किसी ने कहा है कि आप मुझे किताबें दे दीजिए और बियाबान जंगल में छोड़ दीजिए. मैं ताजिंदगी तब तक कभी बोर नहीं होउंगा, जब तक कि मेरे पास पढ...
किसी ने कहा है कि आप मुझे किताबें दे दीजिए और बियाबान जंगल में छोड़ दीजिए. मैं ताजिंदगी तब तक कभी बोर नहीं होउंगा, जब तक कि मेरे पास पढ़ने के लिए किताबें रहेंगी. इंटरनेट युग में आपका पीसी, लेपटॉप और मोबाइल उपकरण इस जरूरत को पूरी करने में कुछ हद तक सक्षम तो है, परंतु वे भौतिक पुस्तकों का स्थान कभी ले पाएंगे अभी इसमें संदेह है.
भोपाल आते ही मेरे सबसे पहले के कार्यों में शामिल था पुस्तकालयों को तलाशना. मुझे यहाँ के पुराने, प्रसिद्ध सेंट्रल लाइब्रेरी के बारे में बताया गया. सेंट्रल लाइब्रेरी यहाँ के भीड़ भरे इलाके पुराना भोपाल, इतवारिया के पास है. पूछते पाछते वहाँ पहुँचा तो पाया कि सेंट्रल लाइब्रेरी का सामने का गेट रोड से दिखाई ही नहीं देता. लोहे का गेट जर्जर होकर जमीन में धंस गया है. एक पतली सी पगडंडी इमारत तक जा रही थी. अंदर पहुँचे तो जर्जर होती इमारत में पूरा पुस्तकालय उतने ही जर्जर हालत में मिला. पुस्तकालय के कार्यालयीन समय 3 बजे दोपहर (कार्यालयीन समय सुबह 11 से 5, रविवार एवं अन्य शासकीय अवकाश पर बन्द) के समय वहाँ कोई पाठक नहीं था. वहाँ मौजूद कुल जमा तीन स्टाफ में दो आपस में बातें करते बैठे थे व तीसरा अपनी कुरसी पर पैर फैलाए ऊंघ रहा था. सदस्यता बाबत पूछताछ की गई तो पता चला कि आपको अपनी आइडेंटिटी प्रूफ (?) बतानी होगी और 750 रुपए जमा करने होंगे जिसमें 500 रुपए डिपाजिट के रहेंगे और 250 रुपए सालाना सदस्यता शुल्क. सदस्य कोई 2 किताबें 500 रुपए मूल्य तक की ले जा सकता है.
इस पुस्तकालय का हिसाब किताब यानी इसके संकलन व इसकी सेवा मुझे कुछ जमी नहीं और मैंने दूसरे विकल्पों को तलाशा. पॉलिटेक्नीक चौराहे पर हिन्दी भवन में पंडित मोतीलाल नेहरू शासकीय पुस्तकालय के बारे में पता चला. वहां सदस्यता के लिए 550 रुपए देने होते हैं, कोई आइडेंटिटी प्रूफ आवश्यक नहीं है. 500 रुपए डिपाजिट के, 50 रुपए वार्षिक शुल्क जिसके एवज में 250 रुपए मूल्य की चाहे जितनी किताबें आप जारी करवा सकते हैं. संकलन में अधिकतर किताबें जर्जर हालत में रखी हुई व पुरानी दिखाई दे रही थीं. हाँ, हिन्दी व कुछ अंग्रेजी की पत्रिकाएँ भी थीं जिन्हें सदस्य जारी करवा सकते हैं. इसका कार्यालयीन समय सुबह 9.30 से शाम 6 बजे तक है. रविवार व अन्य शासकीय छुट्टियों में बंद. जब मैं वहाँ बारह बजे पहुंचा तो इस लाइब्रेरी में सिर्फ दो पाठक थे. वे रोजगार और निर्माण के पुराने अंकों को पढ़ रहे थे.
इस बीच किसी ने मुझे सुझाव दिया कि भोपाल की ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी क्यों नहीं देखते. इस लाइब्रेरी के बारे में पड़ताल किया तो पता चला कि इसका नया नामकरण विवेकानंद पुस्तकालय हो गया है और अब यह मप्र सरकार के अधीन है. न्यू मार्केट स्थित इस पुस्तकालय में पहुँचा तो उसके चकाचक कांच के गेट पर कड़क ड्रेस पहने दरबान ने सैल्यूट ठोंका और मेरे लिए दरवाजा खोला. मुझे लगा कि मैं किसी होटल में तो नहीं आ गया हूं. मैंने उससे दोबारा तसदीक की कि क्या मैं विवेकानंद लाइब्रेरी में ही हूं?
