलपर की संख्या परियोजना की प्रकृति व कार्य-कलाप पर निर्भर करती है. कुछ परियोजनाएँ होती हैं जिनमें हज़ारों डेवलेपर दुनिया भर से जुड़े होते हैं और कुछ परियोजनाओं में पाँच-छह लोग भी हो सकते हैं. परियोजना का इंटरनेट पर अपना एक स्थान होता है जहाँ स्रोत कोड, दस्तावेज़ीकरण आदि को रखा जाता है. हर परियोजना का अपना मानक होता है. जो भी कोई इसमें भाग लेना चाहता है उसे इसका पालन करना पड़ता है.
ओपन सोर्स के पीछे मूल बात काफ़ी सरल है. जब प्रोग्रामर किसी सॉफ़्टवेयर को स्रोत कोड को पढ़, बदल व फिर बाँट सकता है तो यह सॉफ़्टवेयर विकसित होता है. लोग ही इसे बनाते हैं, लोग ही इसे अपनी पसंद के अनुसार बदलते हैं, इनके दोषों यानी ‘बग’ को सुधारते हैं. चूँकि यह बड़े जनसमुदाय के बीच होता है तो इसके आगे बढ़ने की गति काफ़ी अधिक होती है. ऐसा कहा जाता है कि ओपन सोर्स फ़्री सॉफ़्टवेयर के बनिस्बत अंतर्निहित नैतिक मूल्यों में न उलझकर सॉफ़्टवेयर को ज़्यादा से ज़्यादा ताक़तवर व बिजनेस के लिहाज से समर्थ बनाने में लगी होती है. लेकिन दोनों में ऐसा कोई बड़ा अंतर नहीं है. रिचर्ड स्टालमैन की बातें उधार लें तो यह कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा कि फ़्री सॉफ़्टवेयर आंदोलन व ओपन सोर्स आंदोलन एक समान समुदाय की दो राजनीतिक पार्टियाँ हैं. लेकिन फ़्री सॉफ़्टवेयर, जहाँ फ़्री का मतलब स्वतंत्रता से ज़्यादा है न कि मुफ्त होने से, ग़ैर-फ़्री सॉफ़्टवेयरों को अनैतिक मानती है.
फॉस (FOSS) डेवलेपमेंट विधि वास्तव में खुलेपन पर आधारित होती है जहाँ आरंभ में कुछ प्रोग्रामर मिलकर कोई भी लोकोपयोगी सॉफ़्टवेयर बनाना शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे इसमें कई और लोग दुनिया भर से जुड़ते जाते हैं और उक्त विकास दौर से गुजर रहे सॉफ़्टवेयरों को अपने ज्ञान का लाभ देते हैं. लोगों का यह समूह जो इनके बीच समुदाय (कम्युनिटी) कहलाता है बड़े से बड़ा ऑपरेटिंग सिस्टम तक मिलकर तैयार कर लेते हैं. यह परंपरागत सॉफ़्टवेयर विकास तकनीक से बिल्कुल भिन्न होती है जहाँ एक बंद कमरे में कुछ प्रोग्रामर बहुत अधिक योजना व प्रबंधन के साथ सॉफ़्टवेयर बनाते हैं और उसकी विधिवत जाँच-पड़ताल करके उसे लोगों के बीच रिलीज़ किया जाता है. प्रायः ऐसे सॉफ़्टवेयर को आप न तो बदल सकते हैं और न ही इसे वितरित कर सकते हैं, स्रोत कोड में पहुँच की अनुमति तो नहीं ही होती है. फॉस विधि से काम के कई फायदें हैं: एक ही चीज के लिए कई बार प्रयास को बेकार होने से बचाता है, दूसरे कार्यों के आधार पर आगे कार्य बढ़ते हैं, गुणवत्ता नियंत्रण बेहतर होने की संभावना रहती है, कमतर देखभाल लागत बनी रहती है.
इन्हीं फॉस विधि से भारी-भरकम ऑपरेटिंग सिस्टम भी तैयार कर लिया जाता है और लोगों को उपलब्ध कराया जाता है. ख़ासकर इंटरनेट के आगमन ने फॉस विधि को काफ़ी जोर से आगे बढ़ाया है और इसके साथ दुनियाभर के लाखों-लाख लोग रात-दिन लगे रहते हैं. 1991 में लिनस टोरवाल्ड्स के युनिक्स की तरह के एक कर्नेल के विकास व उसे वितरित करने से फॉस विकास कार्यों में व्यापक गति आई और इसे बड़े पैमाने पर वितरित व सुधार किये गये और कुछ ही समय में यह GNU/लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम का केंद्रीय हिस्सा हो गया. इस पर कई ऑपरेटिंग सिस्टम विकसित हुए.
वैश्वीकरण व उदारीकरण ने कंप्यूटर को अंग्रेज़ी के अलावे दूसरी अन्य भाषाओं में उपलब्ध कराने की आवश्यकता को महत्वपूर्ण रूप से उभारा. जहाँ सांपत्तिक कंपनियों के लिए वही भाषाएँ महत्वपूर्ण थीं जो उन्हें आर्थिक फायदे दिला सकती थी वहीं समुदाय की ताक़त से बनने वाली ये प्रणालियाँ ऐसे किसी विभेद से मुक्त रही. एक पूरी की पूरी कंप्यूटर प्रणाली कई चीजों से मिलकर बनी होती है...मसलन डेस्कटॉप वातावरण, ब्रॉउज़र, ईमेल क्लाइंट, ऑफ़िस सूट आदि. फॉस की दुनिया में इनके लिए पसंदों की लंबी सूची है जहाँ से आप मनमाफिक सॉफ़्टवेयर बदल सकते हैं. आप अपने मन मुताबिक़ चुनिए...अपनी पसंद के अनुसार बदलना चाहते हैं तो बदलिये...और लोगों को बाँटने के लिए तो आप आजाद हैं ही. आपकी भाषा में कंप्यूटर मौजूद नहीं है...परेशान न हों - आइए हम एक ख़ुद के लिए तैयार करेंगे - मिल-जुलकर!
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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सच में, जिस तरह से हमने हिन्दी में लिखने पढ़ने का क्रम बनाया है, वह किसी रोमांचक कहानी से कम नहीं है। पढ़ने में आनन्द आ रहा है, आगामी कड़ियों की प्रतीक्षा है।
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