***** मैंने अपने पिछले दो-एक ब्लॉग में स्कूलों में दोपहर के भोजन की योजनाओं की प्रायोगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए थे. हादसों की एक और कड़ी...
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मैंने अपने पिछले दो-एक ब्लॉग में स्कूलों में दोपहर के भोजन की योजनाओं की प्रायोगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए थे. हादसों की एक और कड़ी में नई कड़ी जुड़ी है कि छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के सरायपाली में दोपहर के भोजन में शराबी शिक्षकों ने छात्रों को भी शराब परोसा. एक ख़बर यह भी थी कि किसी स्कूल के छात्रों को पतली दाल और रोटियों को रोज खाकर ऊब होने लगी और उन्होंने यह भोजन करने से मना कर दिया.
देखें कि इस अप्रायोगिक योजना में आगे और भी क्या क्या हादसे होते हैं...
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सरकारें बड़े मज़े से अपनी सहूलियतों के लिए और अपने नाकारापन को ढँकने के लिए जब मर्जी आए, न्यायालयों का सहारा लेती रही हैं, और जब मर्जी पड़े न्यायालयों के आदेश के विरूद्ध अध्यादेश निकालती रही हैं. उदाहरणार्थ शाहबानो प्रकरण में न्यायालय के आदेश के विरूद्ध अध्यादेश लाया गया, तो पंजाब के सतलज-यमुना-लिंक नहर के लिए न्यायालय के आदेश के बावजूद उसे नहीं मानने के पंजाब विधानसभा के प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार किसी कठोर निर्णय लेने के बजाए फ़िर से न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा रही है. न्यायालय भले ही आज लोगों के लिए एक्टिविज़्म का पर्याय लग रही हों, पर यह भी सत्य है कि निच़ली अदालतें पूरी तरह से भ्रष्टाचार का अड्डा बनी हुई हैं. गुज़रात के किसी अदालत ने तो भारत के राष्ट्रपति के नाम से गिरफ़्तारी वारंट भी ज़ारी कर दिया गया था. शिबू सोरेन के विरूद्ध प्रकरण अदालत में सन् १९७५ से चल रहा है, जिसके लिए अभी उन्हें गिरफ़्तारी वारंट जारी किया गया. ३० वर्षों में किसी एक प्रकरण का फ़ैसला नहीं हो पाना न्याय-तंत्र का मज़ाक नहीं तो और क्या है.
--- पर हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है? पड़ता है क्या? अगर हमारे विरूद्ध कोई प्रकरण बने जिसमें हमें कोई सज़ा की गुंज़ाइश हो, तो हम भी यही करेंगे कि वकीलों को उनकी फ़ीस देकर सुनवाई की तिथियाँ आगे बढ़ाते रहेंगे. इस बीच राजनीति में घुसकर अपना वज़ूद बना लेंगे और हर संभव यह कोशिश करेंगे कि लोक हित में उस प्रकरण को वापस ले लिया जाए. यह भी संभव न हो तो पच्चीस तीस साल तो निकाल ही लेंगे, और भूले भटके अगर ज़ेल हो ही गई तो ज़ेल के बजाए अस्पताल का बिस्तर तो है ही जहाँ अपना डमी ठहरेगा और हम घूम घूमकर राजनीति किया करेंगे...
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ग़ज़ल
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क्या यह न्याय है?
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ज़ुर्म तेरी सज़ा मेरी क्या यह न्याय है
दशकों बाद मिले तो क्या यह न्याय है
तहरीर आपकी और फ़ैसला भी आपका
सुना तो रहे हो पर क्या यह न्याय है
तूने अपने लिए गढ़ ली राह गुलों की
काँटों पर हम चलें क्या यह न्याय है
सुनी थीं उनकी तमाम तहरीरें दलीलें
फ़ैसले पे सब हँसे क्या यह न्याय है
मत डूबो रवि अपनी जीत के जश्न में
सब कहते फ़िर रहे क्या यह न्याय है
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मैंने अपने पिछले दो-एक ब्लॉग में स्कूलों में दोपहर के भोजन की योजनाओं की प्रायोगिकता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए थे. हादसों की एक और कड़ी में नई कड़ी जुड़ी है कि छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के सरायपाली में दोपहर के भोजन में शराबी शिक्षकों ने छात्रों को भी शराब परोसा. एक ख़बर यह भी थी कि किसी स्कूल के छात्रों को पतली दाल और रोटियों को रोज खाकर ऊब होने लगी और उन्होंने यह भोजन करने से मना कर दिया.
देखें कि इस अप्रायोगिक योजना में आगे और भी क्या क्या हादसे होते हैं...
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सरकारें बड़े मज़े से अपनी सहूलियतों के लिए और अपने नाकारापन को ढँकने के लिए जब मर्जी आए, न्यायालयों का सहारा लेती रही हैं, और जब मर्जी पड़े न्यायालयों के आदेश के विरूद्ध अध्यादेश निकालती रही हैं. उदाहरणार्थ शाहबानो प्रकरण में न्यायालय के आदेश के विरूद्ध अध्यादेश लाया गया, तो पंजाब के सतलज-यमुना-लिंक नहर के लिए न्यायालय के आदेश के बावजूद उसे नहीं मानने के पंजाब विधानसभा के प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार किसी कठोर निर्णय लेने के बजाए फ़िर से न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा रही है. न्यायालय भले ही आज लोगों के लिए एक्टिविज़्म का पर्याय लग रही हों, पर यह भी सत्य है कि निच़ली अदालतें पूरी तरह से भ्रष्टाचार का अड्डा बनी हुई हैं. गुज़रात के किसी अदालत ने तो भारत के राष्ट्रपति के नाम से गिरफ़्तारी वारंट भी ज़ारी कर दिया गया था. शिबू सोरेन के विरूद्ध प्रकरण अदालत में सन् १९७५ से चल रहा है, जिसके लिए अभी उन्हें गिरफ़्तारी वारंट जारी किया गया. ३० वर्षों में किसी एक प्रकरण का फ़ैसला नहीं हो पाना न्याय-तंत्र का मज़ाक नहीं तो और क्या है.
--- पर हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है? पड़ता है क्या? अगर हमारे विरूद्ध कोई प्रकरण बने जिसमें हमें कोई सज़ा की गुंज़ाइश हो, तो हम भी यही करेंगे कि वकीलों को उनकी फ़ीस देकर सुनवाई की तिथियाँ आगे बढ़ाते रहेंगे. इस बीच राजनीति में घुसकर अपना वज़ूद बना लेंगे और हर संभव यह कोशिश करेंगे कि लोक हित में उस प्रकरण को वापस ले लिया जाए. यह भी संभव न हो तो पच्चीस तीस साल तो निकाल ही लेंगे, और भूले भटके अगर ज़ेल हो ही गई तो ज़ेल के बजाए अस्पताल का बिस्तर तो है ही जहाँ अपना डमी ठहरेगा और हम घूम घूमकर राजनीति किया करेंगे...
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ग़ज़ल
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क्या यह न्याय है?
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ज़ुर्म तेरी सज़ा मेरी क्या यह न्याय है
दशकों बाद मिले तो क्या यह न्याय है
तहरीर आपकी और फ़ैसला भी आपका
सुना तो रहे हो पर क्या यह न्याय है
तूने अपने लिए गढ़ ली राह गुलों की
काँटों पर हम चलें क्या यह न्याय है
सुनी थीं उनकी तमाम तहरीरें दलीलें
फ़ैसले पे सब हँसे क्या यह न्याय है
मत डूबो रवि अपनी जीत के जश्न में
सब कहते फ़िर रहे क्या यह न्याय है
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