सामने रिसेप्शन पर कम्प्यूटरों पर दो व्यक्ति बैठे थे. इस लाइब्रेरी का सारा कार्य कम्प्यूटरों से होता है और आप किताबों को वहां रखे कम्प्यूटरों से सर्च भी कर सकते हैं. उनमें से एक से सदस्यता संबंधी पूछताछ करने पर उसने मेरे सामने एक शानदार ब्रोशर प्रस्तुत किया. उसमें सदस्यता के विविध विकल्प दिए हुए थे. उदाहरण के लिए, पारिवारिक सदस्यता में आपको 2300 रुपए वार्षिक जमा करवाने होते हैं और (कोई डिपाजिट नहीं,) आप एक बार में निम्न सामग्री जारी करवा सकते हैं –
- बच्चों की 5 किताबें
- 2 सीडी
- 4 सामान्य किताबें
- 2 आडियो
- 2 पत्रिका
- 2 डीवीडी
- असीमित इंटरनेट का प्रयोग – मूल्यों का कोई बंधन नहीं
इस पुस्तकालय में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रायः सभी तरह की नई पुरानी किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ, समाचार पत्र इत्यादि सभी उपलब्ध हैं. पुस्तकालय पूरी तरह एयरकंडीशंड है, व इसे पूरा कारपोरेट लुक दिया गया है. बीच में बच्चों का खंड है जहाँ उनसे संबंधित किताबें हैं जिन्हें इस तरह से जमाया गया है जिसे देख कर ही बड़ों के भी बचपन के दिनों के लौट आने का अहसास होता है. पुस्तकालय में अच्छी खासी चहल पहल थी. इसका कार्यालयीन समय सुबह 11 बजे से शाम 7 बजे तक है व रविवार को खुला रहता है व सोमवार को बन्द रहता है. समय समय पर यहाँ सेमिनार इत्यादि होते रहते हैं तथा यहाँ शिक्षा व नौकरी से संबंधित एक अलग खंड भी है. इसका जालस्थल भी है http://svl.nic.in
अब आपसे इनमें से किसी एक पुस्तकालय की सदस्यता लेने को कहा जाए तो आप किसकी सदस्यता लेंगे?
मगर ठहरिये. एक समस्या है. कारपोरेट लुक वाली, एयरकंडीशंड विवेकानंद लाइब्रेरी में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी भाषा की ही किताबें और पत्र-पत्रिकाएं मिलती हैं. हिन्दी के लिए आपको या तो सेंट्रल लाइब्रेरी जाना होगा या मोतीलाल नेहरू पुस्तकालय.
तो क्या अंग्रेज़ी का पाठक ही सालाना ढाई हजार वार्षिक सदस्यता भर सकता है? और क्या उसे ही फ़ाइव स्टार सुविधा मिलेगी? हिन्दी के पाठक के पास क्या ऐसी काबिलीयत नहीं है कि वो दो-ढाई सौ रुपए सालाना से ज्यादा खर्च कर सकता हो और क्या उसे रद्दी सेवा, घटिया सुविधाओं और पुराने जर्जर पुस्तकों से ही संतोष करना होगा?
---
tag – library, pustakalaya, swami vivekanand library, british council library
'ब्रिटिश काउन्सिल लाइब्रेरी' से नाम बदलकर 'स्वामी विवेकानन्द पुस्तकालय' करने से क्या लाभ? सोच तो वही औपनिवेषिक रह गयी। क्या अन्तर पड़ता है यदि भारत को गोरे अंग्रेज शासन करें या भ्रष्ट भूरे देसी अंग्रेज?
जवाब देंहटाएंरुपये 2300.- वार्षिक में थोड़ा और मिला कर मैं हिन्दी की वांच्छित पुस्तकें खरीद लिया करूंगा और इत्मीनान से पढ़ा करूंगा।
जवाब देंहटाएंयह अवश्य है कि वित्त-मंत्रालय (पत्नीजी) की सहमति लेनी होगी! :-)
सेन्ट्रल लाइब्रेरी का ब्यौरा देकर आपने बचपन की याद दिला दी । तब हफ्ते में एक बार साइकिल से अपने इलाक़े से सेन्ट्रल लाइब्रेरी जाया करते थे । वो इस लाइब्रेरी के अच्छे दिन होते थे । तब धर्मयुग से लेकर सारिका और साप्ताहिक हिंदुस्तान से लेकर कादंबिनी तक सारी पत्रिकाएं और दैनिक भास्कर से लेकर हिंदू तक के सारे अखबार वहां मौजूद होते थे । और खासी भीड़ भी रहा करती थी । तब की हमारी ट्रिक ये होती थी कि अपनी पसंदीदा किताब पढ़ रहे व्यक्ति के सामने कोई चकाचक फिल्मी पत्रिका लेकर बैठ जाते थे । वो बहक जाता था । थोड़ी देर बाद फिल्मी पत्रिका वो पढ़ रहा होता था और हम वो पढ़ रहे होते थे जो हमें पढ़ना होता था ।
