राही, कोई नई राह बना जिससे कि तेरे पीछे आने वाले राही तुझे याद करें... *-*-* जावेद अख़्तर, जिन्हें इस साल के फ़िल्मफ़ेयर के पाँचों नॉमिनेशन ...
राही, कोई नई राह बना जिससे कि तेरे पीछे आने वाले राही तुझे याद करें...
*-*-*
जावेद अख़्तर, जिन्हें इस साल के फ़िल्मफ़ेयर के पाँचों नॉमिनेशन उनके गीतों के लिए मिले थे, ग़जलों के बारे में बेबाकी से कहते हैं कि – इतनी खूबसूरत ट्रेडिशन का धीरे-धीरे लोगों को इल्म कम होता जा रहा है. ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में इसकी दो पंक्तियों में – इशारों में, कॉम्पेक्ट तरीके से कही जाने वाली बातों का खासा योगदान रहा है, जो ग़ज़लकारों को मेहनत से लिखने के लिए मज़बूर करती हैं. इसके साथ ही इसके रदीफ, क़ाफिए और मकता-मतला जैसी पारंपरिक और नियमबद्ध चीज़ें भी ग़ज़ल लिखने के दौरान कठिनाइयाँ पैदा करती हैं.
मगर, फिर भी लोग ग़ज़लें लिख रहे हैं और क्या खूब लिख रहे हैं. भले ही पाठक, श्रोता और प्रशंसक नदारद हों – ग़ज़लें आ रही हैं... हिन्दी में भी और उर्दू में भी. और, मेरा तो यह मानना है कि पारंपरिक और नियमबद्ध रचना के पीछे पड़ने की जरूरत ही नहीं है. रचना ऐसी रचिए जिसमें पठनीयता हो, सरलता हो, प्रवाह हो और जिसे रच-पढ़ कर मज़ा आए. बस. कट्टरपंथी आलोचक तो हर दौर में अपनी बात कहते ही रहेंगे और उनसे हमें घबराना नहीं चाहिए, जैसा कि जावेद अपनी बात को समाप्त करते हुए कहते हैं- तुलसी दास ने जब राम चरित मानस लिखी तो उसकी बिरादरी ने निकाल बाहर किया कि किस घटिया जुबान (दोहा-छंद तो बाद की बात है!) में रामायण जैसी पवित्र किताब लिखी. वैसा ही सुलूक शाह अब्दुल क़ादिर के साथ हुआ था जब उन्होंने कुरान का उर्दू में तर्जुमा किया था.
*-*-*
ग़ज़ल
*-*-*
अवाम को आईना आखिर देखना होगा
हर शख्स को अब ग़ज़ल कहना होगा
यही दौर है यारो उठाओ अपने आयुध
वरना ता-उम्र विवशता में रहना होगा
बड़ी उम्मीदों से आए थे इस शहर में
लगता है अब कहीं और चलना होगा
जमाने ने काट दिए हैं तमाम दरख़्त
कंटीली बेलों के साए में छुपना होगा
इश्क में तुझे क्या पता नहीं था रवि
फूल मिलें या कांटे सब सहना होगा
*-*-*
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जावेद अख़्तर, जिन्हें इस साल के फ़िल्मफ़ेयर के पाँचों नॉमिनेशन उनके गीतों के लिए मिले थे, ग़जलों के बारे में बेबाकी से कहते हैं कि – इतनी खूबसूरत ट्रेडिशन का धीरे-धीरे लोगों को इल्म कम होता जा रहा है. ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में इसकी दो पंक्तियों में – इशारों में, कॉम्पेक्ट तरीके से कही जाने वाली बातों का खासा योगदान रहा है, जो ग़ज़लकारों को मेहनत से लिखने के लिए मज़बूर करती हैं. इसके साथ ही इसके रदीफ, क़ाफिए और मकता-मतला जैसी पारंपरिक और नियमबद्ध चीज़ें भी ग़ज़ल लिखने के दौरान कठिनाइयाँ पैदा करती हैं.
मगर, फिर भी लोग ग़ज़लें लिख रहे हैं और क्या खूब लिख रहे हैं. भले ही पाठक, श्रोता और प्रशंसक नदारद हों – ग़ज़लें आ रही हैं... हिन्दी में भी और उर्दू में भी. और, मेरा तो यह मानना है कि पारंपरिक और नियमबद्ध रचना के पीछे पड़ने की जरूरत ही नहीं है. रचना ऐसी रचिए जिसमें पठनीयता हो, सरलता हो, प्रवाह हो और जिसे रच-पढ़ कर मज़ा आए. बस. कट्टरपंथी आलोचक तो हर दौर में अपनी बात कहते ही रहेंगे और उनसे हमें घबराना नहीं चाहिए, जैसा कि जावेद अपनी बात को समाप्त करते हुए कहते हैं- तुलसी दास ने जब राम चरित मानस लिखी तो उसकी बिरादरी ने निकाल बाहर किया कि किस घटिया जुबान (दोहा-छंद तो बाद की बात है!) में रामायण जैसी पवित्र किताब लिखी. वैसा ही सुलूक शाह अब्दुल क़ादिर के साथ हुआ था जब उन्होंने कुरान का उर्दू में तर्जुमा किया था.
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ग़ज़ल
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अवाम को आईना आखिर देखना होगा
हर शख्स को अब ग़ज़ल कहना होगा
यही दौर है यारो उठाओ अपने आयुध
वरना ता-उम्र विवशता में रहना होगा
बड़ी उम्मीदों से आए थे इस शहर में
लगता है अब कहीं और चलना होगा
जमाने ने काट दिए हैं तमाम दरख़्त
कंटीली बेलों के साए में छुपना होगा
इश्क में तुझे क्या पता नहीं था रवि
फूल मिलें या कांटे सब सहना होगा
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बातें सही तो हैं लेकिन एक बार देखा जाय कि जब गजलों को गाएँ तो लय-सुर-ताल सब बेहाल होने लगते हैं कि नहीं। गजल में जो बातें हैं, वे बहुत आवश्यक, सुन्दर और गम्भीर हो सकती हैं लेकिन छंदबद्ध रचना में लय तो होना चाहिए।
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