जवाब देंहटाएंअब मुद्दे की बात । जो दशा सेन्ट्रल लाइब्रेरी की आज है । उससे कुछ बेहतर यहां मुंबई की ऐशियाटिक लाइब्रेरी की है । इससे ये अहसास होता है कि अब राज्य सरकारों के तहत चल रही लाइब्रेरियां गर्त में जा रही हैं । मुंबई की ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी और विराट और चकाचक है । इसकी ओर से ईवेन्ट्स भी होते हैं । दरअसल सरकारी महकमे लाइब्रेरियों के महत्त्व को समझते नहीं हैं । हो सकता है कि उन्हें ये बेकार की बातें लगती हों । हम जैसे लाइब्रेरीजीवियों के लिए ये वाकई अफसोस की बात है ।
यह एक कारण है कि मैंने किसी पुस्तकालय की सदस्यता नहीं ले रखी क्योंकि किसी एक पुस्तकालय में मन माफ़िक सभी चीज़े नहीं मिलेंगी। ज्ञान जी की खरीदने की बात से सहमति है, साल भर में मेरा किताबें खरीदने पर तकरीबन 3000-3500 का खर्च होता है(कम ज़्यादा होता रहता है, जैसे इस वर्ष काफ़ी कम हुआ है) पर इत्मीनान रहता है कि पुस्तक मेरे पास है और कभी भी पढ़ी जा सकती है। ऑफिस की मौसमी व्यस्तता के चलते कोई निश्चित समय सीमा नहीं होती कि एक उपन्यास आदि १ माह में पढ़ा जाएगा या २-३ माह में, इसलिए पुस्तकालय की सदस्यता अपने लिए वैसे ही नहीं है! परन्तु पुस्तकें खरीदने का लफ़ड़ा यह है कि घरवालों की गालियाँ सुननी पड़ती हैं कि आखिर इतनी पुस्तकें रखी कहाँ जाएँगी!! :(
जवाब देंहटाएंवैसे यदि मैं होता तो अंग्रेज़ी वाले पुस्तकालय की सदस्यता ले लेता क्योंकि हिन्दी में मैं सिर्फ़ उपन्यास ही पढ़ता हूँ जो कि नुक्कड़ वाले बुक स्टॉल से किराए पर लाकर पढ़ लेता हूँ। ;)
आपने बहुत सही मुद्दे पे बात छेड़ी है,
जवाब देंहटाएंरायपुर में पाता हूं कि लाइब्रेरी नाम की चीज न के बराबर है।
एक है विवेकानंद आश्रम की लाइब्रेरी हिसके बारे में अपने ब्लॉग में लिख चुका हूं, दूसरा है सरकारी अर्थात आजकल शहीद स्मारक भवन मे स्थानांतरित लाइब्रेरी जहां किताबें इस हाल में रखी है कि पूछिए ही मत।
तीसरा है देशबन्धु अखबार की लाइब्रेरी जहां मुफ़्त में किताबें आती है पर देखभाल का अभाव साफ झलकता है।
इसके अलावा जिला पुस्तकालय भी है जहां अभी तक मैं पहुंचा नही हूं।
किसी दिन दिमाग सरकने पर वहां की भी सदस्यता लेने पहुंच जाऊंगा।
पर सवाल यह है कि लाइब्रेरी के नाम पे खानापूर्ति ही क्यों हर जगह?
यहाँ बेंगळूरु में भी सरकारी पुस्तकालयों का यही हाल है और ब्रिटिश कौन्सिल लाइब्ररी तो बहुत आकर्षक है और उपयोगी भी।
जवाब देंहटाएंकुछ साल पहले मैं वहाँ सदस्य था लेकिन सदस्यता renew नहीं किया।
इंटरनेट पर इतना समय चला जाता है कि किताब पढ़ने के लिए समय मिलता नहीं था।
सोच रहा हूँ एक e book reader खरीद लूँ।
मन चाहे किताबों को download करके पढ़ सकेंगे।
आज नहीं तो कल हिन्दी की किताबें भी pdf format में शायद उपलब्ध होंगे। पैसे खर्च करने के लिए भी तैयार हूँ।
जानता हूँ कि laptop पर भी पढ़ा जा सकता है।
लेकिन e book reader अधिक सुविधाजनक रहेगा।
इस विषय में औरों के विचार जानने के लिए उत्सुक हूँ।
सुझावों का भी स्वागत है।
शुभकामनाएं
विश्वनाथ
ये मुझे पता था की ब्रिटिश लायब्रेरी में सिर्फ इंग्लिश किताबें ही मिलती हैं...इसलिए मैंने भी मासिक बजट में से किताबों का बजट अलग कर रखा है...खरीद कर पढ़ती हूँ जिससे खुद की ही लायब्रेरी तैयार हो जाती है!
जवाब देंहटाएंमुझे आश्चर्य इस बात का है कि मप्र सरकार के अधीन पुस्तकालय में हिन्दी में पुस्तकें नहीं हैं।
जवाब देंहटाएं